"कर्म": अवतरणों में अंतर
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==बाहरी कड़ियाँ==
* [https://sites.google.com/site/vedicfundas/thought-provoking-articles/the-law-of-karma कर्म-व्यवस्था के आयाम]
* [http://www.lakesparadise.com/madhumati/show_artical.php?id=1148 कर्म का सिद्धान्त] (मधुमती)
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'''कर्म का विज्ञान'''-▼
अच्छा
भगवदगीता के अठारहवें अध्याय में आत्मा के अकर्ता धर्म को समझाने की दृष्टि से
कर्म सिद्धि के पांच हेतु कर्ता और आधार▼
विविध प्रथक चेष्टा करण और पांचवां देव।। 14।।▼
हे अर्जुन, तू कर्मों के पांच कारण को जान। अधिष्ठान ही जीव की देह है। इस देह में जीव (भोक्ता) इस देह को भोगता है अतः दूसरा तत्व जीव कर्ता है। प्रकृति में आत्मा का प्रतिबिम्ब जीव है, आत्मा का देह भाव जीव है। जीव देह में कर्ता, भोक्ता रूप में रहता है। तीसरा तत्व है करण अर्थात भिन्न भिन्न इन्द्रियों का होना और चौथा है चेष्टा जिससे अंग संचालित हों। ज्ञान जब जीभ से से बाहर आता है तो वाणी, नेत्र से बाहर आता है तो दृश्य, पांव से चलना फिरना आदि अर्थात नाना प्रकार की चेष्टाएं। पांचवां दैव अर्थात परिस्थिति अनुकूल है, इन्द्रियां अनुकूल हैं, चित्त भी अनुकूल हो। सभी तत्व अनुकूल हों, यह प्रारब्ध वश होता है। इन हेतुओं से कर्म की रचना होती है।▼
कोई भी कर्म होने के लिए 05 हेतु आवश्यक है.▼
1-शरीर ▼
2-जीवात्मा ▼
3-इन्द्रियाँ ▼
4-चेष्टा ▼
5- दैव- अनुकूलता ▼
बिना शरीर के कर्म नहीं हो सकता.▼
इन्द्रिय ज्ञान
परिस्थितियां इन्द्रियां, चित्त भी अनुकूल होने चाहिए इसे दैव कहा है.▼
परन्तु जन साधरण और प्रबंधन की दृष्टि से इन नियमों को लागू कर उत्तम परिणाम प्राप्त कर सकते हैं. अच्छा
1- शरीर रक्षा आवश्यक है.▼
2- शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है.▼
3- स्वस्थ चिन्तन आवश्यक है.▼
4- दिमाग और इन्द्रियाँ पुष्ट होनी आवश्यक है.▼
अनुकूल परिस्थिति का इंतजार करना आवश्यक है अथवा परिस्थिति अनुकूल करने के लिए प्रयास रत होना चाहिए.▼
सन्दर्भ - बसंतेश्वरी भगवद्गीता▼
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▲'''कर्म का विज्ञान'''-
▲अच्छा जीवित शरीर अपने उत्तम इन्द्रिय ज्ञान के साथ अपने अंगों का उत्तम प्रयोग कर ही अनुकूल परिस्थिति होने पर सर्वोत्तम परिणाम देता है.
▲भगवदगीता के अठारहवें अध्याय में आत्मा के अकर्ता धर्म को समझाने की दृष्टि से कर्म का विज्ञान बताते हुए श्री भगवान कहते हैं-
▲कर्म सिद्धि के पांच हेतु कर्ता और आधार
▲विविध प्रथक चेष्टा करण और पांचवां देव।। 14।।
▲हे अर्जुन, तू कर्मों के पांच कारण को जान। अधिष्ठान ही जीव की देह है। इस देह में जीव (भोक्ता) इस देह को भोगता है अतः दूसरा तत्व जीव कर्ता है। प्रकृति में आत्मा का प्रतिबिम्ब जीव है, आत्मा का देह भाव जीव है। जीव देह में कर्ता, भोक्ता रूप में रहता है। तीसरा तत्व है करण अर्थात भिन्न भिन्न इन्द्रियों का होना और चौथा है चेष्टा जिससे अंग संचालित हों। ज्ञान जब जीभ से से बाहर आता है तो वाणी, नेत्र से बाहर आता है तो दृश्य, पांव से चलना फिरना आदि अर्थात नाना प्रकार की चेष्टाएं। पांचवां दैव अर्थात परिस्थिति अनुकूल है, इन्द्रियां अनुकूल हैं, चित्त भी अनुकूल हो। सभी तत्व अनुकूल हों, यह प्रारब्ध वश होता है। इन हेतुओं से कर्म की रचना होती है।
▲कोई भी कर्म होने के लिए 05 हेतु आवश्यक है.
▲1-शरीर
▲2-जीवात्मा
▲3-इन्द्रियाँ
▲4-चेष्टा
▲5- दैव- अनुकूलता
▲बिना शरीर के कर्म नहीं हो सकता.
▲मृत शरीर से कर्म नहीं हो सकता.
▲इन्द्रिय ज्ञान के बिना कर्म नहीं हो सकता.जैसे दृश्य ज्ञान के बिना आँखों के देखा नहीं जा सकता. श्रवण ज्ञान के बिना सुना नहीं जा सकता.
▲कर्मेन्द्रियों की कार्य प्रणाली ठीक होनी चाहिए.
▲परिस्थितियां इन्द्रियां, चित्त भी अनुकूल होने चाहिए इसे दैव कहा है.
▲परन्तु जन साधरण और प्रबंधन की दृष्टि से इन नियमों को लागू कर उत्तम परिणाम प्राप्त कर सकते हैं. अच्छा जीवित शरीर अपने उत्तम इन्द्रिय ज्ञान के साथ अपने अंगों का उत्तम प्रयोग कर ही अनुकूल परिस्थिति होने पर सर्वोत्तम परिणाम दे सकता है.अतः
▲1- शरीर रक्षा आवश्यक है.
▲2- शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है.
▲3- स्वस्थ चिन्तन आवश्यक है.
▲4- दिमाग और इन्द्रियाँ पुष्ट होनी आवश्यक है.
▲अनुकूल परिस्थिति का इंतजार करना आवश्यक है अथवा परिस्थिति अनुकूल करने के लिए प्रयास रत होना चाहिए.
▲सन्दर्भ - बसंतेश्वरी भगवद्गीता
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