"जैन दर्शन": अवतरणों में अंतर

ce
पंक्ति 1:
{{distinguish|जैन धर्म}}
'''जैन दर्शन''' [[भारतीय दर्शन]] की [[नास्तिक दर्शन|नास्तिक दर्शन परम्परा]] की तीन प्रमुख धाराओं में से एक है। यह विचारधारा लगभग छठी शताब्दी ई॰ पू॰ में [[भगवान महावीर|महावीर जैन]] के द्वारा प्रारम्भ हुयी। इसमें [[वेद]] की प्रामाणिकता को [[कर्मकाण्ड]] की अधिकता और जड़ता के कारण अस्वीकार किया गया। इसमें [[अहिंसा]] को सर्वोच्च स्थान देते हुये तीर्थंकर के आदेशों का दृढ़ता से पालन करने का विधान है। यह विचारधारा मूलतः नैतिकता और मानवतावादी है। [[बौद्ध दर्शन|बौद्ध]] मध्यममार्ग को महत्व देते हैं तो यह तपस्या और साधना में अतिवाद को। इसके प्रमुख ग्रन्थ [[प्राकृत भाषा|प्राकृत]] (मागधी) भाषा में लिखे गये हैं। बाद में कुछ जैन विद्धानों ने [[संस्कृत]] में भी ग्रन्थ लिखे। उनमें १०० ई॰ मेंके लिखाआसपास '''[[उमास्वामी''']] काद्वारा रचित '''तत्त्वार्थाधिगमसूत्र''' बड़ा महत्वपूर्ण है। वह पहला ग्रन्थ है जिसमें संस्कृत भाषा के माध्यम से जैन सिद्धान्तों के सभी अङ्गों का पूर्ण रुप से वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् अनेक जैन विद्वानों ने संस्कृत में [[व्याकरण]], [[दर्शन]], [[काव्य]], [[नाटक]] आदि की रचनायेंरचना कीं।की।
'''जैन दर्शन''' [[भारतीय दर्शन]] की [[नास्तिक दर्शन|नास्तिक दर्शन परम्परा]] की तीन प्रमुख धाराओं में से एक है।
 
यह विचारधारा लगभग छठी शताब्दी ई॰ पू॰ में [[भगवान महावीर|महावीर जैन]] के द्वारा प्रारम्भ हुयी। इसमें [[वेद]] की प्रामाणिकता को [[कर्मकाण्ड]] की अधिकता और जड़ता के कारण अस्वीकार किया गया। इसमें [[अहिंसा]] को सर्वोच्च स्थान देते हुये तीर्थंकर के आदेशों का दृढ़ता से पालन करने का विधान है। यह विचारधारा मूलतः नैतिकता और मानवतावादी है। [[बौद्ध दर्शन|बौद्ध]] मध्यममार्ग को महत्व देते हैं तो यह तपस्या और साधना में अतिवाद को। इसके प्रमुख ग्रन्थ [[प्राकृत भाषा|प्राकृत]] (मागधी) भाषा में लिखे गये हैं। बाद में कुछ जैन विद्धानों ने [[संस्कृत]] में भी ग्रन्थ लिखे। उनमें १०० ई॰ में लिखा '''उमास्वामी''' का '''तत्त्वार्थाधिगमसूत्र''' बड़ा महत्वपूर्ण है। वह पहला ग्रन्थ है जिसमें संस्कृत भाषा के माध्यम से जैन सिद्धान्तों के सभी अङ्गों का पूर्ण रुप से वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् अनेक जैन विद्वानों ने संस्कृत में [[व्याकरण]], [[दर्शन]], [[काव्य]], [[नाटक]] आदि की रचनायें कीं।
 
जैन दर्शन इस संसार को किसी भगवान द्वारा बनाया हुआ स्वीकार नहीं करता है,अपितु शाश्वत मानता है। जन्म मरण आदि जो भी होता है, उसे नियंत्रित करने वाली कोई सार्वभौमिक सत्ता नहीं है। जीव जैसे कर्म करता हे, उन के परिणाम स्वरुप अच्छे या बुरे फलों को भुगतने क लिए वह मनुष्य, नरक देव, एवं तिर्यंच (जानवर) योनियों में जन्म मरण करता रहता है।
 
जीव और कर्मो का यह सम्बन्ध अनादि काल से नीर- क्षीरवत् जुड़ा हुआ है.है। जब जीव इन कर्मो से अपनी आत्मा को सम्पूर्ण रूप से कर्मो से मुक्त कर देता हे तो वह स्वयं भगवान बन जाता है.लेकिन इसके लिए उसे सम्यक पुरुषार्थ करना पड़ता है.यह जैन धर्म की मौलिक मान्यता है।
 
जैन दर्शन में अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन हुआ है,उतना किसी अन्य दर्शन में नहीं हुआ है.इसकाहै।इसका एक मुख्य कारणयहकारण यह है कीकि इसका प्ररूपण सर्वज्ञ-सर्वदर्शी (जिनके ज्ञान से संसार की कोई भी बात छुपी हुई नहीं है., अनादि भूतकाल और अनंत भविष्य के ज्ञाता-दृष्टा),वीतरागी ( जिनको किसी पर भी राग -द्वेष नहीं है) प्राणी मात्र के हितेच्छुक, अनंत अनुकम्पा युक्त जिनेश्वर भगवंतों द्वारा हुआ है। जिनके बताये हुए मार्ग पर चल कर प्रत्येक आत्मा अपना कल्याण कर सकती है।
 
अपने सुख और दुःख का कारण जीव स्वयं है ,कोई दूसरा उसे दुखी कर ही नहीं सकता.पुनर्जन्म ,पूर्वजन्म ,बंध-मोक्ष आदि जिनधर्म मानता है.अहिंसा, सत्य,तप ये इस धर्म का मूल है.नवतत्त्वों को समझ कर इसका स्वरुप जाना जा सकता है.नमस्कार सूत्र इस जैन दर्शन का सार है।