"विपश्यना": अवतरणों में अंतर
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प्रो बसंत प्रभात जोशी के अनुसार विपश्यना अत्यंत प्राचीन विधि है इसका सबसे पहले प्रसंग मुंडकोपनिषद में मिलता है.
'तयोरन्यः पिप्पलं स्वादत्त्य नाश्रन्नन्यों अभिचाकशीत.' उनमें एक (जीव) मधुर कर्म फल का भोग करता है दूसरा भोग न करके केवल देखता (साक्षी) रहता है.
श्रीमदभगवद्गीता में भगवान कहते हैं -
उपदृष्टा अनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः २२-१३.
इस शरीर में सहित आत्मा ही साक्षी होने से उपदृष्टा है.
श्रीमद भगवद्गीता के पांचवें अध्याय में कहते हैं -
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ।8।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।9।
तत्व को जानने वाला योगी, मैं पन के अभाव से रहित हो जाता है और वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता, हुआ गमन, करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँख खोलता हुआ, मूँदता हुआ किसी भी शारीरिक कर्म में सामान्य मनुष्य की तरह लिप्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यों को कर रही हैं अतः उसमें कर्तापन का भाव नहीं होता है। यही साक्षी भाव है .
कालांतर में इसे महात्मा बुद्ध ने अपनाया वर्तमान में इसे विपश्यना के नाम से भी जाना जाता है और प्रचारित है. इस सन्दर्भ में यह भी स्पष्ट करना चाहूँगा की स्वास नियमित करना प्राचीन वैदिक पद्धति है जिसके प्रयोग से स्वास में साक्षी भाव स्वतः होने लगता है.
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