"संविधान": अवतरणों में अंतर

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सभी प्रचलित कानूनों को अनिवार्य रूप से संविधान की भावना के अनुरूप होना चाहिए यदि वे इसका उल्लंघन करेंगे तो वे अस्वेधानिक घोषित कर दिए जाते है।
 
कानून के राज का खात्मा क्यों हो रहा है- व्यास
 
भारत के संविधान को जब लागू किया जा रहा था तब संविधान सभा एवं देश के नागरिकों की एकमात्र इच्छा थी कि देश का शासन एवं प्रशासन कानून के अनुसार चले। भारत के संविधान को दुनिया के किसी भी धार्मिक ग्रन्थ से कम महत्व नहीं मिले। परन्तु आजादी के इतने लम्बे समय बाद भी देश में कानून के शासन को कायम करने की प्रबल इच्छा शक्ति के अभाव में कानून के राज का खात्मा ही ज्यादा हुआ है। जातिवाद, साम्प्रदायिकता, लैंगिक भेद, क्षेत्रवाद, झुठी अस्मिता को लेकर बनाया गया जाल है। आज समाज जीवन पर हावी है परिणाम स्वरूप समाज जीवन में परिवार एवं व्यक्ति में जीवन में तनाव, क्लेश, अविश्वास का माहोल स्पष्ट नजर आ रहा है। आज लोकहितो पर व्यक्तिगत हित स्पष्टतः काबिज होते नजर आ रहे है। आज खुले बाजार की वैश्विक अर्थव्यवस्था ने पूरे देश को बाजार बना दिया है। बाजार में केवल वस्तुएं एवं सेवाएं केवल लाभ के लिये ही बिकती है। जिन चीजो को बेचने से लाभ नहीं होता उन चीजो का उत्पादन तक बंद हो जाता है। बाजार की संस्कृति आज इतनी हावी है कि व्यक्ति किसी भी कीमत पर विलासिता पूर्ण जीवन जीने के लिए एवं अपने को ऊचा दिखाने के लिये सामने वाले को कितना ही गिरा हुआ साबित कर सकता है। सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार में केंसर की तरह अपना स्थान बना लिया है। भ्रष्ट व्यवस्था ने पूंजीपतियों को ही सबसे ज्यादा लाभ होता है परन्तु गरीबी की रेखा के नीचे जीवन व्यतीत करने वाले एवं मध्यम वर्ग को दारूण दुख झेलने होते है। आज महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अशिक्षा, अवैज्ञानिक जीवन पद्धति, धर्म का भोण्डा प्रदर्शन ने समाज में अपनी जड़े गहरी कर दी है। भारतीय संविधान की मंशा रही थी कानून की निगाह में सभी व्यक्ति समान हो और कानून सबको एक ही नजर से देखेगा परन्तु आज यदि हम देखते है तो स्पष्ट दिख रहा है कि कानून सब को एक नजर से भी नहीं देख रहा है और नहीं देश का आम नागरिक यह मानने को तैयार है कि कानून सबको एक ही नजर से देख रहा है। संविधान में स्पष्ट है कि समाजवादी समाज की रचना हमारा ध्येय होगा। साथ ही आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक स्वतंत्रताएं नागरिको को प्राप्त होगी परन्तु देश के आम नागरिको को तो शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, न्याय, ऊर्जा, आवास, पर्यावरण तक उपयुक्त नहीं मिला है जिसके कारण देश की 80 प्रतिशत जनता गरिमामय जीने के अधिकार से वंचित है। एक तरफ तो भारत का संविधान अनुच्छेद 21 स्पष्ट प्रावधान करता है कि नागरिकों को केवल जीने का ही अधिकार नहीं है बल्कि गरिमामय जीने का अधिकार है। क्या 26 रुपये रोज में देश का कोई नागरिक इज्जत और सम्मान के साथ जिंदा रहा सकता है ? यदि नही ंतो देश की राजनीति, राजनेता, कार्यपालिका विधायिका, मीडिया एवं गैरसरकारी संगठन जो कथित रूप से लोकहित के लिये समर्पित होने का दावा करते है जिम्मेदार नहीं है ? कानून का राज कायम करने के लिये लोगों को कानून की जानकारी होना भी आवश्यक है परन्तु कानून जब जनता की भाषा में ही नहीं होगा तो जनता कानून की जानकारी कैसे प्राप्त करेगी और कैसे न्याय प्राप्त करेगी।
== परिचय ==
'''संविधान''' (constitution) शब्द का प्रयोग साधारणतया संकुचित एवं विस्तृत दो रूपों में होता है। विस्तृत रूप में इसका प्रयोग किसी राज्य के शासनप्रबन्ध सम्बन्धी सब नियमों के लिये होता है। इन नियमों में से कुछ नियम न्यायालयों द्वारा मान्य तथा लागू किए जाते हैं, किंतु कुछ ऐसे भी होते हैं जो पूर्णतया वैधानिक नहीं होते। इन विधि से परे अर्धवैधानिक नियमों की उत्पत्ति रूढ़ि, परंपरागत प्रथाओं, प्रचलित व्यवहार एवं विधि व्याख्या से होती है। अपने अशुद्ध रूप के कारण यह नियम न्यायलयों में मान्यता नहीं पाते, किंतु फिर भी शासनप्रबंध की व्यावहारिकता में इनका प्रभाव शुद्ध नियमों का मिश्रण ही संविधान होता है। इंग्लैंड का विधान इस कथन का साक्षी है। अन्य देशों में संविधान का अर्थ तनिक अधिक संकुचित रूप में होता है, तथा केवल जन विशेष नियमों के सम्बन्ध में होता है जो शासन प्रबन्ध के हेतु आधिकारिक लेखपत्रों में आबद्ध कर लिए जाते हैं। फलत: संविधान एक प्रकार से किसी देश का वह एक या अधिक लेखपत्र होता है जिसमें उस देश के शासनप्रबन्ध में अनुशासन के मूल नियम संकलित हों। इस अर्थ के साक्षी संयुक्त राष्ट्र अमरीका तथा भारत के संविधान हैं।