"कालक्रम विज्ञान": अवतरणों में अंतर

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'''कालक्रम विज्ञान''' (Chronology) वह विज्ञान है जिसके द्वारा हम ऐतिहासिक घटनाओं का कालनिर्माण कर सकते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि सब घटनाओं को किसी एक ही संवत्सर में प्रदर्शित किया जाए। केवल ऐसा करने पर ही सब घटनाओं का क्रम और उनके बीच का व्यतीत काल हम ज्ञात कर सकते हैं। यह संवत्सर कोई भी हो सकता है—प्राचीन या अर्वाचीन। इस काम के लिए आजकल अधिकतर ईसवी सन्‌ का उपयोग किया जाता है। हमारे यहाँ इस काम के लिए गतकलि वर्ष प्रयुक्त होता था और यूरोप में, प्राचीन काल में, और कभी-कभी आजकल भी, जूलियन पीरिअड व्यवहृत होता है।
 
जगत्‌ के विविध देशों और विविध कालों में अलग-अलग संवत्‌ (era) प्रचलित थे। इतना ही नहीं, भारत जैसे विशाल देश में आजकल और भूतकाल में भी बहुत से संवत्‌ प्रचलित थे। इन सब संवतों के प्रचार का आरंभ भिन्न-भिन्न काल में हुआ और उनके वर्षों का आरंभ भी विभिन्न ऋतुओं में होता था। इसके अतिरिक्त वर्ष, मास और दिनों की गणना का प्रकार भी भिन्न था। सामान्यत: वर्ष का मान ऋतुचक्र के तुल्य रखने का प्रयत्न किया जाता था, परंतु इस्लामी संवत्‌ हिज़री के अनुसार वह केवल बारह चांद्र मासों, अर्थात्‌ ३५४ दिनों का, वर्ष होता था, जो ऋतुचक्र के तुल्य नहीं है। कुछ वर्ष चांद्र और सौर के मिश्रण होते थे, जैसा आजकल भारत के अनेक प्रांतों में प्रचलित है। इसमें १२ चांद्र मासों (३५४ दिनों) का एक वर्ष होता है, परंतु दो या तीन वर्षों में एक अधिमास बढ़ाकर वर्ष के मध्य (औसत) मान को ऋतुचक्र के तुल्य बनाया जाता है। प्रत्येक ऋतु-चक्र-तुल्य वर्ष को सौर वर्ष भी कहते हैं, क्योंकि उसका मान सूर्य से संबद्ध होता है।