"पाण्ड्य राजवंश": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Content deleted Content added
अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) No edit summary |
अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) |
||
पंक्ति 24:
==इतिहास==
===आरम्भिक इतिहास (ईसापूर्व ३री शताब्दी - ३ री शताब्दी ई )
तमिल भाषा के शंगम साहित्य से सर्वप्रथम कुछ प्राचीन पांड्य राजाओं के नाम उनके उल्लेखनीय कृत्यों के सहित ज्ञात होते हैं। इनमें पहला नाम नेडियोन का है किंतु उसका व्यक्तित्व काल्पनिक मालूम होता है। दूसरा शासक पल्शालै मुदुकुडुभि अधिक सजीव है। कहा जाता है, उसने अनेक यज्ञ किए थे और विजित प्रदेशो के साथ निर्दयता का व्यवहार किया था। तीसरा शासक नेड्ड जेलियन् था जिसका विरुद (प्रशस्ति) था 'एक आर्य' (उत्तर भारत का) सेना पर विजय प्राप्त करनेवाला (आरियप्पडैक दंड)। एक छोटी सी कविता उसकी रचना बतलाई जाती है। प्राचीन पांड्य नरेशें में सबसे अधिक प्रसिद्ध शासक एक दूसरा नेड्डंजेलियन् था जिसका राज्यकाल २१० ई. के लगभग था। अल्प आयु में ही सिंहासन पर बैठते ही उसने अपने समकालीन शासकों के सम्मिलित आक्रमण को विफल किया, उनका चोल देश में खदेड़कर तलैयालंगानम् के युद्ध में पराजित किया और चेर नरेश को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया।
===प्रथम पाण्ड्य साम्राज्य (छठी शताब्दी - दसवीं शतब्दी)===
छठी शताब्दी में पांड्य राज्य पर कलभ्रों का अधिकार हो गया था। कड्डंगोन् (५९०-६२०) और उसके पुत्र मारवर्मन् अरनिशूलामणि (६२०-६४५) ने कलभ्रों के आधिपत्य का अंत कर पांड्य राज्य का पुनरुद्धार किया। शेंदन अथवा जंयतवर्मन् (६४५-६७०) ने चेर राज्य की विजय की थी। किंतु उसकी प्रसिद्धि अपने न्याय और शौर्य के कारण है। अरिकेसरि परांकुश मारवर्मन (६७०-७१०) के सय से प्रथम पांड्य साम्राज्य के गौरव का श्रीगणेश होता है। पांड्य साम्राज्य का विस्तार उनकी परंपरागत सीमाओं के बाहर भी हुआ। इस साम्राज्यवादी नीति के कारण उसका उत्तर में पल्लवों और पश्चिम में केरलों के साथ संघर्ष हुआ। संभवत: यही अनुश्रुतियों में वर्णित कूण पांड्य नाम का राजा था जिसने संत संबदर से प्रभावित होकर शैव सिद्धांत की दीक्षा ली और जैनियों को त्रस्त किया। कोच्चडैयन रणधीर (७१०-७३०) की प्रभुता चोल और चेर राज्य मानते थे। उसने कोंगुदेश और मंगलपुरम् (मंगलोर) की भी विजय की थ। मारवर्मन राजसिंह प्रथम (७३०-७६५) ने पल्लव नरेश नदिवर्मन् मल्लवमल्ल को कई युद्धों में पराजित किया। उसने कावेरी नदी पारकर मलकोंगम् की विजय की। पश्चिमी चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन् द्वितीय और उसके गंग सामंत श्रीपुरुष को उसने वेण्वै के प्रसिद्ध युद्ध में पराजित किया था। अपन गौरव के अनुकूल उसने अनेक महादान संपन्न किए। जटिल परांतक नेडुंजडैयन् ने जा वरगुरम् महाराज प्रथम (७६५-८१५) के नाम से प्रसिद्ध है, पांड्य साम्राज्य के विस्तार में सबसे अधिक योग दिया। उसने अपने राज्यकाल के प्ररंभिक वर्षों में ही पल्लवों को कावेरी के दक्षिणी तट पर पेंणागवम् नाम के स्थान पर पराजित किया। उसने पश्चिमी कोंगु देश के शासक के समंत अदियैमान तथा पल्लव और केरल नरेशों की संगठित शक्ति को पराजित कर कोंगु देश को अपने अधिकार में कर लिया। विलियम् के सुदृढ़ दुर्ग को नष्ट कर उसने वेनाड (दक्षिणी त्रावणकोर) की विजय की। बीच के प्रदेश के आर्य सामंत को भी पराजित किया था। पांड्य सत्ता त्रिचनापली के अतिरिक्त तंजोर, सालेम, कोयंबत्तूर और दक्षिणी त्रावणकोर में भी फैल गई थी। उसने महादेव और विष्णु दोनों के ही मंदिरों का निर्माण कराया। संभवत: यही शैव संत [[माणिक्क वाचगर]] से संबधित वरगुण था। श्रीमार श्रीवल्लभ (८१५-८६२) ने प्रसार के क्रम को बनाए रखा। उसने [[लंका]] पर आक्रमण करे उसके उत्तरी भाग और उसकी राजधानी को लूटा।
पल्लव नरेश नंदिवम्र् तृतीय ने श्रीमार की विकासवादी नीति के विरुद्ध गंग, चोल और राष्ट्रकूटों के साथ शक्तिशाली संघ बनाया। पांड्यों को पराजित कर पल्लव सेना उनके राज्य के अंदर घुस गई थी किंतु श्रीमार ने अपने विरोधियों को [[कुंबकोनम्]] के समीप पराजित किया। अंत में वह पल्लव नरेश नृपतुंग के हाथों अरिशिल के युद्ध में पूरी तरह पराजित हुआ। इसी समय लंका के शसक सेन द्वितीय ने पांड्यों की राजधानी को लूटा। श्रीमार की मृत्यु युद्ध के घावों के कारण हुई। सिंहली सेनापति ने श्रीमार के पुत्र वरगुण वर्मन् द्वितीय (८६२-८८०) को सिंहासन पर बैठाया। वरगुण वर्मन् ने पल्लवों की बढ़ती शक्ति को रोकने का प्रयत्न किया किंतु फिर पल्लव, चोल और गंग वंशों की संमिलित सेनाओं ने पांड्यों को श्रीयुरंबियम के युद्ध में पराजित किया। परांतक वीर नारायण (८८०-९००) के समय में चोल नरेश ने कोंगु देश को पांड्यों से छीन लिया। मारवर्मन राजसिंह द्वितीय (९००-९२०) को यद्यपि लंका की सहायता प्राप्त हुई फिर भी उसे चोल नरेश परांतक के हाथों पराजित होना पड़ा। पहले उसने लंका और फिर केरल में शरण ली।
===चोलों के आधीन (१०वीं से १३वीं शताब्दी)===
इस प्रकार पांड्य राज्य चोलों की अधीनता में आ गया और प्राय: तीन शताब्दियों तक उसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं रही। किंतु पांड्य राजवंश ने कभी भी इस अपमानजनक स्थिति को स्वीकार नहीं किया और निरंतर विद्रोह के द्वारा चोलों को चैन नहीं लेने दिया। वीर पांड्य द्वितीय ने राष्ट्रकुट नरेश कृष्ण द्वितीय के आक्रमण के कारण चोलों की विपन्न स्थिति का लाभ उठाकर अपने को स्वतंत्र कर लिया। वीन पांड्य का राज्य १५-२० वर्षों तक रहा जिसमें उसने नाप तौल के पैमानों को सुधारने का भी प्रयत्न किया। वह चोलवंशीय आदित्य द्वितीय के द्वारा मारा गया। किंतु राजराज प्रथम ने पांड्य नरेश का फिर पराजित किया। पांड्यों की विद्रोहात्मक प्रवृत्ति के कारण राजेंद्र प्रथम ने भी मदुरा पर आक्रमण किया और सुरक्षा की दृष्टि से इस प्रदेश का शासन चोल पांड्य उपाधियुक्त चोल राजकुमारों को ही देने का चलन निकाला। लेकिन प्राचीन पांड्य राजवंश के व्यक्ति फिर भी बच रहे थे। प्राय: ये लंका के साथ मिलकर चोलों का विरोध करते थे। इसी से राजेंद्र प्रथम और कुलोत्तुंग प्रथम के बीच के सभी चोल नरेश पांण्ड्य राजाओं पर अपनी विजय का उल्लेख करते हैं। कुलोत्तुंग प्रथम ने अपने राज्यकाल में पांड्यों के विद्रोह को कुचलकर राज्य का शासन पांड्य राजवंश के ही व्यक्तियों को सौंप दिया। कुलोत्तुंग के बाद पांड्य राज्य पर चोलों का शासन सिद्ध करने के लिए कोई भी अभिलेख प्राप्त नहीं होता। पांड्य चोलों के अधीन थे लेकिन धीरे धीरे उनके प्रभाव से मुक्त होते गए।
११६६ ई. में पराक्रम पांड्य और कुलशेखर के बीच उत्तराधिकार के लिए कलह हुआ। लंका के नरेश पराक्रमबाहु ने पराक्रम की सहायता के लिए सेना भेजी। कुलशेखर की सहायता चोलों ने की। अंत में लंका की सेना पराजित हुई। पराक्रमबाहु ने इस संघर्ष के फलस्वरूप लंका में अपनी स्थिति को विपन्न पाकर कुलशेखर के सिंहासनाधिकार को स्वीकार कर चोलों के विरुद्ध उसके साथ एक गुप्त संधि की। चोलों ने पांड्य सिंहासन के लिए वीर पांड्य का समर्थन किया और कुलशेखर को भगा दिया। इस बार पराक्रमबाहु ने वीर पांड्य को चोलों के विरुद्ध अपने पक्ष में कर लिया। किंतु चोल फिर विजयी हुए और उन्होंने विक्रम पांड्य को मदुरा के सिंहासन पर बैठाया। वीर पांड्य ने भी चोलों की अधीनता स्वीकार कर ली।
===पुनरुत्थान तथा चरमोत्कर्ष (१३वीं - १४वीं शताब्दी)===
चोलों की क्षीण होती हुई शक्ति का लाभ उठाकर पांड्यों ने अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। पांड्यों के इस द्वितीय साम्राज्य का प्रारंभ जटावर्मन् कुलशेखर (११९०-१२१३) से होता है। किंतु जटावर्मन् कुलशेखर की स्वतंत्र होने की लालसा को चोल नरेश कुलोत्तुंग तृतीय ने दबा दिया था। जटावर्मन् के अनुज मारवर्मन् सुंदर पांड्य (१२१६-१२३८) ने सच्चे रूप में द्वितीय पांड्य साम्राज्य का आरंभ किया। उसने चोल राज्य पर आक्रमण करके चिंदबरम् तक की विजय की थी। किंतु होयसलों के हस्तक्षेप करने के कारण उसने चोलों को अधीनता स्वीकार करने पर ही छोड़ दिया। दूसरी बार उसने चोल नरेश राजराज तृतीय को पराजित किया किंतु इस बार भी होयसलों के हस्तक्षेप करने पर वह चोल साम्राज्य पर स्थायी अधिकार न कर सका। फिर भी उसे राज्य की सीमाएँ विस्तृत थीं। मारवर्मन् सुंदर पांड्य द्वितीय (१२४८-१२५१) चोल नरेश राजेंद्र तृतीय के हाथों पराजित हुआ था किंतु होयसलों ने पांड्यों का पक्ष लेकर चोलों को मनमानी नहीं करने दिया। जटावर्मन् सुंदर पांड्य प्रथम (१२५१-६८) इस वंश का निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ सम्राट् था। उसने अपने समकालीन चेर, होयसल, चोल, तेलुगु, काकतीय और बाण सभी का अपने पराक्रम से अभिभूत किया था। उसके साम्राज्य का विस्तार लंका से नेल्लोर तक हो गया था। अपनी विजयों से प्राप्त वैभव का उपयोग उसने चिदंबरम् और श्रीरंगम् के मंदिरों को आकर्षक और संपन्न बनाने में किया। उसकी वैभवप्रदर्शन की प्रवृत्ति उसके अनेक अभिलेखों और तुलाभारों में परिलक्षित होती है।
जटावर्मन् ने पांड्य राजकुमारों को उपराजा के रूप में शासन से संबंधित किया था। इस पद्धति का उल्लेख विदेशी लेखकों ने भी किया है। जटावर्मन् सुंदर पांड्य प्रथम के साथ जटावर्मन् वीर पांड्य प्रमुख उपराजा था। मारवर्मन् कुलशेखर (१२६८-१३१०) ने जटावर्मन् सुंदर पांड्य के अंतिम वर्षों में ही उपराजा के रूप में शासन आंरभ कर दिया था। स्वयं उसके साथ अनेक उपराजे संबद्ध थे जिनमें प्रमुख हैं जटावर्मन् सुंदर पांड्य द्वितीय और तृतीय, जटावर्मन् वीर पांड्य द्वितीय और मारवर्मन् विक्रम पांड्य। मारवर्मन् कुलशेखर इस वंश का अंतिम महान् सम्राट् था। उसने चोल, होयसल और लंका के नरेशों तथा अन्य दूसरे शासकों को फिर से पराजित किया था। [[मार्को पोलो]] और मुस्लिम इतिहासकार वस्साफ ने उसकी शक्ति और वैभव का वर्णन किया है।
===मलिक काफूर का आक्रमण=== मारवर्मन की वृद्धावस्था में उसके दो पुत्रों जटावर्मन् सुंदर पांड्य और जटावर्मन् वीर पांड्य में सिंहासन के लिए संघर्ष हुआ जिसमें कुलशेखर की मृत्यु हुई। पांड्यों की क्षीण शक्ति का लाभ उठाकर अलाउद्दीन खल्जी के सेनापति मलिक काफूर ने मदुरा पर आक्रमण कर उसे लूटा। किंतु पांड्य राजाओं की स्थिति फिर भी बनी रही। चेर नरेश रविवर्मन् कुलशेखर और काकतीयों ने पांड्य राज्य के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया। अनेक सांमतों ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। पांड्य राज्य पर दूसरा मुस्लिम आक्रमण १३२९ ई. में खुमरू खाँ के अधीन हुआ और फलस्वरूप मदुरा में दिल्ली के सुल्तान की ओर से प्रांतपाल की नियुक्ति हुई। फिर भी पांड्यों का अधिकार मदुरा, रामनाड, तंजोर, दक्षिणी आकटि और पुदुक्कोट्टइ पर बना रहा। किंतु कंपन के द्वारा मदुरा पर [[विजयनगर साम्राज्य]] का अधिकार स्थापित होने के बाद पांड्यों का प्रभुत्व केवल तिन्नेवेल्ली तक ही सीमित रह गया। अब पांड्यों का इतिहास क्रमिक पतन की कथा मात्र रह जाता है। १६वीं शताब्दी के आरंभ में इस राजवंश का पूर्ण रूप से लोप हो जाता है। [[श्रेणी:भारत का इतिहास]]
|