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{{सन्दूक हिन्दू धर्म}}
'''उपनिषद्''' हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण [[श्रुति]] [[धर्मग्रन्थ]] हैं । ये वैदिक वांग्मय के अभिन्न भाग हैं । इनमें [[परमेश्वर]], [[परमात्मा]]-[[ब्रह्म]] और [[आत्मा]] के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है । उपनिषद ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्त्रोत हैं, चाहे वो [[वेदान्त]] हो या [[सांख्य]] या [[जैन धर्म]] या [[बौद्ध धर्म]] । उपनिषदों को स्वयं भी वेदान्त कहा गया है । दुनिया के कई दार्शनिक उपनिषदों को सबसे बेहतरीन ज्ञानकोश मानते हैं । उपनिषद् भारतीय सभ्यता की विश्व को अमूल्य धरोहर है । मुख्य उपनिषद 12 या 13 हैं । हरेक किसी न किसी [[वेद]] से जुड़ा हुआ है । ये [[संस्कृत]] में लिखे गये हैं । १७वी सदी में [[दारा शिकोह]] ने अनेक उपनिषदों का [[फारसी]] में [[अनुवाद]] कराया। १९वीं सदी में जर्मन तत्त्ववेता [[शोपेनहावर]] और [[मैक्समूलर]] ने इन ग्रन्थों में जो रुचि दिखलाकर इनके अनुवाद किए वह सर्वविदित हैं और माननीय हैं।
 
== उपनिषद शब्द का अर्थ ==
'''उपनिषद्''' शब्द का साधारण अर्थ है - ‘समीप उपवेशन’ या 'समीप बैठना (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना)। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं: विवरण-नाश होना; गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना। उपनिषद् में ऋषि और शिष्य के बीच बहुत सुन्दर और गूढ संवाद है जो पाठक को [[वेद]] के मर्म तक पहुंचाता है।
 
== आध्यात्मिक चिंतन की अमूल्य निधि ==
उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक चिंतन के मूलाधार है, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन स्त्रोत हैं। वे ब्रह्मविद्या हैं। जिज्ञासाओं के ऋषियों द्वारा खोजे हुए उत्तर हैं। वे चिंतनशील ऋषियों की ज्ञानचर्चाओं का सार हैं। वे कवि-हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएँ हैं, अज्ञात की खोज के प्रयास हैं, वर्णनातीत परमशक्ति को शब्दों में बाँधने की कोशिशें हैं और उस निराकार, निर्विकार, असीम, अपार को अंतर्दृष्टि से समझने और परिभाषित करने की अदम्य आकांक्षा के लेखबद्ध विवरण हैं।
 
== उपनिषदकाल के पहले : वैदिक युग ==
वैदिक युग सांसारिक आनंद एवं उपभोग का युग था। मानव मन की निश्चिंतता, पवित्रता, भावुकता, भोलेपन व निष्पापता का युग था। जीवन को संपूर्ण अल्हड़पन से जीना ही उस काल के लोगों का प्रेय व श्रेय था। प्रकृति के विभिन्न मनोहारी स्वरूपों को देखकर उस समय के लोगों के भावुक मनों में जो उद्‍गार स्वयंस्फूर्त आलोकित तरंगों के रूप में उभरे उन मनोभावों को उन्होंने प्रशस्तियों, स्तुतियों, दिव्यगानों व काव्य रचनाओं के रूप में शब्दबद्ध किया और वे वैदिक ऋचाएँ या मंत्र बन गए। उन लोगों के मन सांसारिक आनंद से भरे थे, संपन्नता से संतुष्ट थे, प्राकृतिक दिव्यताओं से भाव-विभोर हो उठते थे। अत: उनके गीतों में यह कामना है कि यह आनंद सदा बना रहे, बढ़ता रहे और कभी समाप्त न हो। उन्होंने कामना की कि इस आनंद को हम पूर्ण आयु सौ वर्षों तक भोगें और हमारे बाद की पीढियाँ भी इसी प्रकार तृप्त रहें। यही नहीं कामना यह भी की गई कि इस जीवन के समाप्त होने पर हम स्वर्ग में जाएँ और इस सुख व आनंद की निरंतरता वहाँ भी बनी रहे। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न अनुष्ठान भी किए गए और देवताओं को प्रसन्न करने के आयोजन करके उनसे ये वरदान भी माँगे गए।जब प्रकृति करवट लेती थी तो प्राकृतिक विपदाओं का सामना होता था। तब उन विपत्तियों केकाल्पनिक नियंत्रक देवताओं यथा मरुत, अग्नि, रुद्र आदि को तुष्ट व प्रसन्न करने के अनुष्ठान किए जाते थे और उनसे प्रार्थना की जाती थी कि ऐसी विपत्तियों को आने न दें और उनके आने पर प्रजा की रक्षा करें। कुल मिलाकर वैदिक काल के लोगों का जीवन प्रफुल्लित, आह्लादमय, सुखाकांक्षी, आशावादी और‍ जिजीविषापूर्ण था। उनमें विषाद, पाप या कष्टमय जीवन के विचार की छाया नहीं थी। नरक व उसमें मिलने वाली यातनाओं की कल्पना तक नहीं की गई थी। कर्म को यज्ञ और यज्ञ को ही कर्म माना गया था और उसी के सभी सुखों की प्राप्ति तथा संकटों का निवारण हो जाने की अवधारणा थी। यह जीवनशैली दीर्घकाल तक चली। पर ऐसा कब तक चलता। एक न एक दिन तो मनुष्य के अनंत जिज्ञासु मस्तिष्क में और वर्तमान से कभी संतुष्ट न होने वाले मन में यह जिज्ञासा, यह प्रश्न उठना ही था कि प्रकृति की इस विशाल रंगभूमि के पीछे सूत्रधार कौन है, इसका सृष्टा/निर्माता कौन है, इसका उद्‍गम कहाँ है,हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं, यह सृष्टि अंतत: कहाँ जाएगी। हमारा क्या होगा? शनै:-शनै: ये प्रश्न अंकुरित हुए। और फिर शुरू हुई इन सबके उत्तर खोजने की ललक तथा जिज्ञासु मन-मस्तिष्क की अनंत खोज यात्रा।
 
== उपनिषदकालीन विचारों का उदय ==
ऐसा नहीं है कि आत्मा, पुनर्जन्म और कर्मफलवाद के विषय में वैदिक ऋषियों ने कभी सोचा ही नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि इस जीवन के बारे में उनका कोई ध्यान न था। ऋषियों ने यदा-कदा इस विषय पर विचार किया भी था। इसके बीज वेदों में यत्र-तत्र मिलते हैं, परंतु यह केवल विचार मात्र था। कोई चिंता या भय नहीं।आत्मा शरीर से भिन्न तत्व है और इस जीवन की समाप्ति के बाद वह परलोक को जाती है इस सिद्धांत का आभास वैदिक ऋचाओं में मिलता अवश्य है परंतु संसार में आत्मा का आवागमन क्यों होता है, इसकी खोज में वैदिक ऋषि प्रवृत्त नहीं हुए। अपनी समस्त सीमाओं के साथ सांसारिक जीवन वैदिक ऋषियों का प्रेय था। प्रेय को छोड़कर श्रेय की ओर बढ़ने की आतुरता उपनिषदों के समय जगी, तब मोक्ष के सामने ग्रहस्थ जीवन निस्सार हो गया एवं जब लोग जीवन से आनंद लेने के बजाय उससे पीठ फेरकर संन्यास लेने लगे। हाँ, यह भी हुआ कि वैदिक ऋषि जहाँ यह पूछ कर शांत हो जाते थे कि 'यह सृष्टि किसने बनाई है?' और 'कौन देवता है जिसकी हम उपासना करें'? वहाँ उपनिषदों के ऋषियों ने सृष्टि बनाने वाले के संबंध में कुछ सिद्धांतों का निश्चय कर दिया और उस 'सत' का भी पता पा लिया जो पूजा और उपासना का वस्तुत: अधिकार है। वैदिक धर्म का पुराना आख्यान वेद और नवीन आख्यान उपनिषद हैं।'वेदों में यज्ञ-धर्म का प्रतिपादन किया गया और लोगों को यह सीख दी गई कि इस जीवन में सुखी, संपन्न तथा सर्वत्र सफल व विजयी रहने के लिए आवश्यक है कि देवताओं की तुष्टि व प्रसन्नता के लिए यज्ञ किए जाएँ। 'विश्व की उत्पत्ति का स्थान यज्ञ है। सभी कर्मों में श्रेष्ठ कर्म यज्ञ है। यज्ञ के कर्मफल से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।' ये ही सूत्र चारों ओर गुँजित थे।दूसरे, जब ब्राह्मण ग्रंथों ने यज्ञ को बहुत अधिक महत्व दे दिया और पुरोहितवाद तथा पुरोहितों की मनमानी अत्यधिक बढ़ गई तब इस व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई और विरोध की भावना का सूत्रपात हुआ। लोग सोचने लगे कि 'यज्ञों का वास्तविक अर्थ क्या है?' 'उनके भीतर कौन सा रहस्य है?' 'वे धर्म के किस रूप के प्रतीक हैं?' 'क्या वे हमें जीवन के चरम लक्ष्य तक पहुँचा देंगे?' इस प्रकार, कर्मकाण्ड पर बहुत अधिक जोर तथा कर्मकाण्डों को ही जीवन की सभी समस्याओं के हल के रूप में प्रतिपादित किए जाने की प्रवृत्ति ने विचारवान लोगों को उनके बारे में पुनर्विचार करने को प्रेरित किया।
प्रकृति के प्रत्येक रूप में एक नियंत्रक देवता की कल्पना करते-करते वैदिक आर्य बहुदेववादी हो गए थे। उनके देवताओं में उल्लेखनीय हैं- इंद्र, वरुण, अग्नि, सविता, सोम, अश्विनीकुमार, मरुत, पूषन, मित्र, पितर, यम आदि। तब एक बौद्धिक व्यग्रता प्रारंभ हुई उस एक परमशक्ति के दर्शन करने या उसके वास्तविक स्वरूप को समझने की कि जो संपूर्ण सृष्टि का रचयिता और इन देवताओं के ऊपर की सत्ता है। इस व्यग्रता ने उपनिषद के चिंतनों का मार्ग प्रशस्त किया।
 
== उपनिषदों का स्वरूप ==
उपनिषद चिंतनशील एवं कल्पाशील मनीषियों की दार्शनिक काव्य रचनाएँ हैं। जहाँ गद्य लिख गए हैं वे भी पद्यमय गद्य-रचनाओं में ऐसी शब्द-शक्ति, ध्वन्यात्मकता, लव एवं अर्थगर्भिता है कि वे किसी दैवी शक्ति की रचनाओं का आभास देते हैं। यह सचमुच अत्युक्ति नहीं है कि उन्हें 'मंत्र' या 'ऋचा' कहा गया। वास्तव में मंत्र या ऋचा का संबंध वेद से है परंतु उपनिषदों की हमत्ता दर्शाने के लिए इन संज्ञाओं का उपयोग यहाँ भी कतिपय विद्वानों द्वारा किया जाता है। उपनिषद अपने आसपास के दृश्य संसार के पीछे झाँकने के प्रयत्न हैं। इसके लिए न कोई उपकरण उपलब्ध हैं और न किसी प्रकार की प्रयोग-अनुसंधान सुविधाएँ संभव है। अपनी मनश्चेतना, मानसिक अनुभूति या अंतर्दृष्टि के आधार पर हुए आध्यात्मिक स्फुरण या दिव्य प्रकाश को ही वर्णन का आधार बनाया गया है। उपनिषद अध्यात्मविद्या के विविध अध्याय हैं जो विभिन्न अंत:प्रेरित ऋषियों द्वारा लिखे गए हैं। इनमें विश्व की परमसत्ता के स्वरूप, उसके अवस्थान, विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के साथ उसके संबंध, मानवीय आत्मा में उसकी एक किरण की झलक या सूक्ष्म प्रतिबिंब की उपस्थिति आदि को विभिन्न रूपकों और प्रतीकों के रूप में वर्णित किया गया है।सृष्टि के उद्‍गम एवं उसकी रचना के संबंध में गहन चिंतन तथा स्वयंफूर्त कल्पना से उपजे रूपांकन को विविध बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। अंत में कहा यह गया कि हमारी श्रेष्ठ परिकल्पना के आधार पर जो कुछ हम समझ सके, वह यह है। इसके आगे इस रहस्य को शायद परमात्मा ही जानता हो और 'शायद वह भी नहीं जानता हो।'
 
संक्षेप में, वेदों में इस संसार में दृश्यमान एवं प्रकट प्राकृतिक शक्तियों के स्वरूप को समझने, उन्हें अपनी कल्पनानुसार विभिन्न देवताओं का जामा पहनाकर उनकी आराधना करने, उन्हें तुष्ट करने तथा उनसे सांसारिक सफलता व संपन्नता एवं सुरक्षा पाने के प्रयत्न किए गए थे। उन तक अपनी श्रद्धा को पहुँचाने का माध्यम यज्ञों को बनाया गया था।उपनिषदों में उन अनेक प्रयत्नों का विवरण है जो इन प्राकृतिक शक्तियों के पीछे की परमशक्ति या सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता से साक्षात्कार करने की मनोकामना के साथ किए गए। मानवीय कल्पना, चिंतन-क्षमता, अंतर्दृष्टि की क्षमता जहाँ तक उस समय के दार्शनिकों, मनीषियों या ऋषियों को पहुँचा सकीं उन्होंने पहुँचने का भरसक प्रयत्न किया। यही उनका तप था।
 
== विषय-वस्तु ==
[[वेद]] के चार भाग हैं - [[संहिता]], [[ब्राह्मण]], [[आरण्यक]] और उपनिषद् ।
 
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उपनिषद् ब्रह्म विद्या का द्योतक है। कहते हैं इस विद्या के अभ्यास से मुमुक्षुजन की अविद्या, नष्ट हो जाती है (विवरण); वह ब्रह्म की प्राप्ति करा देती है (गति); जिससे मनुष्यों के गर्भवास आदि सांसारिक दु:ख सर्वथा शिथिल हो जाते हैं (अवसादन) । फलत: उपनिषद् वे ‘तत्त्व’ प्रतिपादक ग्रंथ माने जाते हैं जिनके अभ्यास से मनुष्य को ब्रह्म अथवा परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
 
== १०८ उपनिषद एवं उनका वर्गीकरण ==
१०८ उपनिषदों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जाता है-
 
(१) '''ऋग्वेदीय''' -- १० उपनिषद्
 
(२) '''शुक्ल यजुर्वेदीय''' -- १९ उपनिषद्
 
(३) '''कृष्ण यजुर्वेदीय''' -- ३२ उपनिषद्
 
(४) '''सामवेदीय''' -- १६ उपनिषद्
 
(५) '''अथर्ववेदीय''' -- ३१ उपनिषद्
 
'''कुल''' -- १०८ उपनिषद्
 
इनके अतिरिक्त नारायण, नृसिंह, रामतापनी तथा गोपाल चार उपनिषद् और हैं।
 
=== मुख्य उपनिषद ===
विषय की गम्भीरता तथा विवेचन की विशदता के कारण १३ उपनिषद् विशेष मान्य तथा प्राचीन माने जाते हैं।
 
जगद्गुरु [[आदि शंकराचार्य]] ने १० पर अपना भाष्य दिया है- <br />
(१) ईश, (२) ऐतरेय (३) कठ (४) केन (५) छांदोग्य (६) प्रश्न (७) तैत्तिरीय (८) बृहदारण्यक (९) मांडूक्य और (१०) मुंडक।
 
उन्होने निम्न तीन को प्रमाण कोटि में रखा है- <br />
(१) श्वेताश्वतर (२) कौषीतकि तथा (३) मैत्रायणी।
 
अन्य उपनिषद् तत्तद् देवता विषयक होने के कारण 'तांत्रिक' माने जाते हैं। ऐसे उपनिषदों में शैव, शाक्त, वैष्णव तथा योग विषयक उपनिषदों की प्रधान गणना है।
 
=== प्रतिपाद्य विषय ===
डा. डासन, डा. बेल्वेकर तथा रानडे ने उपनिषदों का विभाजन प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से इस प्रकार किया है:
 
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१. कौषीतकि, २. मैत्री (मैत्राणयी) तथा ३. श्वेताश्वतर
 
=== भाषा तथा उपनिषदों के विकास क्रम के आधार पर ===
भाषा तथा उपनिषदों के विकास क्रम की दृष्टि से डा. डासन ने उनका विभाजन चार स्तर में किया है:
;१. गद्यात्मक उपनिषद्
१. ऐतरेय, २. केन, ३. छांदोग्य, ४. तैत्तिरीय, ५. बृहदारण्यक तथा ६. कौषीतकि; <br />
इनका गद्य ब्राह्मणों के गद्य के समान सरल, लघुकाय तथा प्राचीन है।
 
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अन्य अवांतरकालीन उपनिषदों की गणना इस श्रेणी में की जाती है।
 
== उपनिषदों की भौगोलिक स्थिति एवं काल ==
उपनिषदों की भौगोलिक स्थिति [[मध्यदेश]] के कुरुपांचाल से लेकर [[विदेह]] (मिथिला) तक फैली हुई है।
उपनिषदों के काल के विषय मे निश्चित मत नही है पर उपनिषदो का काल ३००० ईसा पूर्व से ३५०० ई पू माना गया है। वेदो का रचना काल भी यही समय माना गया है। उपनिषद् काल का आरम्भ [[महात्मा बुद्ध|बुद्ध]] से पर्याप्त पूर्व है। "ग्रेट एजेज आफ मैन" के सम्पादक इसे लगभग ८०० ई.पू. बतलाते हैं।
 
उपनिषदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। कुछ उपनिषदों को वेदों की मूल संहिताओं का अंश माना गया है। ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। कुछ उपनिषद ‘ब्राह्मण’ और ‘आरण्यक’ ग्रन्थों के अंश माने गये हैं। इनका रचनाकाल संहिताओं के बाद का है। उपनिषदों के काल के विषय मे निश्चित मत नही है समान्यत उपनिषदो का काल रचनाकाल ३००० ईसा पूर्व से ५०० ईसा पूर्व माना गया है। उपनिषदों के काल-निर्णय के लिए निम्न मुख्य तथ्यों को आधार माना गया है—
# पुरातत्व एवं भौगोलिक परिस्थितियां
# पौराणिक अथवा वैदिक ॠषियों के नाम
# सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी राजाओं के समयकाल
# उपनिषदों में वर्णित खगोलीय विवरण
 
निम्न विद्वानों द्वारा विभिन्न उपनिषदों का रचना काल निम्न क्रम में माना गया है<ref>Ranade 1926, pp. 13–14</ref>-
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|}</center>
 
== संदर्भ ==
<references/>
 
== इन्हें भी देखिये ==
* [[उपनिषद् सूची]]
 
* [[वेदान्त दर्शन]]
 
* [[वेदान्तसूत्र]] या [[ब्रह्मसूत्र]]
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/2337876.cms उपनिषदों ने आत्मनिरीक्षण का मार्ग बताया]
=== मूल ग्रन्थ ===
* [http://sanskrit.gde.to/doc_upanishhat/ Upanishads at Sanskrit Documents Site]
* [http://www.swargarohan.org/Upanishad/main.htm पीडीईएफ् प्रारूप, देवनागरी में अनेक उपनिषद]
पंक्ति 146:
* [http://titus.uni-frankfurt.de/indexe.htm?/texte/texte.htm TITUS]
 
=== अनुवाद ===
* [http://www.sacred-texts.com/hin/upan/index.htm Translations of major Upanishads]
* [http://www.bharatadesam.com/spiritual/upanishads/aitareya_upanishad.php 11 principal Upanishads with translations]
पंक्ति 152:
* [http://www.tititudorancea.com/z/vedanta.htm Upanishads and other Vedanta texts]
* [http://www.kavitakosh.org/mridul.htm डॉ मृदुल कीर्ति द्वारा उपनिषदों का हिन्दी काव्य रूपान्तरण]
* [http://www.celextel.org/108upanishads/ Complete translation on-line into English of all 108 Upaniṣad-s] [not only the 11 (or so) major ones to which the foregoing links are meagerly restricted]-- lacking, however, diacritical marks
* [http://hinduquotes.blogspot.com/ Quotes]
 
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{{भारतीय दर्शन}}
{{हिन्दू धर्म}}
[[hi:उपनिषद्]]
 
[[श्रेणी:वेद]]
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[[ar:الأوبانيشاد]]
[[bn:উপনিষদ্‌]]
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[[he:אופנישדות]]
[[kn:ಉಪನಿಷತ್]]
[[ko:우파니샤드]]
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[[lt:Upanišados]]
[[lv:Upanišadas]]
[[lt:Upanišados]]
[[ml:ഉപനിഷത്ത്]]
[[mr:उपनिषदे]]
[[or:ଉପନିଷଦ]]
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[[ne:उपनिषद्]]
[[new:उपनिषद धलः]]
[[nl:Upanishad]]
[[ja:ウパニシャッド]]
[[no:Upanishadene]]
[[nn:Upanisjad]]
[[ndsno:UpanischadenUpanishadene]]
[[or:ଉପନିଷଦ]]
[[pl:Upaniszady]]
[[pt:Upanixade]]
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[[ru:Упанишады]]
[[sa:उपनिषदः]]
[[sh:Upanišade]]
[[simple:Upanishad]]
[[sk:Upanišády]]
[[sl:Upinšade]]
[[ckb:ئوپانیشادەکان]]
[[sr:Упанишаде]]
[[sh:Upanišade]]
[[fi:Upanishad]]
[[sv:Upanishaderna]]
[[tl:Upanishad]]
[[ta:உபநிடதம்]]
[[te:ఉపనిషత్తు]]
[[th:อุปนิษัท]]
[[tl:Upanishad]]
[[tr:Upanişad]]
[[uk:Упанішади]]
[[ur:اپنیشد]]
[[vi:Áo nghĩa thư]]
[[fiu-vro:Upanišadiq]]
[[zh:奥义书]]