"संस्कृत के प्राचीन एवं मध्यकालीन शब्दकोश": अवतरणों में अंतर
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इनके अरिरिक्त 'पुरुषोत्तमदेव' का ग्रंथ 'वर्णदेशना' है, जिसमें लिखावट में स्वल्पाधिक भेदों के कारण होनेवाले वर्णाविन्यास संबंधी वैरूप्य परिचय मिलता है । इन्हीं का एक कोश 'त्रिकांडकोष' भी है जिसमें अमरसिंह के कोश में छूटे हुए, पर तदयुगीन' भाषा में प्रचलित, शब्दों का संग्रह है । 'पुरुषोत्तमदेव' की ही एक रचना 'हारावली' भी है, जिसमें विरल प्रयोगवाले 'एकार्थ' और 'अनेकार्थ' शब्दों के दो भाग हैं । स्वयं लेखर ने लिखा है कि इस ग्रंथ में अत्यंत विरल शब्दों का संग्रथन हुआ है ।
'अमरसिंह' के अनंतर कोशकारों और कोशग्रंथों पर अमरकोश का पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है । पर्यायवाची कोश बहुत कुछ अमरकोश से प्रभाव ग्रहण कर लिखे गए । 'नानार्थ' या 'अनेकार्थ' कोश भी अमरकोश के नानार्थ वर्ग के आधार पर प्रायः बहुमुखी विस्तारमात्र रहे हैं । '[[विश्वप्रकाश]]' कोश में अवश्य कुछ अधिक वैशिष्ट दिखाई देत है । वह विलक्षण 'नानार्थकोश' है जो अनेक अध्ययों में विभक्त है । प्रत्येक अध्याय में एकाक्षर, द्वयक्षर आदि क्रम से सप्ताक्षर शब्दों तक का संकलन है । 'कैकक', 'कद्विक', आदि भी अध्यायों के नाम हैं । 'अमरकोश' की तरह ही शब्द के अंतिम वर्णानुसार कांत, खांत आदि रूप में शब्दों का अनुक्रम है । उनका 'शब्द—भेद—प्रकाशिका' नामक ग्रंथ भी वस्तुतः इसी का अन्य परिशिष्ट है । इसके चार अध्यायों में क्रमशः 'शब्दभेद', 'वकारभेद', 'ऊष्मभेद' और 'लिंगभेद' नामक चार विभिन्न भेद हैं । ऐतिहासिक क्रम से संस्कृत कोशों का निर्देश नीचे किया रहा हैः
'''शाश्वत''' का [[अनेकार्थसमुच्चय]] नामक नानार्थ कोश है । समय पूर्णतः निश्चित न होने पर भी ६०० ई० के आसपास के काल में इसकी रचना मानी जाती है । इसी को 'शाश्वतकोश' भी कहते हैं । 'अमरकोश' के संक्षिप्त नानार्थ वर्ग का यह विस्तार जान पड़ता है । ८०० अनुष्टुप
'''[[भट्ठ हलायुध]]''' (समय लगभग १० वीं० शताब्धी ई०) के कोश का नाम 'अभिधानरत्नमाला' है, पर '[[हलायुधकोश]]' नाम से यह अधिक प्रसिद्ध है । इसके पाँच कांड (स्वर, भूमि, पाताल, सामान्य और अनेकार्थ) हैं । प्रथम चार पर्यायवाची कांड हैं, पंचम में अनेकार्थक तथा अव्ययशब्द संगृहीत है । इसमें पूर्वकोशकारों के रूप में अमरदत्त, वरुरुचि, भागुरि और वोपालित के नाम उद्धृत है । रूपभेद से लिंग- बोधन की प्रक्रिया अपनाई गई है । ९०० श्लोकों के इस ग्रंथ पर अमरकोश का पर्याप्त प्रभाव जान पड़ता है । 'पिंगलसूत्र' की टीका के अतिरिक्त 'कविरहस्य' भी इनका रचित है जिसमें 'हलायुध' ने धातुओं के लट्लकार के भिन्न भिन्न रूपों का विशदीकरण भी किया है ।▼
'''[[यादवप्रकाश]]''' (समय १०५५ से १३३७ के मध्य) का [[वैजयंती कोश]] अत्यंत प्रसिद्ध भी है और महत्वपूर्ण भी । इसकी कुछ अपनी विशेषताएँ हैं । यह बृहदाकार भी है और प्रामाणिक भी माना गया है । इसकी सर्वप्रमुख विशेषता है
▲[[भट्ठ हलायुध]] (समय लगभग १० वीं० शताब्धी ई०) के कोश का नाम 'अभिधानरत्नमाला' है, पर 'हलायुधकोश' नाम से यह अधिक प्रसिद्ध है । इसके पाँच कांड (स्वर, भूमि, पाताल, सामान्य और अनेकार्थ) हैं । प्रथम चार पर्यायवाची कांड हैं, पंचम में अनेकार्थक तथा अव्ययशब्द संगृहीत है । इसमें पूर्वकोशकारों के रूप में अमरदत्त, वरुरुचि, भागुरि और वोपालित के नाम उद्धृत है । रूपभेद से लिंग- बोधन की प्रक्रिया अपनाई गई है । ९०० श्लोकों के इस ग्रंथ पर अमरकोश का पर्याप्त प्रभाव जान पड़ता है । 'पिंगलसूत्र' की टीका के अतिरिक्त 'कविरहस्य' भी इनका रचित है जिसमें 'हलायुध' ने धातुओं के लट्लकार के भिन्न भिन्न रूपों का विशदीकरण भी किया है ।
▲[[यादवप्रकाश]] (समय १०५५ से १३३७ के मध्य) का वैजयंती कोश अत्यंत प्रसिद्ध भी है और महत्वपूर्ण भी । इसकी कुछ अपनी विशेषताएँ हैं । यह बृहदाकार भी है और प्रामाणिक भी माना गया है । इसकी सर्वप्रमुख विशेषता है । नानार्थ भाग की आदिवर्ग- क्रमानुसारी वर्णक्रमयोजना जिसमें आधुनिक कोशों की अकारादि- वर्णानिक्रमपद्धति का बीज दृष्टिगोचर होता है । परंतु कोठोरता और पूर्णता के साथ इस नियम का पालन नहीं है । केवल प्रथमाक्षर का आधार लिया गया है—दितीय, तृतीय आदि अक्षर या ध्वनि का नहीं । इसके दो भाग हैं—(१) पर्यायवाची और (२) नानार्थक । दोनों ही भाग—अमरकोश की अपेक्षा अधिक संपन्न है । नानार्थभाग के तीन का में द्वयक्षर, त्र्क्षर और शेष शब्दो को संकलित किया गया है । नानार्थभाग के कांडों का अध्याविभाग— उपप्रकरणों में लिंगानुसार (पुल्लिंगाध्याय, स्त्रीलिंगाध्याय, नपुंसकलिंगाध्याय, अर्थल्लिंगाध्याय और नानालिंगाध्याय) हुआ है । अंतिम चार अध्यायों में और भी अनेक विशेषताएँ हैं । अमरकोश की परिभाषाएँ संक्षेपीकृत रूप से गृहीत है । इसमें कुछ वैदिक शब्द भी संगृहीत है ।
'''[[हेमचंद्र]]''' - संस्कृत के मध्यकालीन कोशकारों में हेमचंद्र का नाम विशेष महत्व रखता है । वे महापंडित थे और 'कालिकालसर्वज्ञ' कहे जाते थे । वे कवि थे, काव्यशास्त्र के आचार्य थे, योगशास्त्रमर्मज्ञ ते, जैनधर्म और दर्शन के प्रकांड विद्वान् थे, टीकाकार ते और महान् कोशकार भी थे । वे जहाँ एक ओर नानाशास्त्रपारंगत आचार्य थे वहीं दूसरी ओर नाना भाषाओं के मर्मज्ञ, उनके व्याकरणकार एवं अनेकभाषाकोशकार भी थे (समय १०८८ से ११७२ ई०) । संस्कृत में अनेक कोशों की रचना के साथ साथ प्राकृत—अपभ्रंश—कोश भी (देशीनाममाला) उन्होंने संपादित किया । अभिधानचिंतामणि (या 'अभिधानचिंतामणिनाममाला' इनका प्रसिद्ध पर्यायवाची कोश है । छह कांडों के इस कोश का प्रथम कांड केवल जैन देवों और जैनमतीय या धार्मिक शब्दों से संबंद्ध है । देव, मर्त्य, भूमि या तिर्यक, नारक और सामान्य—शेष पाँच कांड हैं । 'लिंगानुशासन' पृथक् ग्रंथ ही है । 'अभिधानचिंतामणि' पर उनकी स्वविरचित 'यशोविजय' टीका है—जिसके अतिरिक्त, व्युत्पत्तिरत्नाकर' (देवसागकरणि) और 'सारोद्धार' (वल्लभगणि) प्रसिद्ध टीकाएँ है । इसमें नाना छंदों में १५४२ श्लोक है । दूसरा कोश 'अनेकार्थसंग्रह (श्लो० सं० १८२९) है जो छह कांडों में है । एकाक्षर, द्वयक्षर, त्र्यक्षर आदि के क्रम से कांडयोजन है । अंत में परिशिष्टत कांड अव्ययों से संबंद्ध है । प्रत्येक कांड में दो प्रकार की शब्दक्रमयोजनाएँ हैं—(१) प्रथमाक्षरानुसारी और (२) 'अंतिमंक्षरानुसारी'। 'देशीनाममाला' प्राकृत का (और अंशतः अपभ्रंश का भी) शब्दकोश है जिसका आधार 'पाइयलच्छी' नाममाला है'।
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'''महेश्वर''' (११११ ई०) के दो कोश (१) [[विश्वप्रकाश]] और (२) [[शब्दभेदप्रकाश]] हैं । प्रथम नानार्थकोश है । जिसकी शब्दक्रम-योजना अमरकोश के समान 'अंत्याक्षरानुसारी है । इसके अध्यायों में एकाक्षर से लेकर 'सप्ताक्षर' तक के शब्दों का क्रमिक संग्रह है । तदनसार 'कैकक' आदि अध्याय भी है । अंत में अव्यय भी संगृहीत हैं । 'स्त्री', 'पुम्' आदि शब्दों के द्वारों नहीं अपितु शब्दों की पुनरुक्ति द्वारा लिंगनिर्देश किया गया है । इसमें अनेक पूर्ववर्ती कोशकारों के नाम— भोगींद्र, कात्यायन, साहसांक, वाचस्पति, व्याडि, विश्वरूप, अमर, मंगल, शुभांग, शुभांक, गोपालित (वोपालित) और भागुरि—निर्दिष्ट हैं । इस कोश की प्रसिद्ध, अत्यंत शीघ्र हो गई थी क्योंकि 'सर्वानंद'और 'हेमचंद्र' ने इनका उल्लेख किया है । इसे 'विश्वकोश' भी अधिकतः कहा जाता हैं । शब्दभेदप्रकाशिका वस्तुतः विश्वप्रकाश का परिशिष्ट है जिसमें शब्दभेद, बकारभेद, लिंगभेद आदि हैं ।
'''मंख पंडित''' (१२ वीं शती ई०) का
'''अजयपाल''' (लगभग १२ वीं—१३ वी शती के बीच) के नानार्थसंग्रह नामक कोश में १७३० श्लोक हैं । से देखने से जान पड़ता है कि शाश्वतकोश या अनेकार्थसमुच्चय के आधार पर इसकी रचना की गई है । उन्हीं का अनुकरण भी उसमें आभासता है । प्रत्येक अध्याय के अंत में अव्यय शब्द है । धनंजय (ई० १२ वी० शताब्दी उत्तरार्ध के आसपास अनुमानित) की नाममाला नामक कोशकृति है । यह लगउकोश है । नाममाल नाम के अनेक कोशग्रंथ मिलते हैं । इसमें केवल २०० श्लोक हैं । कुछ पांडुलिपियों में नानार्थ शब्द नहीं है पर एक में तत्सबंद्ध ५० श्लोक हैं ।
'''पुरुषोत्तमदेव''' (समय ११५९ ई० के पूर्व) — संस्कृत में पाँच कोंशों के निर्माता माने गए हैं
:'अंत्र' हि प्रयोगे बहुदश्वानां श्रुतिसाधारणमात्रेण गृहणातां खुरक्षुरप्रादौ खकराक्षकारयौः सिंहाशिंघानकादौ हकारघकारयौ..... तथः गौडा दिलिपि साधारण्याद् हिण्डीगुडोकेशादौ हकार—डकारयोः भ्रांतय उपजायन्तो । अतस्ताद्विवेचनाय क्वाचिद्धातुपरायणे धातुवृत्ति- पूजादिषु प्रव्यक्तलेखनेन प्रसिद्धी देशेन धातुप्रत्ययोणादिव्याख्यालेखनेन क्वचिदाप्तवंचनेन श्लेषादिदर्शनेन वर्णदेशनेमानभ्यते । (इंडिया आफित केटेलाग, पृ० २९४)। 'महाक्षपणक', 'महीधर' और 'वररुचि' के बनाए 'एकाक्षर' कोशों का समान 'पुरुषोत्तमदेव' ने भी एकाक्षर कोश बनाया जिसमें एक एक अक्षर के शब्द के अर्थ वर्णित हैं । द्विरूपकोश भी ७५ श्लोकों का लघुकोश है । नैषधकार 'श्रीहष' ने भी एक द्विरूपकोश लिखा था । '''केशवस्वामी''' (समय १२ वीं या १३ वीं शताब्दी) एक का
'''मेदिनिकर''' का समय लगभग १४ वी शताब्दी के आसापास या उससे कुछ पूर्ववती काल माना गया है । एक मत से ११७५ ई० के पूर्व भी इनका समय बताया जाता है । इनके कोश का नाम '[[नानार्थशब्दकोश]]' है
===मेदिनीकोश के अनन्तर के लघुकोश===
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