"जीवनचरित": अवतरणों में अंतर

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जीवनी
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<div style="text-align: justify;"> <big><big>श्रीहित राधावल्लभ सम्प्रदाय प्रवर्तक अनन्तश्रीविभूषित रसिकाचार्य शिरोमणि गोस्वामी श्रीहित हरिवंशचन्द्र महाप्रभु की नाद परम्परा के जाज्वल्यमान नक्षत्र, वृन्दावन रजोपसेवी, इष्ट-गो-सन्तसेवी, साम्प्रदायिक सौहार्द की प्रतिमूर्ति रसिक अनन्य श्रीहित कृपामूर्ति परम भागवत स्वामी श्री हितदास जी महाराज का मंगलमय प्रादुर्भाव मध्य प्रान्तर्गत जिला—मण्डला मेकलसुता नर्मदा तटस्थ परमपावन नारा ग्राम में भारव्दाज गोत्रीय सरयूपारीण ब्राह्मण कुल में विक्रम सं॰ 1972 कार्तिक कृष्णा व्दितीया सन् 1915 में हुआ ! बाल्यकाल से ही आप दिव्य गुणगणों से सम्पन्न विलक्षण संस्कारी बालक रहे ! आपने अत्यल्प कल में ही हिन्दी वाड्मय पर पूर्ण अधिकार कर अपनी अद्भुत प्रतिभा से सबको चमत्कृत कर दिया ! आपकी संस्कृत शिक्षा त्रिपुरी के समीप धवलशैल शिखरों के मध्य नर्मदा के प्रमुख जल—प्रपात भेड़ा—घाट पर सम्पन्न हुई ! सन् 1936 से 1942 तक पिण्डरई में आपने अध्यापन कार्य किया परन्तु पूर्वजन्म के संस्कार आपको बारम्बार श्रीधाम वृन्दावन की ओर आकृष्ट करते रहे ! इसी बीच सहसा एक दिन श्रीहित महाप्रभु ने आपको स्वप्न में निज मंत्र प्रदान कर श्रीप्रिय-प्रियतम के दर्शन कराये एवं आपके मस्तक पर आपना श्रीचरण कमल पधराया ! इस आकस्मिक अनुकम्पा से अभिभूत हो आप सन् 1942 में अध्यापन कार्य से त्यागपत्र देकर सर्वदा के लिये आपने निज गृह, निज परिकर में आ मिले ! श्रीधाम आगमन के पश्चात् लौकिक गुरु—शिष्य परम्परा के निर्वाह हेतु आपने श्रीहित महाप्रभु वंशावतंश गोस्वामी श्रीहित वृन्दावनवल्लभ जी महाराज से शरणागत एवं कुछ ही समय पश्चात् स्वनामधन्य गोस्वामी श्रीहित जुगलवल्लभ जी महाराज से निजमंत्र प्राप्त किया ! विरक्त वेष आपने संत शिरोमणि बाबा श्रीहित परमानन्द दास जी महाराज से ग्रहण किया ! सन् 1945—48 पर्यन्त आप श्रीहित अचलविहार की बारह व्दारी में मधूकरी वृत्ति व्दारा जीवन यापन करते हुए निवास किया ! सन् 1948—52 तक आप श्रीहित महाप्रभु की प्राकट्य स्थली श्रीबाद धाम में सेवारत रहे एवं मंदिर का जीर्णोध्दार किया ! पश्चात् सन् 1955 में गांधी—मार्ग स्थित श्रीहिताश्रम सत्संग भूमि की संस्थापना कर सम्प्रदाय को श्रीहितोपासना का एक सुदृढ़ केंद्र प्राप्त कराया ! आपने रसोपासना से संबन्धित अनेक संस्कृत एवं ब्रजभाषा के ग्रन्थों की रसपेशल एवं भावपूर्ण टिकाओं का प्रणयन—प्रकाशन कर रसिकों एवं जिज्ञासुओं का अकथनीय उपकार किया ! आपकी स्वरचित कृतियाँ “भाव-मञ्जरी” एवं “हृदयोद्गार” साहित्य जगत् में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं ! आप अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति, मधुर-मोहिनी प्रवचन शैली एवं वाग्विदग्धता से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे ! श्रीमद् राधारससुधानिधि, श्रीराधा उप सुधानिधि, श्रीबयालीस लीला एवं श्रीभक्तमाल जी के तो आप ह्रदयस्पर्शी, सरस और मार्मिक प्रवक्ता रहे ! संत एवं वैष्णव समाज ने अपना गौरव मानते हुए आपको चतुःसम्प्रदाय विरक्त वैष्णव परिषद्, वृन्दावन का अध्यक्ष पद प्रदान किया ! सत्य एवं निष्ठा पूर्वक धर्म एवं संस्कृति के रक्षार्थ आप जीवन के अन्तिम समय तक प्रयासरत रहे ! भक्ति जगतत में आपका सुयश दैदीप्यमान सूर्य की भाँति आलोकित होकर अपनी कीर्ति पताका फहरा रहा है !
प्रसिद्ध इतिहासज्ञ और जीवनी-लेखक टामस कारलाइल ने अत्यंत सीधी सादी और संक्षिप्त परिभाषा में इसे "एक व्यक्ति का जीवन" कहा है। इस तरह किसी व्यक्ति के जीवन वृत्तांतों को सचेत और कलात्मक ढंग से लिख डालना '''जीवनचरित''' कहा जा सकता है। यद्यपि इतिहास कुछ हद तक, कुछ लोगों की राय में, महापुरुषों का जीवनवृत्त है तथापि जीवनचरित उससे एक अर्थ में भिन्न हो जाता है। जीवनचरित में किसी एक व्यक्ति के यथार्थ जीवन के इतिहास का आलेखन होता है, अनेक व्यक्तियों के जीवन का नहीं। फिर भी जीवनचरित का लेखक इतिहासकार और कलाकार के कर्त्तव्य के कुछ समीप आए बिना नहीं रह सकता। जीवनचरितकार एक ओर तो व्यक्ति के जीवन की घटनाओं की यथार्थता इतिहासकार की भाँति स्थापित करता है; दूसरी ओर वह साहित्यकार की प्रतिभा और रागात्मकता का तथ्यनिरूपण में उपयोग करता है। उसकी यह स्थिति संभवत: उसे उपन्यासकार के निकट भी ला देती है।
आपका प्रकृति प्रेम जीवन के संध्याकाल में पुनः आपको प्रियालाल के नित्य विहार—स्थल श्रीहित अचलविहार में ले आया ! जहाँ 10 सितम्बर 2003 तदनुसार भाद्रपद पुर्णिमा सम्वत् 2060 साँझीलीला के प्रथम दिवस ही अपने प्राण—पुष्प को लिये यह हितदासी श्रीजी की नित्य सेवा सन्निधि में सदा—सर्वदा के लिये प्रस्तुत हो गई !</big></div>
 
जीवनचरित की सीमा का यदि विस्तार किया जाय तो उसके अंतर्गत [[आत्मकथा]] भी आ जायगी। यद्यपि दोनों के लेखक पारस्परिक रुचि और संबद्ध विषय की भिन्नता के कारण घटनाओं के यथार्थ आलेखन में सत्य का निर्वाह समान रूप से नहीं कर पाते। आत्मकथा के लेखक में सतर्कता के बावजूद वह आलोचनात्मक तर्कना चरित्र विश्लेषण और स्पष्टचारिता नहीं आ पाती जो जीवनचरित के लेखक विशिष्टता होती है। इस भिन्नता के लिये किसी को दोषी नहीं माना जा सकता। ऐसा होना पूर्णत: स्वाभाविक है।
 
==इतिहास==
जीवनचरित के प्राचीनतम रूपों के उदाहरण किसी भी देश के धार्मिक, पौराणिक आख्यानों और दंतकथाओं में मिल सकते हैं जिनमें मानवीय चरित्रों, उनके मनोविकारों और मनोभावों का रूपायन हुआ हो। अधिकांशत: दैवी और मानवीय चरित्रों में जीवनचरित्र के कुछेक लक्षण मिल जाते हैं जिनका निर्माण उस काल से ही होता चला आ रहा है जब लेखनकला का विकास भी नहीं हुआ था और इस प्रयोजन के निमित्त मिट्टी और श्रीपत्रों का प्रयोग होता था।
 
[[मिस्र]] और [[पश्चिमी एशिया]] के देशों में पत्थरों पर, राजाओं की कब्र की रेलिंगों, स्तंभों और दीवारों की चिकनी सतह पर उनके जीवन की विजयादि से संबंधित बातें उत्कीर्णं करने की परंपरा बहुत पहले ही चल पड़ी थी। उनके जीवनकाल में भी प्रशस्तियों के रूप में इस तरह की उत्कीर्णन होते रहते थे। इस तरह की सामग्री को जीवन-चरित का प्राचीन और प्रारंभिक रूप माना जा सकता है। ऐसे जीवनवृत्तांत इतिहास की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण सिद्ध हुए हैं तथापि कभी कभी इतिहासकार को उनका उपयोग बड़ी सतर्कता से करना पड़ता है।
 
<span style="color: #330099">==<big><B><big><big>''महाराजश्री का जीवन परिचय''</big></big></B></big>==</span>
[[चीन]] में ई पू प्रथम शताब्दी के स्सु-मा चिएन ने अपने ऐतिहासिक संस्करणें के एक भाग में समकालीन विशिष्ट व्यक्तियों का जीवनचरित लिखा। बाद में चीनी सम्राट् चिएन के तत्वावधान में चीन की वंशावलियों का इतिहास 1747 में 214 खंडों में संगृहीत और प्रकाशित हुआ जिसमें चीन के पाँच काल्पनिक सम्राटों से लेकर स्सु-मा-चिएन के काल तक के सम्राटों का इतिवृत्तात्मक वर्णन हुआ। ज्योतिषियों, राजनीतिज्ञों, राजसभासदों, हत्यारों तक के जीवन भी उक्त ग्रंथों में लिखे गए। प्राय: उसी समय लिउह्सियांग ने विशिष्ट महिलाओं की जीवनी लिखी। उससे प्रकट है कि ईसा के पूर्व भी चीनी साहित्य में जीवनचरित का महत्वपूर्ण स्थान रहा है।
 
<div style="text-align: justify;"><big><big>ऋषियों जैसी धवल केशराशि और श्मश्रु, दीप्त मुखमंडल, प्रशस्त ललाट पर श्रीराधावल्लभीय तिलक, नयनों में आत्मीयता—भरा आमंत्रण और अधरों पर प्रफुल्ल स्मित, एक भरी—पूरी देह—यष्टि और पीतोज्जवल परिधान । लगता था; जैसे कोमल प्रेम—सिद्धान्त की छवि के सम्मुख पहुँच गये हैं और उनकी उस दिव्य भाव—मूर्ति से स्वागत में दृष्टि दोनों हाथ फैलाये किसी को भी अपने आकर्षण में समेट लेती और उनके मुख से निकलता—आइये, कैसे हैं? बहुत दिनों बाद...और अरे भाई देखो, गोस्वामी जी आये हैं... मैं, जैसे उनके सामने जाकर चिर—परिचित अपनेपन में अपने को खो देता और मुझे लगता कि शायद, वे मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे । कितने बड़े व्यक्ति थे वे, और कितनी आत्मीयता? बीच की सारी दूरियाँ मिट जातीं और मेरे मुख से उनके प्रति प्रथम शब्द प्रस्फुटित होता—“महाराज जी! प्रणाम स्वीकार करें ।” महाराजश्री कहते—“अरे आप, श्रीबिहरी जी महाराज के अंग—संगी हैं, सेवाधिकारी हैं । मैं तो आपको स्मरण ही कर रहा था ।” हर बार महाराजश्री से भेंट इन्हीं शब्दों से आरंभ होती । मुझे उनके गरिमापूर्ण व्यक्तित्व की, गहराई से अनुभूति होती—वे थे एक दिव्य विभूति, परम महिमामय “रसिक-पद-रेणु” स्वामी श्री हितदास जी महाराज, जिन्हें हजारों भक्त नित्य प्रति दण्डवत् करने आते, उनकी वाणी का श्रवण कार धन्य होते । श्रीराधावल्लभ सम्प्रदाय के वे एक महान विरक्त सन्त थे । परन्तु सभी सम्प्रदाय के साधुओं ने, अपना गौरव मानते हुए, उन्हें वृन्दावन के चतु:सम्प्रदायों का अध्यक्ष बनाया था । बड़े-बड़े विवादों को संवादों और स्नेह में बदल देने की उनमें अचूक क्षमता थी, उनके हास में अमृत था । निष्कलुषता ऐसी कि स्वसम्प्रदाय में समर्पित निष्ठा रखते हुए भी सभी संप्रदायों के प्रति समान रूप से पूज्यभाव, सभी के भक्ति—सिद्धान्तों डीके गम्भीर अध्ययन, शिष्टाचार और उदारता के मूर्तरूप, सभी की मंगलकामना के आकांक्षी, ऐसे महात्मा के पास कोई अपनी समस्या लेकर आ जाता तो विवाद वहाँ रहता भी क्यों कर?</big></big>
[[यूनान|यूनानी]] जीवनीकारों में प्लूतार्क विशेष महत्व का है। उसकी कृति में यूनान, रोम और फारस के 46 विशिष्ट और यशस्वी व्यक्तियों के जीवन वृत्तांतों का वर्णन हुआ है। प्लूतार्क से भी चार शताब्दियों पूर्व एक महत्वपूर्ण जीवनी "अनाबासिस सुकरात" के शिष्य जनोफोन ने लिखी। बाद के प्रसिद्ध यूनानी जीवनीकारों में फ्लावियस फिलोस्त्रातस और दियोजिकी लेइर्तिंयस के नाम उल्लेखनीय हैं।
<big><big>महाराजश्री कृपा कर मेरे आवास पर पधारे थे क्योंकि वे चाहते थे कि वृन्दावन में जन्मे सुप्रसिध्द साहित्यकार डॉ विजयेन्द्र स्नातक के 75वें वर्ष की संपूर्ति पर उनका गौरवमय अभिनन्दन श्रीधाम वृन्दावन की ओर से हिताश्रम में किया जाए । स्वनामधन्य डॉ स्नातक जी दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर तो थे ही, उन्होंने उच्चकोटि का शोध—प्रबन्ध श्रीराधावल्लभ सम्प्रदाय के विषय में ही लिखा था और उस समय स्वामी श्री हितदास जी ने अनेक ग्रन्थ और सिद्धान्तों के स्पष्टीकरण के साथ उनके लेखन में सहायता की थी । स्नातक जी स्वयं भी बाबा श्रीहितदास जी महाराज का बहुत आदर करते थे और मैं स्वयं भी पर्याप्त समय दिल्ली विश्वविद्यालय में रह चुका था अतः मेरी भी कामना थी कि यह आयोजन अत्यन्त शालीन रूप में सम्पन्न किया जाये । इसी संदर्भ में महाराजश्री के आश्रम में कई बार गया और कहना न होगा कि वह आयोजन एक स्मृति बनकर रह गया । इस माध्यम से मैं बाबा श्रीहितदास जी के और अधिक निकट आ गया और उनके साथ बहुत कुछ मेरी अभिन्नता हो गई, उनके सद्व्यवहार और उच्चकोटि के प्रेम का मैं सत्पात्र बन गया। उनका विशाल सेवाभावी आश्रम उसी में उनके उपास्य ठाकुर ललितलाड़लीलाल जी का श्रीविग्रह और उनकी सेवा एवं समाज कि व्यवस्था को मैं निकट से देखता था । उनके संपर्क में आने पर मेरे मन में जिज्ञासा होती कि वृन्दावन धाम में इतनी अपूर्वनिष्ठा और सभी धर्म—संप्रदायों का ऐसा तलस्पर्शी ज्ञान और उनका अनुभव उनमें कैसे विकसित हुआ? उनसे अनेक बार इस विषय में चर्चा भी हुई पर उसका अधिक विस्तार न हो पाया ।
आज जब मैं उनके विगत जीवन में झांकता हूँ तो मुझे उनका जीवन साधना का एक सूचिन्तित प्रवाह जैसा लगता है ।
 
लातीनी साहित्य में पहली सदी ईसा पूर्व का जीवनी-लेखक कार्नेलियस नेपोस विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसने कातो और उसके मित्र सिसरो के चरित लिखे। कार्नेलियस के अन्य जीवनचरित विशिष्ट सेनानायकों से संबंधित हैं।
 
अंग्रेजी साहित्य में 17वीं सदी के पूर्व का जीवनी साहित्य एक तरह से बहुत संक्षिप्त है। एलिजाबेथ के समकालीन विशिष्ट व्यक्तियों की, यहाँ तक कि शेक्सपीयर आदि की भी, जीवनी के अभाव में साहित्यकारों और इतिहासकारों को शु डिग्री में अनेक अड़चनों का सामना करना पड़ा था। बाद में उस दिशा में अनेक प्रयत्न हुए। 18वीं सदी तक आते आते इसका काफी विकसित रूप जेम्स बासवेल द्वारा लिखित सेम्युअल जान्सन की जीवनी में देखने को मिलता है। 1791 ईदृ में इस जीवनी का प्रकाशन अंग्रेजी जीवनी-साहित्य में एक महत्वपूर्ण घटना है। यह ग्रंथ जीवनी-लेखकों के लिये एक निश्चित शैली और स्वरूप का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करता है।
 
<span style="color: #330099">==<big><big><B>''आरम्भिक जीवन''</B></big></big>==</span>
इसी तरह अमरीका, फ्रांस, स्पेन तथा यूरोपीय महाद्वीप के अन्य देशों के साहित्य में जीवनी-लेखक की जीवित परंपरा देखी जा सकती है। यह साहित्य जीवनचरित के रूप में और आत्मकथा के रूप में रचा गया है।
 
<div style="text-align: justify;"><big><big>परम श्रध्देय स्वामी श्रीहितदास जी महाराज का सम्पूर्ण जीवन शीशे के समान समुज्ज्वल और पारदर्शी रहा है। उनकी सम्पूर्ण जीवन--यात्रा मानों एक पूर्वनियोजित साधना--यात्रा है, जिसमें उनके पूर्व जन्मों के श्रेष्ठ संस्कार और साधनाओं की सिध्दि भी प्रतिबिम्बित होती है । स्वयं के जीवन को प्रभु--अर्पित मानकर, उसके लिए प्रभु की प्रशंसा करते हुए अपने ग्रन्थ भाव--मंजरी के "निज--परिचय" शीर्षक कविता में तथा कहीं-कहीं अन्यत्र उन्होंने अपना परिचय प्रस्तुत किया है । यही नहीं परम श्रध्देय संत स्वामी श्रीअखण्डानन्द जी सरस्वती के विषय में "सबके प्रिय, सबके हितकारी" शीर्षक छोटी सी पुस्तिका में भी अपने गुरुतुल्य श्रीस्वामी जी महाराज के सान्निध्य में व्यतीत समय की घटनाओं एवं अनुभवों का भी उल्लेख अनेक दृष्टियों से उनके अपने जीवन को भी प्रकाशित करता है, अतः उनके जीवन--विकास के अनेक प्रामाणिक सूत्र हमें सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं ।
===भारत में जीवनचरित===
मध्यप्रदेश में पुनीत पयस्विनी रेवा के तट पर मंडला नामक प्रसिध्द नगर के निकट ही "नारा" नामक ग्राम, जिसके प्राकृतिक परिवेश के अद्भुत रूप नयनाभिराम हैं, वही ग्राम पूज्य स्वामी श्रीहितदास जी महाराज की जन्मभूमि है--</big></big></div>
भारत में ई पू तीसरी शताब्दी के मौर्य सम्राट् अशोक द्वारा शिलाओं पर उत्कीर्ण अभिलेख आदि भी आत्मकथा के ही रूप हैं। यह परंपरा अशोक के बाद अधिकांश भारतीय नरेशों में चल पड़ी थी। जीवन की अथवा प्रशासन की किसी विशिष्ट घटना को जीवित रखने के लिये वे उसे पत्थर के स्तंभों, मंदिरों और उनकी दीवारों, ताम्रपत्रों आदि पर अंकित करवा देते थे। कुषाण और विशेषत: गुप्त सम्राटों का काल इस तरह के संदर्भों से भरा पड़ा है। इसके साथ ही कभी कभी जीवनी लेखन का स्पष्ट रूप भी दिखाई पड़ जाता है। बाण द्वारा रचित हर्षचरित एक ऐसा ही उदारहण है।
 
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बाद के मुगल बादशाहों में तो आत्मकथा लिखना चाव और रुचि की बात ही हो गई थी। बाबर से लेकर जहाँगीर तक सभी ने आत्मकथाएँ लिखी हैं जो क्रमश: इस प्रकार है -- बाबरनामा, हुमायूनामा, अकबरनामा, जहाँगीरनामा।
<div style="text-align: center;"><B><big><big>रेवा--तट मंडला है नगर, निकट सु नारा ग्राम ।
प्रकृति छटा सों अति भरित, जन्म भूमि अभिराम ।।</B></big></big></div></span>
 
<big><big>उनका जन्म कार्तिक कृष्णा व्दितीया संवत् 1972 विक्रमी सन् 1915 ई में हुआ--</big></big>
भारतीय सम्राटों, मुगल बादशाहों तथा राजपूत राजा और रजवाड़ों में आश्रय पानेवाले कवियों ने भी अपने आश्रयदाताओं के जीवनवृत्तातों का विस्तृत वर्णन अपने काव्य ग्रंथों में किया है। [[काव्य]] के नायक के रूप में किसी नरेश, अथवा आश्रयदाता का चयन करने के पश्चात् उनकी जीवनी का रूपायन कविता की पंक्तियों में कर डालना एक सामान्य बात हो गई थी। इस तरह के काव्य को हिन्दी साहित्य के चरितकाव्य की संज्ञा दी गई है। ऐसे काव्यों की रचना [[हिन्दी साहित्य]] के [[वीरगाथा काल]] और विशेषत: [[रीतिकाल]] के बहुलता से हुई है। वीरगाथा काल के रासों काव्यों को इसी श्रेणी में माना जा सकता है। रीतिकाल में इस तरह के चरित काव्यों के अनेक नाम गिनाए जा सकते हैं जिनकी रचना समय समय पर कवियोंद्वारा होती रही है।
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<div style="text-align: center;"><big><big><B>संवत् उन्नीसैं बहत्तरा, कार्तिक व्दितीया उजास ।
प्रातकाल द्विज भवन में, जनम्यौ यह हितदास । ।</B></big></big></div></span>
 
<big><big>वस्तुतः यह शरद्पूर्णिमा के बाद की व्दितीया थी, जो कृष्णपक्ष में भी चाँदनी से भरी थी । इनकी माता परम गंभीर, धैर्यवती थीं, नाम था कमला । वे करुणामयी थीं । उन्होंने अपने पुत्र के लिए अनेक कष्ट सहे । वे राजयक्ष्मा रोग से पीड़ित थीं । अपने प्रिय लाड़ले को नौ माह तक उन्होंने दुलार से पाला--पोसा परन्तु वे ममतामयी माँ चल बसी । स्वयं को पापी मानते हुए स्वामी श्रीहितदास जी कहते हैं--</big></big>
[[नाभा दास]] का "[[भक्तमाल]]" तथा उसपर प्रियादास की टीका भक्तों के जीवनचरित के संग्रह ग्रंथ हैं। कई अन्य भक्तकवियों ने भी "भक्तमाल" नाम से जीवनचरित संग्रह ग्रंथों की रचना की। पुष्टिमार्गीय वैष्णव संतों और कवियों के ब्रजभाषा गद्य में अंकित जीवनचरित के दो संग्रह "[[चौरासी वैष्णवन की वार्ता]]" और "[[दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता]]" अपने ढंग से बेजोड़ ग्रंथ हैं।
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<div style="text-align: center;"><big><big><B>हौं पापी ऐसौ भयौ, जनमत खाई माय ।
लोग कुटुंब याते अधिक, मो पे रहें अनखाय ।।</B></big></big></div></span>
<big><big>जीवन की यह प्रथम बड़ी घटना थी, जिसका कारण स्वामी जी ने स्वयं को माना । स्वामी जी कहा करते थे--"यद्यपि मैं अबोध था, फिर भी मुझे उस समय के क्षोभपूर्ण वातावरण की स्मृति जीवन भर बनी रही ।" माता के निधन के पश्चात इनका पालन--पोषण इनकी दादी जी ने किया ।
स्वामी श्रीहितदास जी महाराज के पिता श्रीसुखदेव जी (श्रीसुखदेव प्रसाद पाठक) थे, जो पूर्वाञ्चलीय सरयूपारीण भारव्दाज गोत्रीय ब्राह्मण थे । स्वामी हितदास जी का बाल्यकाल का नाम विष्णुप्रसाद पाठक था । माता--पिता दोनों के इष्टदेव शंकर जी थे, अतः स्वामी हितदास जी भी बाल्यावस्था में उसी पद्धति से, जल और वेलपत्र से प्रतिदिन शंकर जी को स्नान कराते थे । उस प्रदेश में शिव की पुजा प्रधान थी । लोग--लोग शिव--शिव रटते थे । परन्तु उन लोगों के हृदय में अशिव भावों का भण्डार था, कर्म धर्म में वे मनमुखी थे और महान दंभी थे, रामनाम वहाँ सुनाई नहीं देता था, कृष्ण की भक्ति लोग जानते नहीं थे । शिव--शक्ति की पूजा करते हुए मांस--भक्षण करते थे, धन पर ही जिनकी दृष्टि रहती थी--ऐसा था विषम काल और विषम मनुज--समाज । वैष्णवों के करुणाभाव का विरोधी वातावरण और उसमें हितदास जी के जीवन का घटनाक्रम से वैष्णवीय चित्त का विकास? क्या यह संयोग नहीं था कि शिव को सर्वस्व मानने वाले ग्राम और परिवार में उनका नाम विष्णुप्रसाद रखा गया था?
जब स्वामी जी दस वर्ष के हुए, उनसे शिव की पूजा भी बिसर गयी क्योंकि खेलकूद में उनका ध्यान अधिक था, साथ ही उन्होंने विद्याध्ययन भी आरम्भ कर दिया था ।
स्वामी जी की शिक्षा--दीक्षा त्रिपुरी के निकट नर्मदा नदी के धवल पर्वत--प्रपात (प्रसिध्द नाम भेड़ाघाट) जैसे रमणीय स्थान पर श्रीबद्रीविशाल शास्त्री जी, जो इनके पिता जी के भी गुरुदेव थे, उनके चरणों में हुए । संस्कृत--साहित्य में सहज प्रवीणता और हिन्दी वाड्मय पर असाधारण अधिकार उन्हें इतना शीघ्र प्राप्त हो गया कि उसे चमत्कार कहा जा सकता है । अपने संस्कारों में कविता मानो उन्हें जन्मजात रूप से ही प्राप्त हुई ।
विद्याध्ययन के साथ ही अध्यात्म में उनकी गहरी रुचि थी । अपने एक मित्र के साथ वे एक बार उसके गाँव गये । वहाँ एक पंडित जी के यहाँ ठाकुर--सेवा होती थी । उनके यहाँ अनेक श्रीविग्रह थे परन्तु उनमें से श्रीराधाकृष्ण की अत्यन्त आकर्षक एक युगल प्रतिमा को देख वे अभिभूत हो गये और पंडित जी से उन्होंने विनयपूर्वक प्रार्थना की कि इन ललितलाड़िली लाल के श्रीविग्रह को वे पूजा के लिए उन्हें दे दें । पंडित जी नलए सोचा--बालक इनकी पूजा कैसे करेगा? परन्तु स्वामी श्रीहितदास जी को तो वे अपने प्राणों के साथी लग रहे थे । प्रतिदिन घंटों वहाँ जाकर वे इन्हें निहारते रहते, अन्त में उनकी श्रद्धा से द्रवित होकर पंडित जी ने वह युगल छवि स्वामी जी को दे दी । स्वामी जी ने कहा कृपया इनकी न्यौछावर बतायें, तो पंडित जी ने उत्तर दिया--"प्राणों कि न्यौछावर प्राण ही होते हैं । सदा इनकी सेवा करना, साथ रखना ।" आज भी वही दिव्य श्रीविग्रह स्वामी जी के निज आराध्य हैं और हिताश्रम के भव्य मंदिर में विराजते हैं ।
विद्याकाल के उनके एक आभिन्न मित्र श्रीनारायणराव पेशवा थे, जिनके हृदय में श्रीहरि का अमल स्नेह विराजता था । मानों शांत और श्र्ंगार युगल रस के वे मूर्तिमान् स्वरूप थे । मितभाषी, गम्भीर, संयम और शील से युक्त उनका स्वभाव था । ऐसे ही एक अन्य मित्र श्रीकाशीराम थे, जो बड़े भावुक, तीव्र बुद्धि, सुहृद और रासधाम के प्रेमी थे । स्वामी हितदास जी ने लिखा है--"जब तक इनसे मेरा परिचय नहीं था तब तक मैं भी विषयीजनों का संगी रहा । सांसारिक वेशभूषा में सजा, शास्त्रों कि निंदा करने वाला अपने हठ को सर्वोपरि मानने वाला, हरिनाम में रुचि न रखने वाला था ।" अवश्य ही उक्त दोनों का प्रभाव स्वामी जी पर पड़ा । धीरे-धीरे मन बदलने लगा । साधु--संतों की ओर रुचि बढ़ी । श्रीहरि की भक्ति के मार्ग में वे आगे बढ़े और बीस वर्ष की आयु में वे गोपाल जी का भजन करने लगे ।
जगत् उनका विरोधी भले हो परन्तु उनके पिता उन पर कृपा रखते थे । उधर उनके बड़े भाई ने चटपट स्वामी जी का विवाह करने की ठान ली परन्तु छल से, बल से किये गये उनके उपाय व्यर्थ हो गये--
अग्रज उद्यम ब्याह कौ, रच्यौ अनेक उपाय ।
छल बल करके थकि रहे, लीन्हौं श्याम बचाय ।।
घर में रहते हुए एक दिन "स्वप्न में" श्रीहरिवंशचन्द्र जी महाराज ने उन्हें निज मंत्र दिया और ललना-लाल के दर्शन कराये । उन्हें निज मंदिर का दर्शन भी कराया । उनके समक्ष दिव्य भोग रखा था । प्रसाद होने पर केलि के लिए श्रीहित जी के लिए लाड़िले ठाकुर ने थोड़ा सा भात बिखेर दिया । उस भात के प्रति महाराजश्री के मन में कुछ अवज्ञा का भाव आया तो श्रीहित जी ने कहा--"मेरे मार्ग में विधि-निषेध नहीं है ।" उन्होंने उस बसंत में वृन्दावन का रस उनके मन में उदित किया और स्वामी जी के सिर पर अपना वरदहस्त रखा । निद्रा टूटने पर उनका मन वृन्दावन जाने का हो गया ।
बाल्यकाल से ही वृन्दावन का स्वप्न देखने वाले महाराजश्री ने एकबार भक्तों को बताया--"बाल्यकाल में ही जब मैं अपने बालसखाओं के साथ खेलता तो अचानक समाधिस्थ हो जाता । मुझे अजीब सा अनुभव होता, अपने आप में विचार करता--आखिर मैं हूँ कौन? मैं तो यहाँ का निवासी नहीं हूँ । इन लोगों के बीच मैं क्यों आ गया हूँ--और, मैं गुमसुम हो जाता ।" जब परिवर्तन हुआ तो वे निजधाम वृन्दावन के हो चुके थे ।
स्वामी श्रीहितदास जी सन् 1936 में पहली बार वृन्दावन आये । उनके साथ प्रथम बार आने वाले उनके दो सहयोगी श्रध्देय बाबा श्रीहित बंसीदास जी महाराज एवं एक श्रीत्रिपाठी जी थे । श्रीत्रिपाठी जी तो बाद में गृहस्थाश्रम में लौट गये किन्तु बाबा बंसीदास जी ने वृन्दावन में एकान्त वास कर वाणियों का संग्रह स्वयं अपने हाथ से लिखकर किया । ऐकान्तिक भजन--साधना को ही उन्होंने महत्व दिया । वे अपने उपासनागत भावों का स्वयं लेखन भी करते थे । उन अनुभवों को ग्रन्थों के रूप में प्रकाशित करना बड़ा सुखद होगा परन्तु पाण्डुलिपियों के इतस्ततः होने के कारण उनका सम्पादन श्रम साध्य है । अपने अनुभवों की विरासत छोड़ कर 3 दिसम्बर सन् 1983 को वे निकुञ्ज गामी हो गये ।
सन् 1937--38 में "कल्याण" पत्र में श्रीकृष्ण--भक्ति से संबंधित लेखों को महाराजश्री एवं उनके मित्र बड़े चाव से पढ़ते । श्रीशांतनुबिहारी व्दिवेदी जी, जो बाद में स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वती के नाम से प्रसिध्द हुए, उनके एक लेख ने तो उनकी दृष्टि ही बदल दी । यद्यपि स्वामी श्रीहितदास जी मध्यप्रदेश में ही एक विद्यालय में हिन्दी के अध्यापक बन गये थे परन्तु मन भक्ति में ही रमता था । सन् 1936 से ही उनका वृन्दावन आना आरम्भ हो गया था । सन् 1942 में वे अपने अध्यापन--कार्य से त्यागपत्र देकर सदा के लिए वृन्दावन आ गये ।
यद्यपि उन्हें स्वप्न में स्वयं श्रीहिताचार्य से मंत्र प्राप्त हुआ था परन्तु उन्हें उसका कुछ अंश विस्मरण हो गया । इसीलिए वृन्दावन पहुँचकर श्रीहितदास जी ने श्रीहित राधवाल्ल्भीय सम्प्रदाय के श्रध्देय गोस्वामी श्रीवृन्दावनवल्लभ जी से सन् 2001 वि॰ में गुरुपुर्णिमा के दिन शरणागति मंत्र ग्रहण किया और श्रीगोस्वामी युगलवल्लभ जी से सन् 2002 में निज मंत्र लिया । उन्होंने बाबा श्रीपरमानन्ददास जी महाराज से विरक्त वेश प्राप्त किया । उन्होंने श्रीपरमानन्ददास जी महाराज से एक प्रश्न किया--"श्रीराधावल्लभलाल जी का श्रीविग्रह-अष्टप्रकार की शास्त्रोक्त मूर्तियों में किस वस्तु का है? उन्होंने उन्हें फटकारते हुए बताया--"वे तो स्वयं सच्चिदानन्द हैं, ऐसे प्रश्न तो मूर्खता के हैं ।" बाद में उन्हें स्वप्न में श्रीराधावल्लभलाल जी के पुनः दर्शन हुए । उन्हें अनुभव हुआ कि श्रीजी का श्रीविग्रह वास्तव में सच्चिदानन्दघनमय है ।
विरक्त वेश लेकर स्वामी जी सन् 1945 से 1948 तक श्रीहित अचल विहार कि बारहव्दारी में मधुकरी माँग कर भजन करते रहे । सन् 1948 से 1952 तक वे श्रीहित जी महाराज के जन्मस्थान बाद ग्राम में सेवारत रहे । बाद में वृन्दावन--वास करते रहे ।
वृन्दावन--निवास के समय श्रीस्वामी हितदास जी स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वती महाराज के सान्निध्य में भी रहे । उनका वह जीवन बड़ी गंभीर साधना का जीवन था । उनकी सन्निधि में अन्य अनेक वेदान्तनिष्ठ साधक भी रहते थे परन्तु महाराजश्री तो हितधर्मी वैष्णव थे और स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वती भी उन्हें "हित जी" कहकर पुकारते थे । स्वयं स्वामी जी ने लिखा है--"महाराजश्री के समीप सेवा में रहने वाले हम सभी साधक सदा प्रसन्न और संतुष्ट रहते थे । मेंने कभी वैष्णव होकर भी उनके चित्त में मेरे अथवा किसी के प्रति भी साम्प्रदायिक भेदभाव नहीं देखा।"
महाराजश्री ने स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वती जी महाराज के उस सत्संगकाल कि बड़ी प्रशंसा की है क्योंकि वे उन्हें गुरुतुल्य मानते थे और एक विरक्त के चरित्र का क्या स्वरूप होना चाहिए, उसका स्वभाव कैसा हो? इसका अनुभव स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वती जी ने उन्हें कराया ।
स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वती जी ने इनके यह कहने पर कि "महाराजश्री! मुझे तो राधाकृष्ण, गोपी और उनकी श्रृंगार--केलि प्रिय लगती है और इतनी प्रिय लगती है कि उसके सामने अन्य कुछ कम ही अच्छा लगता है ।" तो स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वती जी हँसकर कहने लगे--"देखो, तुमको मैं एक गुप्त बात बताता हूँ--तुम्हारा विगत पाँच जन्मों का संस्कार इस उपासना से जुड़ा हुआ चला आ रहा है ।" इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि महाराजश्री की राधाकृष्ण--निष्ठा जन्म--जन्मांतर की निष्ठा थी और इसीलिए वे बालपन में ही अपने इस जन्म के नये परिवेश में आकार कहते थे--"मैं यहाँ का नहीं हूँ ।"
महाराजश्री के साथ रहकर सादगी के साथ रहना, भिक्षा मांगने में प्राप्त अपमान को सहन करना अर्थात विरक्त की रहनी और सभी के साथ मृदु व्यवहार एवं सभी पक्षो का सिद्धान्त ज्ञान--उन्हें हुआ ।
एक बार स्वामी श्रीहितदास जी को अन्य साधुओ के समान ही उन्होंने भिक्षा मांगने के लिए भेजा । स्वामी श्रीहितदास जी के भिक्षा मांगने के संस्कार ही नहीं थे । वे स्वयं लिखते हैं--"किसी के व्दार पर खड़े होकर रोटी की भीख मांगना मेरे लिए कठिन ही क्या मरण--तुल्य कार्य था । किन्तु "गुरोराज्ञा गरीयसी" हुआ यह कि अन्य साधकों को बड़ी स्वाद--भरी भिक्षा मिली परन्तु जब मेरी झोली खोली गयी तो उसमें कुल साढ़े तीन रोटियाँ और आलू का साग मिला । यह भिक्षा भी तब मिली, जब एक युवक ने उन्हें क्रोधित होकर तीखी गालियाँ भी दीं । परन्तु बाद में उसने कहा--"बाबा! बाहर से ही आवाज़ दिया करो ।" उन्होंने लिखा है--"मेरा सारा अभिमान चूर-चूर हो चुका था । मेरा मन खेद और ग्लानि से भर गया ।" परन्तु उनकी उस भिक्षा को स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वती जी ने अमृत भिक्षा बताया--यह कौतुक महाराजश्री ने इसीलिए किया कि साधक का अहंकार चूर्ण हो जाए, मानापमान में समता की स्थिति प्राप्त हो जाए ।
इसी प्रकार एक बार जाड़े के दिनों में स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वती जी के पास कुछ कंबल तथा शाल बांटने के लिए आये थे । उन्होंने एक साधक को शाल दिया और इन्हें दिया एक सामान्य कंबल । इनके मन में आया महाराज ने पक्षपात किया है परन्तु बाद में उन्होंने श्रीहितदास जी को बताया--"तुम विरक्त साधु हो, तुम्हें त्यागमय जीवन जीना है और व्दारका जी, जिसे शाल दिया था, वह तो आगे गृहस्थी बनेगा ।" स्वामी श्रीहितदास जी को उड़िया बाबा जी का वह सन्देश भी सुनाया--"विरक्त वह है, जिसके मन में कुछ भी पहनने--भोगने की वासना नहीं है ।" संत की कृपा का इसे उन्होंने सहज स्नेह ही माना ।
श्रीस्वामी अखण्डानन्द सरस्वती जी के सम्पर्क से उनकी साधुता के विकास में बड़ा लाभ हुआ । परन्तु स्वामी जी जहाँ वेदान्त को अधिक महत्त्व देते थे वहीं श्रीहितदास जी का पथ श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति का था । एक दिन स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वती जी ने इनसे पूछा--"हित जी! आपको वेदान्त सुनते डेढ़ वर्ष हो गया, कहो तुम्हारा क्या विचार है?" स्वामी श्रीहितदास जी ने उत्तर दिया, उसे सुनकर स्वामी जी ने कहा--"हित जी! तुम सिद्ध पुरुष हो । श्रीकृष्ण साक्षी हैं, ऐसी गरिष्ठ निष्ठा मैंने आजतक अपने जीवन में किसी की भी नहीं देखी । तुम अनन्य श्रीकृष्ण--भक्त हो ।"
इसी बीच स्वामी श्रीहितदास जी ने ब्राह्म मुहूर्त में एक स्वप्न देखा कि एक श्वेतवासना गौर वर्ण की सुंदरी, जो लगभग तीस वर्ष की है, अंग-अंग से कान्ति झलक रही थी--उसकी गोद में तीन मास का शिशु है, वह इनके पास आकर बिलखती हुई कहती है--"भैया! मेरे इस बालक को बचाओ, इसे मृत्यु घेरे हुए है ।"
स्वामी श्रीहितदास जी ने उन्हें समझाया कि मांस के लोथड़े के लिए क्यों इतना विलाप कर रही है? जाना सभी को है ।
उस देवी ने कहा--"मैं अज्ञानी नहीं हूँ, आपका ज्ञानोपदेश सुनने नहीं आयी हूँ, मेरी वेदना का अनुभव कीजिए । इसकी रक्षा आप ही कर सकते हैं ।"
स्वामी श्रीहितदास जी की नींद टूट गयी । बाद में उन्होंने इस स्वप्न का अभिप्राय जानना चाहा । उस समय पण्डित श्रीरामकिंकरी जी उपाध्याय वहाँ आ गये । उन्होंने कहा--"आगन्तुक युवती साक्षात् भक्ति देवी हैं । उनकी गोद में जो शिशु है, वह भाव है क्योंकि भक्ति भावों की जननी है । श्रीहितदास जी अनन्य राधावल्लभीय रसोपासक वैष्णवी साधु हैं । इधर कुछ वर्षों से, ये वेदान्त--वार्ता सुनते हैं, इससे इनकी भक्ति अनजाने ही क्षीण होती जा रही है, इसीलिए इन्हें सचेत करने के लिए, भाव--शिशु की रक्षा करने की इनसे प्रार्थना की है।"
इसके पश्चात् इनकी वैष्णवी साधना ताकी रक्षा के लिए स्वामी श्रीअखण्डानन्द जी सरस्वती ने इन्हें पृथक रहकर रस--भजन करने की स्वीकृति दे दी परन्तु वे बाद में भी इनके पास उतने ही स्नेह और सम्मान से आते थे, उधर स्वामी श्रीहितदास जी भी अन्त तक स्वामी श्रीअखण्डानन्द जी को परमादरणीय मानकर उनका आभार मानते रहे, आदर करते रहे । अन्यत्र कहाँ मिलती है, ऐसी आध्यात्मिक जनों की संगति?
स्वामी श्रीहितदास जी महाराज को अपने समय के अनेक महापुरुषों का सत्संग मिला । वे स्वामी श्रीहितदास जी को परम श्रेष्ठ विरक्त संत मानते थे । पूज्य देवरहा बाबा जी ने तो इन्हें "परम भागवत" की उपाधि दी थी ।
वृन्दावन में रहकर अब वे रस--भजन, प्रवचन और राधावल्लभीय रस--पध्दति का प्रचार करते थे । उनके प्रयासों से उनके शिष्यों, प्रशंसकों का एक बड़ा आन्दोलन बन चुका था । आवश्यकता हुई कि कोई सत्संग--भवन बने, जहाँ साधक ठहरें, मन्दिर हो, विविध आयोजन हों । इसी दृष्टि से सन् 1955 में "श्रीहिताश्रम सत्संग भूमि" के लिए भूमि का क्रय किया गया । इस आश्रम की स्थापना जिन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए की गयी थी, उनमें मन्दिर--देवालयों की स्थापना, उनकी सेवा--पूजा की व्यवस्था, हित साहित्य का संरक्षण, संवर्धन एवं प्रकाशन, मानव--सेवा, सेवाव्रती साधु--समाज की सेवा, उद्यान सेवा एवं गौ--सेवा, पुस्तकालय, विद्यालयों की स्थापना, साधु--समाज का संगठन तथा भारतीय जनता के सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक निर्झरण व्दारा अभ्युदय एवं निःश्रेयस का मार्ग प्रशस्त करना ।
सन् 1955 में अनन्तश्री स्वामी श्रीहितदास जी महाराज "रसिक-पद-रेणु" ने "श्रीहिताश्रम सत्संग भूमि" का शिलान्यास किया । उन्हीं दृढ़ संकल्पों से इस सत्संग भूमि का भव्य रूप में विकास हुआ है ।<big><big>
 
===आधुनिक युग===
आधुनिक गद्य काल में तो अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन आदि पश्चिमी भाषाओं के साथ साथ [[हिंदी]], [[बंगला]], [[मराठी]] आदि में भी प्रसिद्ध व्यक्तियों के जीवनचरित लिखने की प्रवृत्ति यथेष्ट रूप से बढ़ती जा रही है। आत्मकथाओं में [[महात्मा गांधी]] की "[[सत्य के प्रयोग]]" शीर्षक आत्मकथा, देशरत्न स्व. [[राजेन्द्र प्रसाद]] की आत्मकथा और [[जवाहरलाल नेहरू]] की आत्मकथा, इस प्रसंग में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
 
<span style="color: #330099">==<big><big><B>''अंतिम समय''</B></big></big>==</span>
[[श्रेणी:साहित्य की विधा]]
<big><big>श्रीस्वामी हितदास जी महाराज ने जीवन भर सभी को सम्मान दिया । वे स्वयं को रसिकों की पद-रेणु मानते थे अतः उन्होंने अपना उपनाम "रसिक-पद-रेणु" ही रखा । भक्ति-जगत् में वे सूर्य की भाँति थे, मानव-मात्र की सेवा में संलग्न थे, तब श्रीराधावल्लभ जी महाराज द्वारा निर्धारित सेवा-कार्य का समय पूर्णता पर था । शरीर-विधान के अनुसार उन्हें कुछ रोगों ने घेरा भी, उनके शिष्यों ने उनकी अपूर्व सेवा की परन्तु अपने आप में प्रसन्न चित्त स्वामी श्रीहितदास जी महाराज अपने इष्ट की नित्य निकुञ्ज लीला में अपने "नेहलता" नामक सहचरी स्वरूप से प्रविष्ट हो गये । उन्होंने प्राणों का परित्याग इतनी सुगमता से किया जैसे, श्रीतुलसीदास जी की उपमा के अनुसार, किसी हाथी के कण्ठ से सुमन-माल गिर जाए--</big></big>
 
<span style="color: #330099"><div style="text-align: center;"><big><big><B>सुमन--माल जिमि कंठ ते गिरत न जानत नाग ।</big></big></B></div></span>
 
<big><big>परम भागवत संत--प्रवर स्वामी श्रीहितदास जी महाराज के निकुञ्ज गमन का समाचार सुनकर भक्तजनों, ब्रजवासियों की भीड़ एकत्र हो गयी । संभवतः सभी लोग अपने प्रिय स्वामी जी के वियोग में रुदन कर रहे थे परन्तु चाचा श्रीहित वृन्दावनदास जी के शब्दों में जैसे विवाह के समय पत्नी प्रियतम के यहाँ बड़े गाजे-बाजे और स्नेहीजनों के रोने के बीच अपने पति से मिलन के सुख का अनुभव करती है, वैसे ही श्रीहितदास जी महाराज की आत्मा अपने प्रिय, प्रिया-प्रियतम से मिलने की खुशी उस बारातरूपी शवयात्रा में कर रही थी । "क्वारी" अर्थात् जो भक्त नहीं हैं, वे उस विदा का क्या सुख जानें?
चाचा श्रीहित वृन्दावनदास जी का यह छन्द कितना सार्थक है----</big></big>
<span style="color: #330099">
<div style="text-align: center;"><big><big><B>
पिता-भवन तें रोवती, चली नाहु-घर नारि ।
चली नाहु-घर नारि अमंगल ताहि न मानौ ।
ज्यौं हरि-भक्त देह तजै, पीड़ा जिनि जानौ ।
ऊपर कौ अनुकरण होय भीतर सुख भारी ।
नाथ-मिलन-उत्साह भाव जानें क्या क्वारी? वृन्दावन हित भक्तजन देखौ अर्थ विचार । पिता-भवन तें रोवती, चली नाहु-घर नारि ।</big></big></B></div></span>
 
<big><big>यहाँ "क्वारी" का अर्थ है जिसका अपने प्रिय से न लगन हुआ हो न विवाह, भक्तों के अर्थ में निगुरे और इष्ट विमुख ।
तीन दिन बाद ही स्वामी श्रीहितदास जी महाराज के प्रति श्रद्धाञ्जलि-सभा हुई । उस सभा में वृन्दावन, ब्रज एवं दूर-दूर स्थानों से रसिक, भक्त, संत श्रद्धा पूर्वक वहाँ पधारे । अद्भुत विशाल संगम था वह । सभी के साथ महाराजश्री के व्यापक संबंध थे । उनकी लोकप्रियता का यह अद्वितीय प्रमाण था ।</big></big>
 
 
<span style="color: #330099">==<big><big><B>''प्रवचन और साहित्य रचना''</B></big></big>==</span>
 
<big><big>स्वामी श्रीहितदास जी महाराज को बाल्यावस्था से हे साहित्य से अनुराग था । वे स्वयं भी रचना करने लगे थे । कृष्ण-भक्ति का रंग लगने पर उन्होंने कृष्ण-भाव की रचनाएँ आरम्भ कीं । वे स्वयं लिखते हैं--'धीरे-धीरे मैंने ब्रजभाषा पद्य में श्रीकृष्ण भक्ति--परक छोटे-बड़े सोलह ग्रंथ लिख डाले, किन्तु मेरा विवेक कहता रहता था कि-- "तुम्हारी यह दिमागी ऐंठन वाली कविता अनुभवहीन होने के कारण बुद्धि-विकार के अतिरिक्त और है ही क्या? सिद्ध कोटी के महापुरुष श्रीहित हरिवंश, स्वामी श्रीहरिदास, सूरदास, हरिराम व्यास आदि के दिव्य काव्य के समक्ष इन रचनाओं का कोई मूल्य नहीं है । तुम्हारी कविता भ्रमोत्पादक है ।" इस प्रकार सोचते हुए एक निश्चय के साथ उस रजिस्टर को, जिसमें सोलह ग्रंथ लिखे हुए थे, दो-तीन टुकड़ों में फाड़ डाला और लेकर दावानल कुंड के जल में डाल दिया । इस क्रिया से मुझे बड़ा चैन मिला । वह रजिस्टर उतराकर ऊपर आ गया । किसी ने निकालकर उसके पन्नों को यत्र-तत्र बिखेर दिया । फिर भी पारकर स्याही से लिखे होने हीके कारण कागजों की लिपि स्पष्ट पढ़ी जा सकती थी ।"
महाराजश्री ने आगे लिखा है कि--"एक दिन वे स्वामी श्रीअखण्डानन्द जी के साथ अपने निवास-स्थान की ओर आ रहे थे कि मार्ग में उस रजिस्टर का एक पृष्ठ पड़ा हुआ दिखा । स्वामी श्रीअखण्डानन्द जी ने उसे उठवाया, देखा, पढ़ा, पहचाना और कहा कि यह तो हित जी कि कविता मालूम होती है, लिखावट भी उन्हीं की है । स्वामी श्रीहितदास जी लज्जित हो गये । कमरे में आने पर उन्होंने श्रीहितदास जी को बुलवाया और कविताओं का रजिस्टर मंगवाया । श्रीहितदास जी ने डरते हुए उन्हें बताया कि कविताएँ तो उन्होंने दावानल कुंड में फेंक दीं । स्वामी श्रीअखण्डानन्द जी महाराज कड़ककर बोले--हमारी आज्ञा के बिना तुमने ऐसा क्यों किया? उन्हें हित जी की कविताएँ अत्यन्त प्रिय थीं फिर भी हित जी ने उन्हें अपने काव्य को महत्त्वहीन और अभिमान की वृद्धि करने वाला बताया ।
महाराज जी प्रसन्न हुए और कहा--"ऐसा सोचना साधक का लक्षण है, मुझे तुम्हारी कविता अच्छी लगती है, किन्तु इससे भी अच्छी यह बात लगी । अब तुम कविता करना छोड़ दो । वस्तुतः यह भजन की बाधा है ।"
स्वामी श्रीअखण्डानन्द जी जैसे विद्वान संत द्वारा स्वामी हितदास जी की कविताओं को प्रिय बताना, उनकी प्रशंसा करना जहाँ उनकी रचनाओं के स्तर का वैशिष्टय् सिद्ध करता है, वहीं उन कविताओं को नष्ट करना स्वामी हितदास जी की भक्ति की चरम कोटी की साधना को द्योतित करता है । यों, यदि वे कविताएँ नष्ट न हो जाती तो संभवतः भक्ति-साहित्य की निधि होतीं । उनकी दो काव्य-रचनाएँ अवश्य जैसे-तैसे शेष रह गयीं, जो इस ग्रंथ के रूप में प्रकाशित होकर आपके समक्ष हैं ।
इन ग्रन्थों की चर्चा से पूर्व यह कहना भी आवश्यक है कि भक्ति-साहित्य का अनुकरण अध्ययन भी भक्ति-साधना का माध्यम है ।
स्वामी श्रीहितदास जी ने स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वती जी महाराज के विषय में जो छोटी सी पुस्तक "सबके प्रिय, सबके हितकारी" लिखी है, वह भी स्वच्छ साहित्यिक गद्य का अत्यन्त सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करती है । उनका गद्य बड़ा ही उज्ज्वल, प्रभावोत्पादक और प्रवाहयुक्त है । उसे जीवनी-साहित्य में रखा जा सकता है, साधकों के लिए तो जैसे यह एक मार्गदर्शिका है ।
स्वामी श्रीहितदास जी ने हिताश्रम से जो ग्रंथ प्रकाशित कराये अथवा जो अभी अप्रकाशित हैं उनके नाम हैं-----</big></big>
 
<span style="color: #330099">==<big><big><B>टीका</B>==
 
1॰ श्री राधारससुधानिधि (प्रकाशित)
२॰ श्री उपसुधानिधि (प्रकाशित)
३॰ बयालीस लीला (प्रकाशित)
४॰ श्रीहित चतुरासी (प्रकाशित)
५॰ श्रीहित सेवक वाणी (प्रकाशित)
६॰ श्रीनाभा स्वामी कृत भक्तमाल (प्रकाशित) </big></big></span>
 
<span style="color: #330099">==<big><big><B>स्वरचित साहित्य</B>==
 
७॰ भाव-मञ्जरी (प्रकाशित)
८॰ हृदयोद्गार (प्रकाशित)
९॰ पद-संग्रह (अप्रकाशित)
१०॰ स्तवक (अप्राप्त)
११॰श्रीहितहरिवंश चरित (अप्रकाशित)
१२॰ श्रीहित सेवक चरित्र (प्रकाशित)</big></big></span>
 
<big><big>"हितवाणी" नामक एक अत्यन्त उपयोगी पत्रिका भी आश्रम से प्रकाशित की गयी । इसमें भी उनके अनेक लेख विद्यमान हैं । </big></big></span>
 
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