"कर्म": अवतरणों में अंतर

No edit summary
पंक्ति 1:
<math></math>साधारण बोलचाल की भाषा में '''कर्म''' का अर्थ होता है 'क्रिया' । [[व्याकरण]] में क्रिया से निष्पाद्यमान फल के आश्रय को कर्म कहते हैं। "राम घर जाता है' इस उदाहरण में "घर" गमन क्रिया के फल का आश्रय होने के नाते "जाना क्रिया' का कर्म है।
 
[[दर्शन]] में '''कर्म''' एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त होता है। जो कुछ मनुष्य करता है उससे कोई फल उत्पन्न होता है। यह फल शुभ, अशुभ अथवा दोनों से भिन्न होता है। फल का यह रूप क्रिया के द्वारा स्थिर होता है। [[दान]] शुभ कर्म है पर हिंसा अशुभ कर्म है। यहाँ कर्म शब्द क्रिया और फल दोनों के लिए प्रयुक्त हुआ है। यह बात इस भावना पर आधारित है कि क्रिया सर्वदा फल के साथ संलग्न होती है। क्रिया से फल अवश्य उत्पन्न होता है। यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि शरीर की स्वाभाविक क्रियाओं का इसमें समावेश नहीं है। आँख की पलकों का उठना, गिरना भी क्रिया है, परंतु इससे फल नहीं उत्पन्न होता। दर्शन की सीमा में इस प्रकार की क्रिया का कोई महत्व इसलिए नहीं है कि वह क्रिया मन:प्रेरित नहीं होती। उक्त सामान्य नियम मन:प्रेरित क्रियाओं में ही लागू होता है। जान बूझकर किसी को दान देना अथवा किसी का वध करना ही सार्थक है। परंतु अनजाने में किसी का उपकार देना अथवा किसी को हानि पहुँचाना क्या कर्म की उक्तपरिधि में नहीं आता? कानून में कहा जाता है कि नियम का अज्ञान मनुष्य को क्रिया के फल से नहीं बचा सकता। [[गीता]] भी कहती है कि कर्म के शुभ अशुभ फल को अवश्य भोगना पड़ता है, उससे छुटकारा नहीं मिलता। इस स्थिति में जाने-अनजाने में की गई क्रियाओं का शुभ-अशुभ फल होता ही है। अनजाने में की गई क्रियाओं के बारे में केवल इतना ही कहा जाता है कि अज्ञान कर्ता का दोष है और उस दोष के लिए कर्ता ही उत्तरदायी है। कर्ता को क्रिया में प्रवृत्त होने के पहले क्रिया से संबंधित सभी बातों का पता लगा लेना चाहिए। स्वाभाविक क्रियाओं से अज्ञान में की कई क्रियाओं का भेद केवल इस बात में है कि स्वाभाविक क्रियाएँ बिना मन की सहायता के अपने आप होती हैं पर अज्ञानप्रेरित क्रियाएँ अपने आप नहीं होतीं-उनमें मन का हाथ होता है। न चाहते हुए भी आँख की पलकें गिरेंगी, पर न चाहते हुए अज्ञान में कोई क्रिया नहीं की जा सकती है। क्रिया का परिणाम क्रिया के उद्देश्य से भिन्न हो, फिर भी यह आवश्यक नहीं कि क्रिया की जाए। अत: कर्म की परिधि में वे क्रियाएँ और फल आते हैं जो स्वाभाविक क्रियाओं से भिन्न हैं।
पंक्ति 11:
क्या शुभाशुभ परित्याग संभव है? शरीर रहते यह संभव नहीं मालूम होता। पर एक उपाय है। मन के शोधन से यह सिद्ध हो सकता है। यदि मन में किसी फल की आकांक्षा के बिना, पलक उठने गिरने की तरह, सारी क्रियाएँ स्वाभाविक रूप से की जाएँ तो उनसे शुभ अशुभ फल उत्पन्न नहीं होंगे और जन्म मृत्यु से भी छुटकारा मिल जाएगा। निष्काम कर्म का यही आदर्श है। इसके विपरीत सारे कर्म-जो शुभ अशुभ होते हैं-सकाम कर्म हैं और वे बंधन के कारण हैं।
 
कर्म के इस सिद्धांत के साथ [[स्वर्ग]]-[[नरक]] की कल्पनाएँ भी जुड़ी हैं। शुभ कर्मों के परिणामस्वरूप सकल सुखों से पूर्ण स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत नरक की प्राप्ति होती है। स्वर्ग नरक में भी शुभ अशुभ कर्म की मात्रा के अनुसार अनेक स्तर माने गए हैं, जैसे पृथ्वी पर अनेक स्तर हैं। कर्म के सिद्धांत को मानने पर स्वर्ग नरक की कल्पना को भी मानना आवश्यक हो जाता है।जा
 
जिन्हें हम शुभ कर्म कहते हैं वे पुण्य तथ अशुर्भ कर्म पाप कहलाते हैं। पुण्य और पाप मुख्यत: क्रिया के फल का बोध कराते हैं। ये कर्म तीन प्रकार के हाते हैं। नित्यकर्म वे हैं जो न करने पर पाप उत्पन्न करते हैं, किंतु करने पर कुछ भी नहीं उत्पन्न करते। नैमित्तिक कर्म करने से पुण्य तथा न करने से पाप होता है। काम्य कर्म कामना से किए जाते हैं अत: उनके करने से फल की सिद्धि होती है। न करने से कुछ भी नहीं होता। चूँकि तीनों कर्मों में यह उद्देश्य छिपा है कि पुण्य अर्जित किया जाए, पाप से दूर रहा जाए, अत: ये सभी कर्म मन:प्रेरित हैं। जन्म से छुटकारा पाने के लिए नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों का परित्याग अत्यंत आवश्यक माना गया है।
 
Line 74 ⟶ 73:
[[vi:Nghiệp]]
[[zh:業]]
...............................................................................................................................................................................................................................................................
'''कर्म का विज्ञान'''
अच्छा जीवित शरीर अपने उत्तम इन्द्रिय ज्ञान के साथ अपने अंगों का उत्तम प्रयोग कर ही अनुकूल परिस्थिति होने पर सर्वोत्तम परिणाम देता है.
भगवदगीता में आत्मा के अकर्ता धर्म को समझाने की दृष्टि से कर्म का विज्ञान बताते हुए श्री भगवान कहते हैं-
 
कर्म सिद्धि के पांच हेतु कर्ता और आधार
विविध प्रथक चेष्टा करण और पांचवां देव।। 14।।
 
हे अर्जुन, तू कर्मों के पांच कारण को जान। अधिष्ठान ही जीव की देह है। इस देह में जीव (भोक्ता) इस देह को भोगता है अतः दूसरा तत्व जीव कर्ता है। प्रकृति में आत्मा का प्रतिबिम्ब जीव है, आत्मा का देह भाव जीव है। जीव देह में कर्ता, भोक्ता रूप में रहता है। तीसरा तत्व है करण अर्थात भिन्न भिन्न इन्द्रियों का होना और चौथा है चेष्टा जिससे अंग संचालित हों। ज्ञान जब जीभ से से बाहर आता है तो वाणी, नेत्र से बाहर आता है तो दृश्य, पांव से चलना फिरना आदि अर्थात नाना प्रकार की चेष्टाएं। पांचवां दैव अर्थात परिस्थिति अनुकूल है, इन्द्रियां अनुकूल हैं, चित्त भी अनुकूल हो। सभी तत्व अनुकूल हों, यह प्रारब्ध वश होता है। इन हेतुओं से कर्म की रचना होती है।
कोई भी कर्म होने के लिए 05 हेतु आवश्यक है.
1-शरीर
2-जीवात्मा
3-इन्द्रियाँ
4-चेष्टा
5- दैव- अनुकूलता
बिना शरीर के कर्म नहीं हो सकता.
मृत शरीर से कर्म नहीं हो सकता.
इन्द्रिय ज्ञान के बिना कर्म नहीं हो सकता.जैसे दृश्य ज्ञान के बिना आँखों के देखा नहीं जा सकता. श्रवण ज्ञान के बिना सुना नहीं जा सकता.
कर्मेन्द्रियों की कार्य प्रणाली ठीक होनी चाहिए.
परिस्थितियां इन्द्रियां, चित्त भी अनुकूल होने चाहिए इसे दैव कहा है.
परन्तु जन साधरण और प्रबंधन की दृष्टि से इन नियमों को लागू कर उत्तम परिणाम प्राप्त कर सकते हैं. अच्छा जीवित शरीर अपने उत्तम इन्द्रिय ज्ञान के साथ अपने अंगों का उत्तम प्रयोग कर ही अनुकूल परिस्थिति होने पर सर्वोत्तम परिणाम दे सकता है.अतः
1- शरीर रक्षा आवश्यक है.
2- शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है.
3- स्वस्थ चिन्तन आवश्यक है.
4- दिमाग और इन्द्रियाँ पुष्ट होनी आवश्यक है.
अनुकूल परिस्थिति का इंतजार करना आवश्यक है अथवा परिस्थिति अनुकूल करने के लिए प्रयास रत होना चाहिए.
सन्दर्भ - बसंतेश्वरी भगवद्गीता
"https://hi.wikipedia.org/wiki/कर्म" से प्राप्त