"संस्कृत के प्राचीन एवं मध्यकालीन शब्दकोश": अवतरणों में अंतर

पंक्ति 58:
'''[[हेमचंद्र]]''' - संस्कृत के मध्यकालीन कोशकारों में हेमचंद्र का नाम विशेष महत्व रखता है । वे महापंडित थे और 'कालिकालसर्वज्ञ' कहे जाते थे । वे कवि थे, काव्यशास्त्र के आचार्य थे, योगशास्त्रमर्मज्ञ ते, जैनधर्म और दर्शन के प्रकांड विद्वान् थे, टीकाकार ते और महान् कोशकार भी थे । वे जहाँ एक ओर नानाशास्त्रपारंगत आचार्य थे वहीं दूसरी ओर नाना भाषाओं के मर्मज्ञ, उनके व्याकरणकार एवं अनेकभाषाकोशकार भी थे (समय १०८८ से ११७२ ई०) । संस्कृत में अनेक कोशों की रचना के साथ साथ प्राकृत—अपभ्रंश—कोश भी (देशीनाममाला) उन्होंने संपादित किया । अभिधानचिंतामणि (या 'अभिधानचिंतामणिनाममाला' इनका प्रसिद्ध पर्यायवाची कोश है । छह कांडों के इस कोश का प्रथम कांड केवल जैन देवों और जैनमतीय या धार्मिक शब्दों से संबंद्ध है । देव, मर्त्य, भूमि या तिर्यक, नारक और सामान्य—शेष पाँच कांड हैं । 'लिंगानुशासन' पृथक् ग्रंथ ही है । 'अभिधानचिंतामणि' पर उनकी स्वविरचित 'यशोविजय' टीका है—जिसके अतिरिक्त, व्युत्पत्तिरत्नाकर' (देवसागकरणि) और 'सारोद्धार' (वल्लभगणि) प्रसिद्ध टीकाएँ है । इसमें नाना छंदों में १५४२ श्लोक है । दूसरा कोश 'अनेकार्थसंग्रह (श्लो० सं० १८२९) है जो छह कांडों में है । एकाक्षर, द्वयक्षर, त्र्यक्षर आदि के क्रम से कांडयोजन है । अंत में परिशिष्टत कांड अव्ययों से संबंद्ध है । प्रत्येक कांड में दो प्रकार की शब्दक्रमयोजनाएँ हैं—(१) प्रथमाक्षरानुसारी और (२) 'अंतिमंक्षरानुसारी'। 'देशीनाममाला' प्राकृत का (और अंशतः अपभ्रंश का भी) शब्दकोश है जिसका आधार 'पाइयलच्छी' नाममाला है'।
 
'''महेश्वर''' (११११ ई०) के दो कोश (१) [[विश्वप्रकाश]] और (२) [[शब्दभेदप्रकाश]] हैं । प्रथम नानार्थकोश है । जिसकी शब्दक्रम- यौजनायोजना अमरकोश के समान 'अंत्याक्षरानुसारी है । इसके अध्यायों में एकाक्षर से लेकर 'सप्ताक्षर' तक के शब्दों का क्रमिक संग्रह है । तदनसार 'कैकक' आदि अध्याय भी है । अंत में अव्यय भी संगृहीत हैं । 'स्त्री', 'पुम्' आदि शब्दों के द्वारों नहीं अपितु शब्दों की पुनरुक्ति द्वारा लिंगनिर्देश किया गया है । इसमें अनेक पूर्ववर्ती कोशकारों के नाम— भोगींद्र, कात्यायन, साहसांक, वाचस्पति, व्याडि, विश्वरूप, अमर, मंगल, शुभांग, शुभांक, गोपालित (वोपालित) और भागुरि—निर्दिष्ट हैं । इस कोश की प्रसिद्ध, अत्यंत शीघ्र हो गई थी क्योंकि 'सर्वानंद'और 'हेमचंद्र' ने इनका उल्लेख किया है । इसे 'विश्वकोश' भी अधिकतः कहा जाता हैं । शब्दभेदप्रकाशिका वस्तुतः विश्वप्रकाश का परिशिष्ट है जिसमें शब्दभेद, बकारभेद, लिंगभेद आदि हैं ।
 
मंख पंडित (१२ वीं शती ई०) का अनेकार्थ—१००७ श्लोकों का है और अमरकोश एवं विश्वरूपकोश के अनुकरण पर बना है । 'भागुरि', अमर, हलायुध, शाश्वत' और 'ध्नवंतरि के आधारग्रहण का उसमें संकेत है । शब्दक्रमयोजना अंत्याक्षरानुसारी है ।
पंक्ति 70:
'''मेदिनिकर''' का समय लगभग १४ वी शताब्दी के आसापास या उससे कुछ पूर्ववती काल माना गया है । एक मत से ११७५ ई० के पूर्व भी इनका समय बताया जाता है । इनके कोश का नाम नानार्थशब्दकोश है । पर मेदिनिकोष नाम से वह अधिक विख्यात है । इसकी पद्धति और शैली पर 'विश्वकोश' की रचना का पर्याप्त प्रभाव है । उसके अनेक श्लोक भी यहाँ उदधुत् है । ग्रंथारंभ के परिभाषात्मक अंश पर 'अमरकोश' की इतनी गहरी छाप है कि इसमें 'अमरकोश' के श्लोक तक शब्दशः ले लिए गए हैं । इसमें कोई खास विशेषता नही है ।
 
===मेदिनीकोश के अनन्तर के लघुकोश===
मेदीनी के अनंतर के लघुकोश न तो बारबार उद्धृत् हुए है और न पूर्वकोशों के समान प्रमाणरूप में मान्य है । परंतु इनमें कुछ ऐसे प्राचीनतर और प्रामाणिक कोशों का उपयोग हुआ है जो आज उपलब्ध नहीं हैं अथवा और अशुद्ध रूप में अंशतः उपलब्ध हैं ।
 
*(१) 'जिनभद्र सुरि' का कोश है अपवर्गनाममाला— जिसका नाम 'पंचवर्गपरिहारनाममाला भी है । इनका काल संभवतः १२ वीं शताब्दी के आस पास है ।
 
*(२) 'शब्दरत्नप्रदीप'—संभवतः यह कल्याणमल्ल का शब्दरत्नप्रदीप नामक पाँच कांडोवाला कोश है । (समय लगभग १२९५ ई०)।
 
*(३) महीप का शब्दरत्नाकर—कोश है जिसके नानार्थभाव का शीर्षक है—अनेकार्थ या नानार्थतिलक; समय है लगभग १३७४ ई०।
 
*(४) पद्यगदत्त के कोश का नाम 'भूरिक- प्रयोग है । इसका समय लगभग वही है । इस कोश का पर्यायवाची भाग छोटा है और नानार्थ भाग बड़ा। *(५) रामेश्वर शर्मा की शब्दमाला भी ऐसी ही कृति है ।
 
*(६) १४ वी शताब्दी के विजयनगर के राजा हरिहरगिरि की राजसभा में भास्कर अथवा दंमडाधिनाथ थे । उन्होने नानार्थरत्नमाला बनाया ।
 
*(७) अभिधानतंत्र का निर्माण जटाधर ने किया ।
 
*(८) 'अनेकार्थ' या नानार्थकमंजरी'— 'नामांगदसिंह' का लघु नानार्थकारी है ।
 
*(९) रूपचंद्र की रूपमंजरी—नाममाला का समय १६ वी शती है ।
 
*(१०) शारदीय नाममाला 'हर्षकीर्ति' कृत है (१६२४ ई०)।
 
*(११) शब्दरत्नाकर के कर्ता 'वर्मानभट्ट वाण' हैं ।
 
*(१२) नामसंग्रहमाला की रचना अप्पय दीक्षित ने की है । इनके अतिरिक्त
 
*(१३) नामकोश (सहजकीर्ति) का (१६२७) और
 
*(१४) पंचचत्व प्रकाश (१६४४) सामान्य कोश हैं ।
 
*(१५) '''कल्पद्रु कोश''' केशवकृत है । नानार्थर्णवसक्षेपकार 'केशवस्वामी' से ये भिन्न हैं । यह ग्रंथ संस्कृत का बृहत्तम पर्यायवाची कोश है । इसमें नानार्थ का प्रकरण या विभाग नहीं है । इसमें पर्यायों की संख्या सर्वाधिक है, यथा—पृथ्वी के १६४ तथा अग्नि के ११४ पर्याय इत्यादि । 'मल्लिनाथी' टीका में उदधृत वचन के आधार पर 'केशव नामक' तृतीय कोशकार भी अनुमानित है । तीन स्कंधों के इस कोश की श्लोकसंख्या लगभग चार हजार है । स्कंधों के अंतर्गत अनेक प्रकांड हैं । लिंगबोध के लिये अनेक संक्षिप्त संकेत हैं । पर्यायों की स्पष्टता और पूर्णता के लिये अनेक प्रयोग तथा प्रतिक्रियाएँ दी हुई हैं । इसमें कात्य, वाचस्पति, भागुरि, अमर, मंगल, साहसांक, महेश और जिनांतिम (संभवतः हेमचंद्र) के नाम उल्लिखित हैं । चतुर्थ श्लोक से नवम श्लोक तक—कोश में विनियुक्त पद्धति का निर्देश किया गया है । रचनकाल १६६० ई० माना जाता है । केशवस्वामी के नानार्थर्णव कोश से यह भिन्न है ।
 
*(१६) शब्दरत्नावली के निर्माता मथुरेश है (समय १७वी शताब्दी) । इनके अतिरिक्त कुछ और भी साधारण परवर्ती कोश हैं ।
 
*(१७) कोशकल्पतरु—विश्वनाथ;
 
*(१८) नानार्थपदपीठिका तथा शब्दलिंगार्थचंद्रिका—सुजन (दोनों ही नानार्थकोश हैं) । इनमें प्रथम में—अंत्यव्यंजनानुसारा क्रम है और द्वितीय में तान कांड हैं जिसमें क्रमशः एक, दो और तीन लिंगों के शब्द हैं) ।
 
*(१९) पर्यायपदमंजरी और शब्दार्थमंजूषा—प्रसिद्ध कोश हैं ।
 
*(२०) महेश्वर के कोश का नाम 'पर्यायरत्नमाला' है— संभवतः पर्यायवाची कोश विश्वप्रकाश' के निर्माता महेश्वर से भिन्न हैं । पर्यांयशब्दरत्नाकर के कर्ता धनंजय भट्टाचाई है ।
 
*(२१) विश्विमेदिनी— सारस्वत भिन्न का है ।
 
*(२२) विश्वकवि का विश्वनिघंटु है ।
 
*(२३) १७८६ और १८३३ के बीच बनारस में संस्कृत- पर्यायवाची श्ब्दों की एक 'ग्लासरी' 'एथेनियन' ने अपने एक ब्राह्मण मित्त द्बारा अपने निर्देशन में बनवाई थी । इसमें मूल शब्द सप्तमी विभक्ति के थे और पर्याय—कर्ता कारक (प्रथमा) के परंतु संभवतः इसमें बहुत सा अंश आधारहीनता अथवा दिषपूर्ण विनियोग के कारण संदिग्ध रहा । 'बोथलिंक' का संक्षिप्त शब्दकोश भी 'ग्यलनास' के अनेक उद्धरणों से युक्त है ।
(१६) शब्दरत्नावली के निर्माता मथुरेश है (समय १७वी शताब्दी) । इनके अतिरिक्त कुछ और भी साधारण परवर्ती कोश हैं ।
(१७) कोशकल्पतरु—विश्वनाथ;
(१८) नानार्थपदपीठिका तथा शब्दलिंगार्थचंद्रिका—सुजन (दोनों ही नानार्थकोश हैं) । इनमें प्रथम में—अंत्यव्यंजनानुसारा क्रम है और द्वितीय में तान कांड हैं जिसमें क्रमशः एक, दो और तीन लिंगों के शब्द हैं) ।
(१९) पर्यायपदमंजरी और शब्दार्थमंजूषा—प्रसिद्ध कोश हैं ।
(२०) महेश्वर के कोश का नाम 'पर्यायरत्नमाला' है— संभवतः पर्यायवाची कोश विश्वप्रकाश' के निर्माता महेश्वर से भिन्न हैं । पर्यांयशब्दरत्नाकर के कर्ता धनंजय भट्टाचाई है ।
(२१) विश्विमेदिनी— सारस्वत भिन्न का है ।
(२२) विश्वकवि का विश्वनिघंटु है ।
(२३) १७८६ और १८३३ के बीच बनारस में संस्कृत- पर्यायवाची श्ब्दों की एक 'ग्लासरी' 'एथेनियन' ने अपने एक ब्राह्मण मित्त द्बारा अपने निर्देशन में बनवाई थी । इसमें मूल शब्द सप्तमी विभक्ति के थे और पर्याय—कर्ता कारक (प्रथमा) के परंतु संभवतः इसमें बहुत सा अंश आधारहीनता अथवा दिषपूर्ण विनियोग के कारण संदिग्ध रहा । 'बोथलिंक' का संक्षिप्त शब्दकोश भी 'ग्यलनास' के अनेक उद्धरणों से युक्त है ।
 
इनके अलाव क्षेमेंद्र का लोकप्रकाश, महीप की अनेकार्थमाला का हरिचरणसेन की पर्यामुक्तावली, वेणीप्रसाद का पंचनत्वप्रकाश, अने- कार्थनिलक, राघव खांड़ेकर का केशावतंस, 'महाक्षपणक की अनेकार्थ- ध्वनिमंजरी आदि साधारण शब्दकोश उपलब्ध है । भट्टमल्ल की आख्यातचीन्द्रिक (क्रियाकोश), हर्ष का लिंगानुशाषन, अनिरुद्ध का शब्दभेदप्रकाश और शिवदत्त वेद्य का शिवकोश (वैद्यक), गणितार्थ नाममाला, नक्षत्नकोश आदि विशिष्ट कोश है । लौकिक न्याय की सूक्तियाँ के भी अनेक संग्रह है । इनमें भुवनेश की लैकिकन्यायसाहसी के अलाबा लौकिक न्यायसंग्रह, लौकिक न्याय मुक्तावली, लौकिकन्यायकोश आदि है । दार्शनिक विषयों के भी कोश— जिन्हें हम परिभाषिक कहते है— पांडुलिपि की सूचियों में पाए जाते है ।