"शिक्षा दर्शन": अवतरणों में अंतर

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[[शिक्षा]] का क्या प्रयोजन है और मानव जीवन के मूल उद्देश्य से इसका क्या संबंध है, यही '''शिक्षा दर्शन''' का विजिज्ञास्य प्रश्न है। चीन के दार्शनिक मानव को [[नीतिशास्त्र]] में दीक्षित कर उसे राज्य का विश्वासपात्र सेवक बनाना ही शिक्षा का उद्देश्य मानते थे। प्राचीन भारत में सांसारिक अभ्युदय और पारलौकिक कर्मकांड तथा लौकिक विषयों का बोध होता था और परा विद्या से नि:श्रेयस की प्राप्ति ही विद्या के उद्देश्य थे। अपरा विद्या से अध्यात्म तथा रात्पर तत्व का ज्ञान होता था। परा विद्या मानव की विमुक्ति का साधन मान जाती थी। गुरुकुलों और आचार्यकुलों में अंतेवासियों के लिये ब्रह्मचर्य, तप, सत्य व्रत आदि श्रेयों की प्राप्ति परमाभीष्ट थी और [[तक्षशिला]], [[नालंदा]], विक्रमशिला आदि विश्वविद्यालय प्राकृतिक विषयों के सम्यक् ज्ञान के अतिरिक्त नैष्ठिक शीलपूर्ण जीवन के महान् उपस्तंभक थे। भारतीय शिक्षा दर्शन का आध्यात्मिक धरातल विनय, नियम, आश्रममर्यादा आदि पर सदियों तक अवलंबित रहा।
 
== पाश्चात्य शिक्षादर्शन ==
[[प्लेटो]] (अफलातून) और अरस्तु दार्शनिक विचिंतन के समर्थक थे किंतु सांसारिक कर्म की उपेक्षा उन्हें इष्ट नहीं थी। प्लेटो का कहना है, बीस वर्ष की उम्र तक भावी राज्यशासकों को शारीरिक उन्नति, साहित्य, धर्मशास्त्र, पुरातत्व और संगीत की शिक्षा मिलनी चाहिए। बीस से तीस वर्ष तक रेखागणित, अंकगणित, ज्योतिर्गणित आदि का पारदर्शी ज्ञान उन्हें प्राप्त करना है। तीस से पैंतीस वर्ष तक उन्हें गंभीर दार्शनिक ऊहापोह कर प्रत्ययों (Ideas) का और शिवप्रत्यय (आयडिया ऑव दी गुड) का प्रकृष्ट ज्ञान प्राप्त करना है। गणित और दर्शन का इतना विशद ज्ञान प्राप्त करने पर भी सिर्फ चिंतन में निरत रहना उनका उद्देश्य नहीं है। दर्शन के उत्तुंग शिखर से उतरकर उन्हें फिर अज्ञानावृत्त संसार में आकर राज्य और समाज की बुराइयों का निराकरण करना है। पैंतीस से पचास वर्ष की अवस्था तक अवश्य ही उन्हें फिर अज्ञानावृत्त संसार में आकर राज्य और समाज की बुराइयों का निराकरण करना है। पैंतीस से पचास वर्ष की अवस्था तक अवश्य ही उन्हें राजकीय कर्मयोग का मार्ग अपनाना है और सामष्टिक कल्याण की सिद्धि करनी है। राजनीतिक दृष्टिकोण, प्लेटो की अपेक्षा अरस्तु में अधिक प्रबल है। मानव को राजनीतिक प्राणी मानकर शिक्षा को सदभ्यासप्राप्ति का वह परम साधन मानता है। विभिन्न नागरिकों में शिक्षा से ही राज्यनिमित्तक शील का विकास संभव है। शिक्षा से मानसिक उन्नयन तथा अवकाश का सदुपयोग होता है, ऐसा अरस्तु ने स्वीकार किया है किंतु प्लेटो के समान तात्विक और दार्शनिक शिक्षा पर उसने ध्यान नहीं दिया है। फिर भी प्लेटो की भाँति अरस्तु भी राज्य का पूरा नियंत्रण शिक्षा पर मानता है।
 
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संश्लिष्ट एवं पूर्ण शिक्षा (Integral and complete education) वही कही जा सकती है जो सदस्यों के अन्नमय कोष को तृप्त और बौद्धिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक आदर्शों का अभिज्ञापन भी करा सके। समस्त व्यापारों का मूलाधार शरीर है अत: इसकी मजबूती परमावश्यक है। पहलवानी या दंगलीपन कुछ व्यक्तियें के लिये ही ठीक है किंतु समस्त नागरिकों का शरीर अवश्य ही कष्टसहिष्णु वन सके, ऐसी शिक्षा आवश्यक है। मानववादी साहित्य और [[ललित कला]] की शिक्षा अधिक लोगों को मिलनी चाहिए। इससे बर्बरता का नाश और भावनाओं का संशोधन होता है। [[साहित्य]] का प्रयोजन वासनाओं का विलास नहीं किंतु स्वस्थ आनंद की सृष्टि और चारित्रिक उन्नयन है। वैयक्तिक और सामाजिक जीवन नैतिकता के बिना नहीं चल सकता। अत: [[नैतिक शिक्षा]] प्रारंभिक अवस्था से ही मिलनी चाहिए और इस कार्य में धर्मग्रथों के चुने हुए स्थलों का शिक्षण होना चाहिए। वर्तमान सभ्यता वैज्ञानिक और यांत्रिक है और आज कोई भी राष्ट्र उद्योग और विज्ञान की उपेक्षा कर न तो नागरिकों के जीवनस्तर को उठा सकता है और न अपनी सत्ता ही कायम कर सकता है। [[डार्विन]], [[हक्सले]], [[स्पेंसर]] आदि ने भी वैज्ञानिक शिक्षा का पक्ष ग्रहण किया था। एक अंश तक आरंभिक विज्ञान की शिक्षा समस्त नागरिकों को मिलनी चाहिए और कुछ नागरिक इसे प्रमुख व्यवसाय बनाकर इसमें परम वैशारद्य प्राप्त करें। बुद्धि की उन्मुक्ति सतत जागरूकता के द्वारा व्यक्त होती है अत: विश्वप्रवाह की नानामुख अभिव्यक्तियों के विषय में जिज्ञासापूर्ण कुतूहल सर्वदा संवर्धित रखना शिक्षित मानव का लक्ष्य है। किंतु कुछ नागरिक इतने से ही संतुष्ट न हो, निखिल देश और मानवता की सेवा में अपने स्वार्थ का विसर्जन ही शिक्षा का अंतिम उद्देश्य मानेंगे। मनुष्य एक सावयव इकाई है अत: शरीर, मन, बुद्धि, चरित्र, हृदय और आत्मा इन सभी की पूर्णता परमाभिप्रेत है। जीविकाप्राप्ति और समाज के साथ सामंजस्य, तथा भद्र व्यक्तित्व की शिक्षा की इयत्ता नहीं बताते। मानव का सर्वविध विनिर्मुक्त विकास और पूर्णताप्राप्ति ही समग्र शिक्षा का उद्देश्य है।
 
== प्राचीन भारतीय शिक्षा दर्शन ==
जीवन-दर्शन और शिक्षा-दर्शन के मध्य वैषम्य की कोई कल्पना नहीं की जा सकती है। वे एक-दूसरे के पूरक हैं और एक-दूसरे को प्रभावित भी करते हैं। जीवन-दर्शन की दृष्टि से प्राचीन भारतीय दर्शन के विभिन्न कालों के बीच गहरी रेखायें नहीं खींची जा सकती हैं। प्राचीन भारत की संस्कृति शाश्वत और सतत् रही है, अविभाज्य रही है। विद्वानों ने वैदिक संस्कृति से महाकाव्य (रामायण और महाभारत) कालीन संस्कृति में प्राथक्य स्थापित करने के प्रयत्न किये हैं; किन्तु बाद वाले काल में भी वैदिक संस्कृति और जीवन शैली का स्पष्ट प्रभाव है; साम्य भी है। वैदिक जीवन शैली महाकाव्यकालीन जीवन शैली में प्राचुर्य है। यह सत्य है कि रामायण और महाभारत में वर्णित कुछ जीवन पद्धतियाँ वैदिक काल में नहीं हैं। अत: वेदकालीन जीवन-दर्शन का अस्तित्व पृथक से स्वीकार किया जा सकता है। इसी तारतम्य में यदि हम महाकाव्यकालीन युग का पृथक अस्तित्व भी स्वीकार करते हैं तब भी वैदिक संस्कारों का युग में भी विद्यमान होना स्वीकार करना ही होगा।
 
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गुरु का महत्व अत्यधिक था। शिक्षा, शिल्प-केन्द्रित थी। ऋषियों के अपने आश्रम थे। आश्रम उनके ही नाम से विख्यात थे। उनके स्थान निश्चित थे। गुरु परंपरा में एक पीढ़ी के पश्चात् दूसरी पीढ़ी आती रहती थी।
 
== इन्हें भी देखें ==
* [[महर्षि अरविन्द का शिक्षा दर्शन]]
* [[महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन]]
* [[भारतीय शिक्षाशास्त्रियों के विचार]]
* [[शिक्षाशास्त्री]]
* [[पाठ्यक्रम]]
* [[शैक्षिक मनोविज्ञान]]
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://www.shodh-prakalp.com/ गांधीजी के शिक्षा दर्शन की प्रासंगिकता वर्तमान परिप्रेक्ष्य में]
* [http://www.golwalkarguruji.org/thoughts-9 श्रीगुरुजी का शिक्षा दर्शन]
* [http://tdil.mit.gov.in/ggs/GyanGanga%28HTML%29/gyanganga/ttttt.htm ज्ञनगंगा]
* [http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/special07/gandhi/0710/02/1071002040_1.htm गाँधी का रमणीय वृक्ष और भारतीय शिक्षा ]
* [http://books.google.co.in/books?id=DBbPcgrTC-QC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन] (गूगल पुस्तक ; लेखक - देवेन्द्र स्वरूप)
* [http://books.google.co.in/books?id=4etIT5P1NNoC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false आधुनिक भारत में शैक्षिक चिन्तन] (गूगल पुस्तक ; लेखक - हरिराम जासटा)
* [http://plato.stanford.edu/entries/education-philosophy/ "Philosophy of Education". In ''Stanford Encyclopedia of Philosophy'']
* [http://www.vusst.hr/ENCYCLOPAEDIA/main.htm ''Encyclopedia of Philosophy of Education'']
* [http://www.ibe.unesco.org/en/services/publications/thinkers-on-education.html Thinkers of Education. UNESCO-International Bureau of Education website]
* [http://www2.siba.fi/ispme_symposium/index.php?id=1&la=fi International Society for Philosophy of Music Education]
* [http://www.bhartiyapaksha.com/?p=3189 स्कूल कब बनेगा घर]
* [http://www.bharatiyashiksha.com/?p=383 उच्च शिक्षा की दशा एवं दिशा] (भारतीय शिक्षा ब्लॉग)
* [http://shrishshankhdhar.blogspot.in/2011/01/blog-post.html शिक्षा और दर्शन का संबन्ध]
* [http://books.google.co.in/books?id=2xGMyivp97UC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false शिक्षा दर्शन] (गूगल पुस्तक ; लेखक - रामनाथ शर्मा, राजेन्द्र कुमार शर्मा)
 
[[श्रेणी:दर्शन]]