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== ब्रह्म दत्त जी जिज्ञासु ==
 
वेदों के तलस्पर्शी विद्वान तथा पाणिनीय पद्धति से संस्कृत व्याकरण की शिक्षा देने के प्रबल समर्थक पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु का जन्म जालंधर जिले के मल्लूपोता ग्राम में १४ अक्टूबर १८९२ को हुआ | इनके पिता का नाम रामदास तथा माता का नाम परमेश्वरी देवी था | जिज्ञासु जी ने संस्कृत का अध्ययन अष्टाध्यायी के प्रकाण्ड विद्वान स्वामी पूर्णानंद से किया | व्याकरण में व्युत्पन्न होने के पश्चात् स्वामी सर्वदानंद द्वारा स्थापित साधु आश्रम हरदुआगंज में उन्होंने आर्ष ग्रंथों का अध्ययन १९२० से प्रारंभ किया | १९२१ में यह आश्रम गंडासिंह नाला अमृतसर में विरजानंदाश्रम के नाम से स्थानांतरित हो गया |
जनवरी १९३२ में मीमांसा दर्शन का विशिष्ट अध्ययन करने की दृष्टि से जिज्ञासु जी काशी आये | यहाँ उन्होंने महामहोपाध्याय पण्डित चिन्नस्वामी शास्त्री से उक्त दर्शन का गंभीर अध्ययन किया | १९३५ में वे काशी से लाहौर चले आये और रावी के तट पर शहादरे में छात्रों को अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निरुक्त, वेद, दर्शन आदि का अध्ययन कराने लगे | देश विभाजन के पश्चात् जिज्ञासु जी काशी आये, और मोतिझील अजमतगढ़ पैलेस में पाणिनीय महा विद्यालय की स्थापना की | पूर्ववत् यहाँ पर संस्कृत व्याकरण तथा अन्य शास्त्रों का शिक्षण करने लगे | भारत के राष्ट्रपति ने संस्कृत विद्वान के रूप में उन्हें सम्मानित किया | २१ दिसम्बर १९६५ में वाराणसी में उनका निधन हुआ |
लेखन कार्य :- यजुर्वेद भाष्य विवरण – स्वामी दयानन्द कृत यजुर्वेद भाष्य के प्रथम १५ अध्यायों पर जिज्ञासु जी ने विस्तृत विवरण लिखा | विवरण कार ने दयानन्द भाष्य पर विस्तृत टिप्पणियाँ लिखीं, तथा भाष्य में प्रयुक्त संस्कृत भाषा के व्याकरण विषयक तथाकथित अपप्रयोगों की साधुता सिद्ध की है | विवरण की विस्तृत भूमिका में वेद ज्ञान के स्वरुप, वेद और उसकी शाखाएँ, देवता वाद, छंदोंमीमांसा, धातुओं का अनेकार्थत्व तथा यौगिक वाद, वेदार्थ की विविध प्रक्रिया आदि महत्वपूर्ण विषयों का विवेचन किया गया है | इस विवरण का प्रथम १० अध्यायात्मक भाग रामलाल कपूर ट्रस्ट अमृतसर द्वारा २००३ विक्रम में प्रकाशित किया गया | अवशिष्ट पाँच अध्यायों का विवरण जिज्ञासु जी के निधन के पश्चात् २०२८ विक्रम में प्रकाशित हुआ |
वेदार्थ प्रकिया के मूलभूत सिद्धांत (१९४५), वेद और निरुक्त – प्रथम आर्य विद्वत् सम्मलेन (१९३२) में पठित यह निबंध सर्वप्रथम ओरियंटल कालेज लाहौर की शोध पत्रिका में १९३३ में प्रकाशित हुआ | निरुक्तकार और वेद में इतिहास – यह निबंध भी आर्य विद्वत् सम्मलेन में पढ़े जाने के पश्चात् ओरिएंटल कालेज लाहौर की शोध पत्रिका में छपा (१९४५), देवापि और शन्तनु के वैदिक आख्यान का वास्तविक स्वरुप (२००३ विक्रम), अष्टाध्यायी भाष्य प्रथमावृत्ति – अष्टाध्यायी के प्रत्येक सूत्र का पदच्छेद, विभक्ति, समास, अर्थ, उदाहरण और उसकी सिद्धि पूर्वक यह भाष्य संस्कृत तथा हिंदी दोनों भाषाओं में लिखा था | अवशिष्ट ३ अध्यायों पर भाष्य उनकी अन्तेवासिनी कुमारी प्रज्ञा देवी ने लिखा | प्रथम भाग रामलाल कपूर ट्रस्ट २०२१ विक्रम (१९६४), द्वितीय भाग द्वितीय संस्करण २०३१ विक्रम (१९७४), तृतीय भाग (प्रज्ञादेवी लिखित) २०२४ विक्रम (१९६८) में छपा | संस्कृत पठनपाठन की अनुभूत सरलतम विधि-अष्टाध्यायी के माध्यम संस्कृत सीखने की सरल विधि को लेखक ने अनेक पाठों में निबद्ध किया है | (१९५५) अन्य ग्रन्थ – भारत के समस्त रोगों की अचूक औषधि – ऋषि प्रणाली (१९५९), गोरखपुर तथा मेरठ में आयोजित वेद सम्मलेन के अध्यक्षीय भाषण (१९५९ तथा १९५१) |
साभार – आर्य लेखक कोश – लेखक डॉ. भवानीलाल भारतीय
आचार्य श्री रामचंद्र जी व्याकरणाचार्य, निरुक्ताचार्य के गुरु थे | आपके अंतेवासी बनकर / रहकर रामचंद्र जी ने वेद भाष्य में सहायता की थी और आपके मार्गदर्शन में शुद्धि का कार्य भी किया था |
डॉ. प्रज्ञा देवी जी और मेधा देवी जी (पाणिनि कन्या महा विद्यालय वाराणसी) के भी आप गुरु रहे |
डॉ. सुद्युम्न जी – सतना, विजय पाल जी विद्यावारिधि, पण्डित युधिष्ठिर जी मीमांसक, पण्डित भागवतदत्त जी आदि जैसे पण्डितों के गुरु थे आप | आप शोध पत्रिका “वेद वाणी” के आद्य संपादक थे |