"हास्यरस तथा उसका साहित्य (संस्कृत, हिन्दी)": अवतरणों में अंतर

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भारतीय काव्याचार्यों ने रसों की संख्या प्राय: नौ ही मानी है क्योंकि उनके मत से नौ भाव ही ऐसे हैं जो मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों से घनिष्ठतया संबंधित होकर स्थायित्व की पूरी क्षमता रखते हैं और वे ही विकसित होकर वस्तुत: रस संज्ञा की प्राप्ति के अधिकारी कहे जा सकते हैं। यह मान्यता विवादास्पद भी रही है, परंतु हास्य की रसरूपता को सभी से निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है। मनोविज्ञान के विशेषज्ञों ने भी हास को मूल प्रवृत्ति के रूप में समुचित स्थान दिया है और इसके विश्लेषण में पर्याप्त मनन चिंतन किया है। इस मनन चिंतन को पौर्वात्य काव्याचार्यों की अपेक्षा पाश्चात्य काव्याचार्यों ने विस्तारपूर्वक अभिव्यक्ति दी है, परंतु फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने इस तत्व का पूरी व्यापकता के साथ अध्ययन कर लिया है और या हास्यरस या हास की काव्यगत अभिव्यंजना की ही कोई ऐसी परिभाषा दे दी है जो सभी सभी प्रकार के उदाहरणों को अपने में समेट सके। भारतीय आचार्यों ने एक प्रकार के सूत्ररूप में ही इसका प्रख्यापन किया है किंतु उनकी संक्षिप्त उक्तियों में पाश्चात्य समीक्षकों के प्राय: सभी निष्कर्षों और तत्वों का सरलतापूर्वक अंतर्भाव देखा जा सकता है।
 
== परिभाषा ==
हास्यरस के लिए [[भरतमुनि]] का [[नाट्यशास्त्र]] कहता है-
 
: विपरीतालङ्कारैर्विकृताचाराभिधान वेसैश्च
: विकृतैरर्थविशेषैहंसतीति रस: स्मृतो हास्य:।।
 
[[भावप्रकाश]] में लिखा है-
 
: प्रीतिर्विशेष: चित्तस्य विकासो हास उच्यते।
 
[[साहित्यदर्पण]]कार का कथन है-
 
: वर्णदि वैकृताच्चेतो विकारो हास्य इष्यते
 
इसी प्रकार-
: विकृताकारवाग्वेशचेष्टादे: कुहकाद् भवेत्।।
 
[[दशरूपक]]कार की उक्ति है-
 
: विकृताकृतिवाग्वेरात्मनस्यपरस्य वा
: हास: स्यात् परिपोषोऽस्य हास्य स्त्रिप्रकृति: स्मृत:।।
 
तात्पर्य यह है कि हास एक प्रीतिपरक भाव है और चित्तविकास का एक रूप है। उसका उद्रेक विकृत आकार, विकृत वेष, विकृत आचार, विकृत अभिधान, विकृत अलंकार, विकृत अर्थविशेष, विकृत वाणी, विकृत चेष्टा आदि द्वारा होता है - इन विकृतियों से युक्त हास्यपात्रता चाहे अभिनेता की हो, चाहे वक्ता की हो, चाहे अन्य किसी की हो। विकृति का तात्पर्य है प्रत्याशित से विपरीत अथवा विलक्षण कोई ऐसा वैचित्र्य, कोई ऐसा बेतुकापन, जो हमें प्रीतिकर जान पड़े, क्लेशकर न जान पड़े। इन लक्षणों में पाश्चात्य समीक्षकों के प्राय: सभी लक्षण समाविष्ट हो जाते हैं, जहाँ तक उनका संबंध हास्य विषयों से है। ऐसा हास जब विकसित होकर हमें कविकौशल द्वारा साधारणीकृत रूप में, अथवा आचार्य पं. रामचंद्र शुक्ल की शब्दावली के अनुसार, मुक्त दशा में प्राप्त होता है, वह हास्यरस कहलाता है।
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हास के भाव का उद्रेक देश-काल-पात्र-सापेक्ष रहता है। घर पर कोई खुली देह बैठा हो तो दर्शक को हँसी न आवेगी परंतु उत्सव में भी वह इसी तरह पहुँच जाए तो उसका आचरण प्रत्याशित से विपरीत या विकृत माना जाने के कारण हँसी जगा देगा; उसका व्यवहार हास की जननी हो जाएगा। युवा व्यक्ति शृंगार करे तो फबने की बात है किंतु जर्जर बुड्ढे का शृंगार हास का कारण होगा; कुर्सी से गिरनेवाले पहलवान पर हम निश्चित ही हँसने लगेंगे परंतु छत से गिरनेवाले बच्चे पर हमारी करुणापूर्ण सहानुभूति ही उमड़ेगी। यह पहले ही कहा गया है कि हास का आधार प्रीति पर होता है न कि द्वेष पर, अतएव यदि किसी की प्रकृति, प्रवृत्ति, स्वभाव, आचार आदि की विकृति पर कटाक्ष भी करना हो तो वह कटुक्ति के रूप में नहीं किंतु प्रियोक्ति के रूप में होगी, उसकी तह में जलन अथवा नीचा दिखाने की भावना न होकर विशुद्ध संशुद्धि की भावना होगी। संशुद्धि की भावनावाली यह प्रियोक्ति भी उपदेश की शब्दावली में नहीं किंतु रंजनता की शब्दावली में होगी।
 
== हास्य के भेद ==
हास्य के भेदों पर भी आचार्यों ने विचार किया है। उन्होंने हास्य के दो भेद किए हैं। एक है आत्मस्थ और दूसरा है परस्थ। हास्यपात्र की दृष्टि से आत्मस्थ हास्य है स्वत: उस पात्र का हँसना और परस्थ हास्य है दूसरों को हँसाना। सामाजिकों या सहृदय श्रोताओं, अथवा नाट्यदर्शकों की दृष्टि से आत्मस्थ हास्य है अन्यों की हँसी के बिना स्वत: उनमें उद्भुत हास्य और परस्थ हास्य है दूसरों को हँसता हुआ देखकर उनमें उत्पन्न हास्य। दृष्टिकोणों का यह अंतर समझ लेने पर इन दोनों शब्दों के अर्थों का विचार सरलतापूर्वक समाप्त किया जा सकता है।
 
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प्रभाव की दृष्टि से हमारी समझ में हास्यरस या तो विशेषत: परिहास की कोटि का होता है या उपहास की कोटि का। इन दोनों शब्दों को हमने परंपरागत अर्थ में सीमाबद्ध नहीं किया है। जो संतुष्टि प्रधान काव्य है उसे हम परिहास की कोटि का मानते हैं और जो संशुद्धि प्रधान है उसे उपहास की कोटि का। अनेक रचनाओं में दोनों का मिश्रण भी हुआ करता है। परिहास और उपहास दोनों के लिए सामाजिकों की सुरुचि का ध्यान रखना आवश्यक है। मांसल शृंगारपरक हास, आजकल के शिष्ट समाज को रुचिकर नहीं हो सकता। देवता विषयक व्यंग सहधर्मियों को ही हँसाने के लिए हुआ करता है। उपहास के लिए सुरुचि का ध्यान अत्यंत आवश्यक है। मजा इसमें ही है कि हास्यपात्र (चाहे वह व्यक्ति हो या समाज) अपनी त्रुटियाँ समझ ले परंतु संकेत देनेवाले का अनुगृहीत भी हो जाए और उसे उपदेष्टा के रूप में न देखे। बिना व्यंग के हास को परिहास समझिए, चाहे वह वर्णनात्मक हो चाहे वार्तालाप की कोटि का, और अपने पर अथवा अन्य पर, विशेषत: अन्य पर, व्यंग करके जो प्रभाव दिखाया जाता है वह उपहास है ही। बिट, ह्यूमर, पैरोडी आदि के सहारे उत्पन्न वह हास जो विशुद्ध संतुष्टि की कोटि का है, परिहास ही कहा जाएगा। अनुभाव की दृष्टि से हास्यरस को मृदुहास की कोटि का समझना चाहिए या अट्टास की कोटि का। हसित, अपहसित आदि अन्य कोटियों का इन्हीं दोनों में अंतर्भाव मान लेना चाहिए। मृदुहास के दो भी किए जा सकते हैं, एक है गुप्त हास जिसका आनंद मन ही मन लिया जाता है और दूसरा है स्फुट हास जिसका मुस्कराहट आदि के रूप में अन्य जन भी दर्शन कर सकते हैं। अट्टहास के भी दो भेद किए जा सकते हैं-एक है मर्यादित हास जो हँसनेवाले की परिस्थिति से नियंत्रित रहता है और दूसरा है अमर्यादित हास जिसमें परिस्थिति सापेक्षता का भान नहीं रहता। हास्य के भेदों का यह विवेचन संभवत: अधिक वैज्ञानिक होगा।
 
== संस्कृत में हास्य साहित्य ==
नाटकों में प्रहसन की विधा और विदूषक की उपस्थिति ने हास्य का सृजन किया है किंतु वह बहुमुखी नहीं होने पाया। सुभाषित के कई श्लोक अवश्य अच्छे बन पड़े हैं जिनमें विषय और उक्ति दोनों दृष्टियों से हास्य की अच्छी अवतारणा की गई है। कुछ उदाहरण दे देना अप्रासंगिक न होगा।
 
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नो वा जानंति केचिन्नवकृत मितिचेद्देहि लक्षं ततो मे।।
 
== हिन्दी में हास्य साहित्य ==
हिंदी के वीरगाथाकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल प्राय: पद्यों के ही काल रहे हैं। इस लंबे काल में हास्य की रचनाएँ यदा कदा होती ही रही हैं परंतु वे प्राय: फुटकर ढंग की ही रचनाएँ रही हैं। तुलसीदास जी के रामचरिमानस का नारदमोह प्रसंग शिवविवाह प्रसंग, परशुराम प्रसंग आदि और सूरदास जी के सूरसागर का माखनचोरी प्रसंग, उद्धव-गोपी-संवाद प्रसंग आदि अलबत्ता हास्य के अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। तुलसीदास जी का निम्न छंद, जिसमें जराजर्जर तपस्वियों की शृंगारलालसा पर मजेदार चुटकी ली गई है, अपनी छटा में अपूर्व है-
 
: विंध्य के वासी उदासी तपोव्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे
: गौतम तीय तरी तुलसी सो कथा सुनि भे मुनिवृंद सुखारे।
: ह्वै हैं सिला सब चंद्रमुखी, परसे पद मंजुल कंज तिहारे
: कीन्हीं भली रघुनायक जू जो कृपा करि कानन को पगु धारे।।
 
बीरबल के चुटकुले, लाल बुझक्कड़ के लटके, घाघ और भड्डरी की सूक्तियाँ, गिरधर कविराय और गंग के छंद, बेनी कविराज के भड़ौवे तथा और भी कई रचनाएँ इस काल की प्रसिद्ध हैं। भारतजीवन प्रेस ने इस काल की फुटकर हास्य रचनाओं का कुछ संकलन अपने "भड़ोवा संग्रह" में प्रकाशित किया था। इस काल में, विशेषत: दान के प्रसंग को लेकर, कुछ मार्मिक रचनाएँ हुई हैं जिनकी रोचकता आज भी कम नहीं कही जा सकती। उदाहरण देखिए -
 
: चीटे न चाटते मूसे न सूँघते, बांस में माछी न आवत नेरे,
: आनि धरे जब से घर मे तबसे रहै हैजा परोसिन घेरे,
: माटिहु में कछु स्वाद मिलै, इन्हैं खात सो ढूढ़त हर्र बहेरे,
: चौंकि परो पितुलोक में बाप, सो आपके देखि सराध के पेरे।।
 
एक सूम ने संकट में तुलादान करना कबूल कर लिया था। उसके लिए अपना वजन घटाने की उसकी तरकीबें देखिए -
 
: बारह मास लौं पथ्य कियो, षट मास लौं लंघन को कियो कैठो
: तापै कहूँ बहू देत खवाय, तो कै करि द्वारत सोच में पैठो
: माधौ भनै नित मैल छुड़ावत, खाल खँचै इमि जात है ऐंठो
: मूछ मुड़ाय कै, मूड़ घोटाय कै, फस्द खोलाय, तुला चढ़ि बैठो।।
 
वर्तमान काल में हास्य के विषयों और उनकी अभिव्यक्ति करने की शैलियों का बहुत विस्तार हुआ है। इस युग में पद्य के साथ ही गद्य की भी अनेक विधाओं का विकास हुआ है। प्रमुख हैं नाटक तथा एकांकी, उपन्यास तथा कहानियाँ, एवं निबंध। इन सभी विधाओं में हास्यरस के अनुकूल प्रचुर मात्रा में साहित्य लिखा गया और लिखा जा रहा है। प्रतिभाशाली लेखकों ने पद्य के साथ ही गद्य की विविध विधाओं में भी अपनी हास्यरसवर्धिनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। इस युग के प्रारंभिक दिनों के सर्वाधिक यशस्वी साहित्यकार हैं भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र। इनके नाटकों में विशुद्ध हास्यरस कम, वाग्वैदग्ध्य कुछ अधिक और उपहास पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति", "अंधर नगरी" आदि उनकी कृतियाँ हैं। उनका "चूरन का लटका" प्रसिद्ध है। उनके ही युग के लाला [[श्रीनिवास दास]], श्री [[प्रतापनारायण मिश्र]], श्री [[राधाकृष्णदास]], श्री [[प्रेमधन]], श्री [[बालकृष्ण भट्ट]] आदि ने भी हास्य की रचनाएँ की हैं। श्री प्रतापनारायण मिश्र ने "कलिकौतुक रूपक" नामक सुंदर प्रहसन लिखा है। "बुढ़ापा" नामक उनकी कविता शुद्ध हास्य की उत्तम कृति है।
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अन्य भाषाओं की कई विशिष्ट कृतियों के अनुवाद भी हिंदी में हो चुके हैं। केलकर के "सुभाषित आणि विनोद" नामक गवेषणापूर्ण मराठी ग्रंथ के अनुवाद के अतिरिक्त मोलिये के नाटकों का, "गुलिवर्स ट्रैवेल्स" का, "डान क्विकज़ोट" का, सरशार के "फिसानए आज़ाद" का, रवींद्रनाथ टैगोर के नाट्यकौतुक का, परशुराम, अज़ीमबेग चग़ताई आदि की कहानियों का, अनुवाद हिंदी में उपलब्ध है।
 
== इन्हें भी देखें ==
* [[प्रहसन]]
* [[विदूषक]]
* [[विश्व हास्य दिवस]]
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://mihirpandya.com/2010/12/top-15-comedy-films/ हिन्दी सिनेमा इतिहास की पंद्रह सर्वश्रेष्ठ हास्य फ़िल्में]
 
[[श्रेणी:साहित्य]]