"कर्म योग": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
छो Robot: Interwiki standardization; अंगराग परिवर्तन |
छो Bot: अंगराग परिवर्तन |
||
पंक्ति 4:
'''कर्म योग''' ''योगा कर्मो किशलयाम'' अर्थात कर्म में लीन होना।
== कर्मयोग क्या है<ref>http://vishwahindusamaj.com/karmayoga.htm</ref> ==
इस योग में कर्म के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति की जाती है । श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है । गृहस्थ और कर्मठ व्यक्ति के लिए यह योग अधिक उपयुक्त है । हममें से प्रत्येक किसी न किसी कार्य में लगा हुआ है,
गीता में कहा गया है कि मन का समत्व भाव ही योग है जिसमें मनुष्य सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय, संयोग-वियोग को समान भाव से चित्त में ग्रहण करता है । कर्म-फल का त्याग कर धर्मनिरपेक्ष कार्य का सम्पादन भी पूजा के समान हो जाता है । संसार का कोई कार्य ब्रह्म से अलग नहीं है । इसलिए कार्य की प्रकृति कोई भी हो निष्काम कर्म सदा ईश्वर को ही समर्पित हो जाता है । पुनर्जन्म का कारण वासनाओं या अतृप्त कामनाओं का संचय है । कर्मयोगी कर्मफल के चक्कर में ही नहीं पड़ता, अत: वासनाओं का संचय भी नहीं होता । इस प्रकार कर्मयोगी पुनर्जन्म के बन्धन से भी मुक्त हो जाता है ।
पंक्ति 13:
गीता के अनुसार कर्मों से संन्यास लेने अथवा उनका परित्याग करने की अपेक्षा कर्मयोग अधिक श्रेयस्कर है। कर्मों का केवल परित्याग कर देने से मनुष्य सिद्धि अथवा परमपद नहीं प्राप्त करता। मनुष्य एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रहता। सभी अज्ञानी जीव प्रकृति से उत्पन्न सत्व, रज और तम, इन तीन गुणों से नियंत्रित होकर, परवश हुए, कर्मों में प्रवृत्त किए जाते हैं। मनुष्य यदि बाह्य दृष्टि से कर्म न भी करे और विषयों में लिप्त न हो तो भी वह उनका मन से चिंतन करता है। इस प्रकार का मनुष्य मूढ़ औरमिथ्या आचरण करनेवाला कहा गया है। कर्म करना मनुष्य के लिए अनिवार्य है। उसके बिना शरीर का निर्वाह भी संभव नहीं है। भगवान् कृष्ण स्वयं कहते हैं कि तीनों लोकों में उनका कोई भी कर्तव्य नहीं है। उन्हें कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त करनी नहीं रहती। फिर भी वे कर्म में संलग्न रहते हैं। यदि वे कर्म न करें तो मनुष्य भी उनके चलाए हुए मार्ग का अनुसरण करने से निष्क्रिय हो जाएँगे। इससे लोकस्थिति के लिए किए जानेवाले कर्मों का अभाव हो जाएगा जिसके फलस्वरूप सारी प्रजा नष्ट हो जाएगी। इसलिए आत्मज्ञानी मनुष्य को भी, जो प्रकृति के बंधन से मुक्त हो चुका है, सदा कर्म करते रहना चाहिए। अज्ञानी मनुष्य जिस प्रकार फलप्राप्ति की आकांक्षा से कर्म करता है उसी प्रकार आत्मज्ञानी को लोकसंग्रह के लिए आसक्तिरहित होकर कर्म करना चाहिए। इस प्रकार आत्मज्ञान से संपन्न व्यक्ति ही, गीता के अनुसार, वास्तविक रूप से कर्मयोगी हो सकता है।
== इन्हें भी देखें ==
* [[भक्ति योग]]
* [[ज्ञान योग]]
* [[राज योग]]
== सन्दर्भ ==
<references/>
|