"हिन्दी व्याकरण का इतिहास": अवतरणों में अंतर

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[[हिन्दी]] भाषा का [[व्याकरण]] लिखने के प्रयास काफी पहले आरम्भ हो चुके थे। अद्यतन जानकारी के अनुसार [[हिन्दी व्याकरण]] का सबसे पुराना ग्रंथ बनारस के [[दामोदर पण्डित]] द्वारा रचित द्विभाषिक ग्रंथ [[उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण]] सिद्ध होता है।<ref>{{cite book |last=चटर्जी |first=डॉ. सुनीति कुमार |title=सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ग्रंथांक 39, 1953 (लेख का शीर्षक-पण्डित दामोदर विरचित "उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण" |year=जनवरी 2002 |publisher=भारतीय विद्याभवन, |location=मुम्बई|id= |page= |accessday=10 |accessmonth= जुलाई|accessyear=2009 }}</ref> यह बारहवीं शताब्दी का है। यह समय हिंदी का क्रमिक विकास इसी समय से प्रारंभ हुआ माना जाता है। इस ग्रंथ में हिन्दी की पुरानी कोशली या अवधी बोली बोलने वालों के लिए संस्कृत सिखाने वाला एक मैनुअल है, जिसमें पुरानी अवधी के व्याकरणिक रूपों के समानान्तर संस्कृत रूपों के साथ पुरानी कोशली एवं संस्कृत दोनों में उदाहरणात्मक वाक्य दिये गये हैं। 'कोशली' का लोक प्रचलित नाम वर्तमान में 'अवधी' या 'पूर्वीया हिन्दी' है। १६७५ई. से कुछ पूर्व ब्रज भाषा के व्याकरण का एक ग्रंथ मिर्ज़ा ख़ान इब्न फ़ख़रूद्दीन मुहम्मद द्वारा लिखा गया है। १६ पृष्ठों के [[तुहफ़तुल हिन्द]] नामक इस संक्षिप्त ग्रंथ में हिन्दी साहित्य के विविध विषयों का विवेचन है जो क्रमशः इस प्रकार हैं - व्याकरण, छन्द, तुक, अलंकार, शृंगार रस, संगीत, कामशास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र और शब्दकोष। १८९८ में एक डच विद्वान [[योन योस्वा केटलार]] द्वारा लिखे गए हिंदी व्याकरण के प्रमाण भी मिलते हैं। हिंदी विद्वान सुनीति कुमार चटर्जी भी अपने लेखों में इस ग्रंथ का उल्लेख मिलता है।
 
== अठारहवीं शताब्दी के हिन्दी व्याकरण ==
 
केटलार व्याकरण के लैटिन अनुवाद के प्रकाशन के एक वर्ष बाद ही प्रख्यात मिशनरी बेंजामिन शुल्ट्स का '''[[ग्रामाटिका हिन्दोस्तानिका]]''' Grammtica Hindostanica (हिन्दुस्तानी व्याकरण) सन् 1744 में प्रकाशित हुआ । यह व्याकरण लैटिन भाषा में है, जिसका पाँच पंक्तियों का पूर्ण शीर्षक डॉ. ग्रियर्सन ने Linguistic Survey of India, Vol IX, Part I के पृ. 8 पर दिया है । शुल्ट्स को केटलार व्याकरण की जानकारी थी और अपनी भूमिका में इसका उल्लेख किया । हिन्दुस्तानी शब्द फारसी/अरबी लिपि में रोमन लिप्यंतरण सहित दिये गये हैं । देवनागरी लिपि की भी व्याख्या है । मूर्घन्य अक्षरों की ध्वनि की उसने उपेक्षा की है और (लिप्यंतरण में) सभी महाप्राण अक्षरों की । पुरुषवाचक सर्वनामों के एकवचन और बहुवचन रूपों का उसे ज्ञान था, परन्तु सकर्मक क्रियाओं के भूतकाल में कर्ता में प्रयुक्त 'ने' विभक्ति के बारे में वह अनभिज्ञ था ।
 
सन् 1771 में कापुचिन मिशनरी कासिआनो बेलिगाति द्वारा भाषा में लिखित "Alphabetum Brammhanicum" रोम से प्रकाशित हुआ । इसमें नागरी के साथ-साथ भारत की अन्य प्रमुख लिपिओं को चल टाइपों में मुद्रित किया गया है और इन पर विस्तृत विवेचना की गयी है । इसके भूमिका-लेखक Johannes Christophorus Amaditius (Amaduzzi) ने भारतीय भाषाओं के बारे में उस समय वर्तमान ज्ञान का सम्पूर्ण विवरण दिया है ।
 
यह बहुत प्रसन्नता की बात है कि केटलार व्याकरण के लैटिन अनुवाद, शूल्ट्स व्याकरण एवं Alphabetum Brammhanicum के भूमिका सहित नागरी लिपि संबंधी अंश का हिन्दी अनुवाद अभी उपलब्ध है ।16 हिन्दी भाषा एवं लिपि के अध्ययन के लिए इन तीनों प्राचीनतम कृतियों का ऐतिहासिक महत्त्व है ।
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जार्ज हेडली (Hadley) का व्याकरण सन् 1772 में लंदन से प्रकाशित हुआ । इसके तरन्त बाद इससे बेहतर व्याकरण प्रकाशित हुए, जैसे - किसी अज्ञात लेखक का पोर्तुगीज़ भाषा में Gramatica Indostana रोम से 1778 में, जो हेडली के व्याकरण की अपेक्षा बहुत विकसित था । कलकत्ते के फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष डॉ. जॉन बॉर्थविक गिलक्राइस्ट का "A Grammar of the Hindoostanee Language" सन् 1796 में प्रकाशित हुआ । यह व्याकरण उनके "A System of Hindoostanee Philology", खंड-1 का तीसरा भाग था ।
 
== सिपाही विद्रोह (1857) के पूर्व उन्नीसवीं शताब्दी के हिन्दी व्याकरण ==
 
इस अवधि में प्रकाशित व्याकरणों की विस्तृत सूची ग्रियर्सन ने Languistic Survey of India, Vol. IX, Part 1 में दी है । यहाँ कुछ व्याकरणों का ही उल्लेख किया जायेगा । सन् 1801 में हेरासिम लेबेदेफ़ द्वारा लिखित "A Grammar of the pure and mixed East Indian Dialects" लंदन से प्रकाशित हुआ ।17 इसमें लेखक ने अपनी जीवनी भी दी है । 'प्रेमसागर' के रचयिता लल्लू लाल का ब्रज भाखा व्याकरण सन् 1811 में कलकत्ते से प्रकाशित हुआ । जॉन शेक्सपियर का "A Grammar of the Hindustani Language" लंदन से 1813 में छपा (पाँचवा संस्करण 1846 में, और बाद में 1858 में) कैप्टन विलियम प्राइस का "A new Grammar of the Hindustani Language" लंदन से 1827 में प्रकाशित हुआ । विलियम याटेस का "Introduction to the Hindustani Language" कलकत्ते से 1827 में छपा, जिसका छठा संस्करण 1855 में प्रकाशित हुआ । इसका 1836 का संस्करण डेक्कन कॉलेज, पुणे के पुस्तकालय में उपलब्ध है । इसकी भूमिका में लेखक का कहना है कि हिन्दुस्तानी मुस्लिम लोगों की भाषा है, जबकि हिन्दी हिन्दुओं की । रेवरेंड एम टी ऐडम का "हिन्दी भाषा का व्याकरण" कलकत्ते से 1827 में प्रकाशित हुआ । यह व्याकरण प्रश्न एवं उत्तर के रूप में बच्चों के लिए लिखा गया था । यह पुस्तक कई वर्षों तक स्कूलों में प्रचलित रही ।
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डंकन फोर्बेस ने 1845 में "The Hindustani Manual" लिखा जो लन्दन से प्रकाशित हुआ । इसका 1858 का संस्करण "Grammar of Hinduatani Language" डेक्कन कॉलेज, पुणे में उपलब्ध है । देवी प्रसाद का "Polyglot Grammar and Exercises in Persian, English, Arabic, Hindee, Oordoo and Bengali" कलकत्ते से 1854 में प्रकाशित हुआ ।
 
== सिपाही विद्रोह (1857) के पश्चात् उन्नीसवीं शताब्दी के हिन्दी व्याकरण ==
 
सिपाही विद्रोह के बाद शिक्षा विभाग की स्थापना होने पर पं. रामजसन की "भाषा-तत्त्व-बोधिनी" प्रकाशित हुई, जिसमें कहीं-कहीं हिन्दी और संस्कृत की मिश्रित प्रणालियों का प्रयोग किया गया । इसके बाद पं. श्रीलाल का "भाषा चंद्रोदय" प्रकाशित हुआ, जिसमें हिन्दी व्याकरण के कुछ अधिक नियम थे । फिर सन् 1869 ई. में बाबू नवीनचंद्र राय कृत "नवीन-चंद्रोदय" निकला, जिसमें 'भाषा चंद्रोदय' के बारे में टिप्पणी भी थी । इसके पश्चात् मराठी और संस्कृत व्याकरण के आधार पर और बहुत कुछ अंग्रेजी ढंग पर पं. हरिगोपाल पाध्ये ने अपनी 'भाषा-तत्त्व-दीपिका' लिखी । लेखक के महाराष्ट्रीय होने के कारण इस पुस्तक में स्वभावतः मराठीपन पाया जाता है ।
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सन् 1876 में इलाहाबाद और कलकत्ते से S.H. केलॉग का "A Grammar of the Hindi Language" प्रकाशित हुआ, जिसका परवर्द्धित तृतीय संस्करण 1938 में निकला । इसमें उच्च हिन्दी के साथ-साथ ब्रज एवं तुलसीदासकृत रामचरितमानस की पूर्वी हिन्दी एवं राजपुताना, कुमाउँ, अवध, रिवा, भोजपुर, मगध, संबंधी विस्तृत नोट भी हैं । तृतीय संस्करण का पुनर्मुद्रण कई प्रकाशकों ने किया है, जैसे एशियन एजुकेशनल सर्विसेज एवं मुंशीराम मनोहर लाल, दिल्ली ।
 
फ्रेड्रिक पिंकॉट द्वारा लिखित "The Hindi Manual" लन्दन से 1882 में प्रकाशित हुआ, जिसमें साहित्यिक और प्रान्तीय दोनों प्रकार के हिन्दी व्याकरण शामिल किये गये । इसका तीसरा संस्करण 1890 में निकला । M. शूल्ट्स का 'Grammatik der hinduistanischen Sprache' (हिन्दुस्तानी भाषा का व्याकरण) जर्मन भाषा में Leipzig से 1894 में प्रकाशित हुआ ।
 
एडविन ग्रीब्ज लिखित "A Grammar of Modern Hindi" बनारस से 1896 में प्रकाशित हुआ । इस लेखक ने केलॉग के हिन्दी व्याकरण को एक मानक कृति बताया है । परन्तु सामान्य लोगों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ग्रीब्ज ने अन्य व्याकरण रचा । इसका संशोधित संस्करण 1908 में प्रकाशित हुआ । सन् 1921 में इस लेखक ने पूर्णतः नये रूप से "Hindi Grammar" नामक शीर्षक के अन्तर्गत हिन्दी व्याकरण लिखा, जिसमें ब्रज भाषा में कुछ नोट के सिवा हिन्दी के क्षेत्रीय अंतरों का कोई जिक्र नहीं किया गया । इसका पुनर्मुद्रण एशियन एजुकेशनल सर्विसेज ने 1983 में किया ।
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पाश्चात्य विद्वानों द्वारा लिखे गये हिन्दी व्याकरणों का थोड़ा विस्तृत विवरण डॉ. जाधव की थीसिस में पृ. 148-171 के अंतर्गत देखा जा सकता है ।20
 
== बीसवीं शताब्दी के हिन्दी व्याकरण ==
 
सन् 1920 में पं. कामता प्रसाद गुरु द्वारा लिखित प्रथम बार एक प्रामाणिक एवं आदर्श "हिन्दी व्याकरण" [[नागरी प्रचारणी सभा]], काशी ने प्रकाशित किया । इसका षष्ठ पुनर्मुद्रण सन् 1960 में हुआ । सन् 2001 में इसका 22वाँ संस्करण प्रकाशित हुआ । इस व्याकरण के लेखक ने अपनी भूमिका में लिखा है - "हिन्दी व्याकरण की छोटी-मोटी कई पुस्तकें उपलब्ध होते हुए भी हिन्दी में, इस समय अपने विषय और ढंग की यही एक व्यापक और (संभवतः) मौलिक पुस्तक है । इस व्याकरण में अन्यान्य विशेषताओं के साथ-साथ एक बड़ी विशेषता यह भी है कि नियमों के स्पष्टीकरण के लिए इसमें जो उदाहरण दिये गये हैं वे अधिकतर हिन्दी के भिन्न-भिन्न कालों के प्रतिष्ठित एवं प्रामाणिक लेखकों के ग्रंथों से लिये गये हैं । इस विशेषता के कारण पुस्तक में यथासंभव, अंध-परंपरा अथवा कृत्रिमता का दोष नहीं आने पाया है ।"21 इस व्याकरण में छन्द, अलंकार, कहावतों और मुहावरों को स्थान नहीं दिया गया है । लेखक का कहना है कि यद्यपि ये सब विषय भाषा ज्ञान की पूर्णता के लिए आवश्यक हैं, तो भी ये सब अपने-आपमें स्वतंत्र विषय हैं और व्याकरण से इनका कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है । किसी भी भाषा का "सर्वांगपूर्ण" व्याकरण वही है, जिससे उस भाषा में शिष्ट रूपों और प्रयोगों का पूर्ण विवेचन किया जाय और उनमें यथासंभव स्थिरता लायी जाय ।22 पं. कामता प्रसाद गुरु ने यह व्याकरण, अधिकांश में, अंग्रेजी व्याकरण के ढंग पर लिखा है । इस प्रणाली के अनुसरण का कारण बताते हुए वे लिखते हैं - "इस प्रणाली के अनुसरण का मुख्य कारण यह है कि इसमें स्पष्टता और सरलता विशेष रूप से पायी जाती है और सूत्र तथा भाष्य दोनों ऐसे मिले रहते हैं कि एक ही लेखक पूरा व्याकरण विशद् रूप से लिख सकता है । हिन्दी भाषा के लिए वह दिन सचमुच बड़े गौरव का होगा जब इसका व्याकरण 'अष्टाध्यायी' और 'महाभाष्य' के मिश्रित रूप में लिखा जायेगा, पर वह दिन अभी बहुत दूर दिखायी देता है ।"23
 
हिन्दी के राष्ट्रभाषा हो जाने पर विद्वानों का ध्यान इसके स्वतंत्र अस्तित्व की खोज पर जाने लगा । पं. [[किशोरीदास वाजपेयी]] ने "राष्ट्रभाषा का प्रथम व्याकरण" (1949) लिखकर हिन्दी व्याकरण की स्वतंत्र सत्ता पर अपने महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किये हैं । उनके शब्दों में - "कोई व्याकरण अंग्रेजी के आधार पर लिखा गया है और कोई संस्कृत के आधार पर । हिन्दी के आधार पर हिन्दी का व्याकरण बना ही नहीं । तब तो उलझन होगी ही ।"24 उनका "[[हिन्दी शब्दानुशासन]]" (1957) एक महत्त्वपूर्ण व्याकरण ग्रंथ है । इसका पंचम संस्करण संवत् 2055 वि. (सन् 1998 ई.) में प्रकाशित हुआ ।
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उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से एक ही परिवार की भारतीय भाषाओं के तुलनात्मक व्याकरण का युग शुरू हुआ जब राबर्ट काल्डवेल (1814-1891) की स्मारकीय कृति (Monumental work) ‘Comparative Grammar of the Dravidian Languages' (द्रविड भाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण) सन् 1856 में प्रकाशित हुई । इंग्लैंड निवासी जॉन बीम्स 1857 में इंडियन सिविल सर्विस में आये । भाषाओं के अध्ययन में ये बचपन से ही रुचि लेते थे । काल्डवेल की कृति देखकर इन्हें भारतीय आर्य भाषाओं पर वैसा ही काम करने की प्रेरणा मिली और लगभग 14 वर्षों तक इस विषय पर कार्य करते हुए उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ "A Comparative Grammar of the Modern Aryan Languages of India" तीन भागों में (प्रथम भाग-1872 में, द्वितीय भाग-1878 तथा तृतीय भाग 1879 में) प्रकाशित किया । भारतीय आर्य भाषाओं के तुलनात्मक विकास पर यह पहला कार्य है । इस विषय पर अभी तक कोई दूसरा कार्य नहीं हुआ है ।26 एक हजार से अधिक पृष्ठों के इस विस्तृत ग्रंथ के प्रारंभ में भारतीय आर्य भाषाओं के उद्भव और विकास पर 121 पृष्ठों की एक लम्बी-सी भूमिका है तथा आगे हिन्दी, पंजाबी, सिंधी, गुजराती, मराठी, उड़िया तथा बंगला की ध्वनियों तथा उनके संज्ञा, सर्वनाम, संख्यावाचक विशेषण तथा क्रियारूपों का संस्कृत से तुलनात्मक विकास दिखलाया गया है । मुंशीराम मनोहर लाल, दिल्ली ने इसका पुनर्मुद्रण किया है ।
 
सैमुएल केलॉग (1839-1899) कृत "A Grammar of the Hindi Language" का उल्लेख पहले किया जा चुका है । हिन्दी का यह प्रथम सुव्यवस्थित तथा विस्तृत व्याकरण है तथा आज भी कई दृष्टियों से सर्वोत्तम है ।27 इनमें हिन्दी के तत्कालीन परिनिष्ठित रूपों के साथ-साथ मारवाड़ी, मेवाड़ी, मेरवाड़ी, जयपुरी, हाड़ात, कुमाऊँनी, गढ़वाली, नेपाली, कन्नौजी, बैसवाड़ी, भोजपुरी, मगही और मैथिली आदि में भी रूप यथास्थान दिये गये हैं । वाक्य-रचना के विस्तृत प्रायोगिक नियमों के अतिरिक्त रूपों की व्युत्पत्ति तथा उनका विकास भी दिया गया है ।
 
आगरा में एक जर्मन पादरी के घर जन्मे जर्मन विद्वान् रुडोल्फ हार्नले (1841-1918) का प्रसिद्ध ग्रंथ "A Comparative Grammar of the Gaudian Languages" कलकत्ते से सन् 1880 में प्रकाशित हुआ । इसमें भोजपुरी का विस्तृत व्याकरण देने के साथ-साथ आधुनिक आर्यभाषाओं की काफी तुलनात्मक सामग्री दी गयी है । इसमें हिन्दी क्रिया रूपों में लिंग-परिवर्तन के नियम, विभिन्न रूपों का विकास, भाषायी मानचित्र तथा लिपियों में विकास का चित्र आदि भी हैं । एशियन एजुकेशनल सर्विसेज, दिल्ली ने इसका पुनर्मुद्रण सन् 1991 में किया है ।
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== भाषाशास्त्रीय अध्ययन ==
 
बीसवीं शताब्दी में हिन्दी एवं उसकी बोलियों पर कई विद्वानों ने भाषाशास्त्रीय अध्ययन किया । डॉ. विश्वनाथ प्रसाद ने "Phonetic and Phonological Study of Bhojpuri" पर शोध कार्य किया (पी.एच.डी. थीसिस, लन्दन विश्वविद्यालय, 1950 अप्रकाशित) । डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया का "ब्रजभाषा और खड़ीबोली का तुलनात्मक अध्ययन" सन् 1962 में प्रकाशित हुआ ।28 हरवंशलाल शर्मा ने इसकी प्रस्तावना, पृ. 1 में लिखा है - "डॉ. कैलाश भाटिया द्वारा प्रस्तुत 'ब्रज भाषा और खड़ीबोली का तुलनात्मक अध्ययन' हिन्दी भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में एक स्तुत्य तथा नवीन प्रयास है । ब्रज भाषा और खड़ी बोली का तुलनात्मक भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन इस रूप में अभी तक प्रस्तुत नहीं हुआ था ।"
 
डा. महावीर सरन जैन का प्रयाग विश्वविद्यालय की डी. फिल. उपाधि के लिए स्वीकृत शोधप्रबंध हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा सन 1967 में प्रकाशित हुआ जिसके संबंध में प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक उदयनारायण तिवारी ने ग्रंथ की भूमिका में लिखा है : " प्रस्तुत शोध प्रबंध में डा. महावीर सरन जैन ने बुलन्द शहर एवं खुर्जा तहसीलो की बोलियों का संकालिक दृष्टिकोण से भाषाशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत किया है. डा. जैन ने यह शोध प्रबंध प्रयाग विश्वविद्यालय की डी. फिल. के लिए तैयार किया था. यह शोध प्रबंध मेरे निर्देशन में संपन्न हुआ था और मेरे अतिरिक्त इसके अन्य परीक्षक हिन्दी तथा भाषा विज्ञान के दो मूर्धन्य विद्वान डा. बाबूराम सक्सेना एवं डा. धीरेन्द्र वर्मा थे. तीनों परीक्षकों ने इस शोध प्रबंध की मुक्त कंठ से प्रशंसा की एवं 1962 में इस शोध प्रबंध पर डा. जैन को प्रयाग विश्वविद्यालय से डी. फिल. की उपाधि प्राप्त हुई.
इस शोध प्रबंध की निम्नलिखित विशेषताएं हैं:
1. इसमें ब्रज भाषा एवं खडीबोली के संक्रांति क्षेत्र का भाषा सर्वेक्षण किया गया है.
2. सर्वेक्षण से उपलब्ध सामग्री का अध्ययन डा. जैन ने वर्णात्मक पद्धति से किया है.
3. यह अध्ययन एकमात्र संकालिक स्तर पर किया गया है.
4. इस शोध प्रबंध के संपन्न करने में संरचनात्मक पद्धति का भी पूर्ण सहारा लिया गया है.
 
मैं निसंकोच भाव से यह कह सकता हूँ कि यह हिन्दी में लिखित प्रथम शोध प्रबंध है जिसमें अधुनातन भाषाशास्त्रीय पद्धति के अनुसार सामग्री का विश्लेषण किया गया है. डा. महावीर सरन जैन ने इस शोध प्रबंध को प्रस्तुत कर जहाँ एक ओर हिन्दी भाषा के गौरव में अभिवृद्धि की है, वहाँ दूसरी ओर उन्होंने एक ऐसा सुन्दर आदर्श प्रस्तुत किया है जिसका हिन्दी की विभिन्न बोलियों के अनुसन्धित्सु ही नहीं, अपितु आर्य परिवार की अन्य भाषाओं के शोधकर्ता भी अनुगमन कर सकते हैं. यह अत्यंत आवश्यक है कि हिन्दी की अन्य बोलियों का अध्ययन भी इस आदर्श पर यथासंभव शीघ्र संपन्न किया जाए."
 
डॉ. ए.सी. सिन्हा की अप्रकाशित पी.एच.डी. थीसिस "Phonology and Morphology of मगही Dialect" (1966) डेक्कन कॉलेज, पुणे में उपलब्ध है । मगही पर किये गये शोध कार्य की सूची "मगही भाषा और साहित्य पर शोध कार्य" पर उपलब्ध है । Vladimir Miltner की शोध पुस्तिका "Early Hindi Morphology and Syntax, being a key to the analysis of the morphologic and syntactic structure of उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण"29 की भी एक प्रति डेक्कन कॉलेज, पुणे में उपलब्ध है ।
 
डा. महावीर सरन जैन को सन् 1967 में " परिनिष्ठित हिन्दी का वर्णनात्मक विश्लेषण " शीर्षक शोध प्रबंध पर [[जबलपुर विश्वविद्यालय]] की प्रथम डी. लिट. की उपाधि प्राप्त हुई जिसका प्रथम खंड सन् 1974 में " परिनिष्ठित हिन्दी का ध्वनिग्रामिक अध्ययन " शीर्षक से प्रकाशित हुआ तथा उसका दूसरा खंड सन् 1978 में " परिनिष्ठित हिन्दी का रूपग्रामिक अध्ययन " शीर्षक से प्रकाशित हुआ. शोध प्रबंध के परीक्षक डा. बाबूराम सक्सेना, डा. एस. एम. कत्रे तथा डा. उदय नारायण तिवारी थे. इस शोध प्रबंध के बारे में तीनों परीक्षकों का अभिमत था कि हिन्दी भाषा के भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के लिए यह शोध प्रबंध प्रकाश स्तम्भ का कार्य करेगा.hindi mai bahut grammer hote hai
 
== हिन्दी व्याकरण का काल विभाजन ==
 
डॉ. अनन्त चौधरी ने हिन्दी व्याकरण के संपूर्ण विकास की लगभग 300 वर्षों की अवधि को निम्नलिखित पाँच कालखण्डों में विभक्त किया है ।
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डॉ. '''बीणा गर्ग''' ने हिन्दी व्याकरण की विकास यात्रा को तीन मुख्य कालों में वर्गीकृत किया है31 -
 
* 1. '''आदिकाल '''
 
** अ - पूर्व आदिकाल - संक्रान्ति युग (सन् 1680 से पूर्व)
 
** आ - उत्तर आदिकाल - पाश्चात्य वैयाकरण युग (सन् 1680 से 1855 ई. तक)
 
* 2. ''' मध्यकाल '''
** इ - पूर्व मध्यकाल - श्रीलाल युग(सन् 1680 से 1855 ई. तक)
 
** ई - उत्तर मध्यकाल - केलॉग युग (सन् 1676 से 1920 ई. तक)
 
* 3. '''आधुनिक काल'''
** उ - पूर्व आधुनिक काल - स्वतन्त्रता-पूर्व युग (सन् 1920 से 1947 ई. तक) - गुरु युग
 
** ऊ - उत्तर आधुनिक काल - स्वातन्त्र्योत्तर युग (सन् 1947 से वर्तमान काल तक)
 
== नोट (संदर्भ-संकेत) ==
 
1. कामता प्रसाद गुरुः "हिन्दी-व्याकरण," नागरीप्रचारिणी सभा, काशी; प्रथम संस्करण संवत् 1977 (1920 ई.); षष्ठ पुनर्मुद्रण, संवत् 2017 (1960 ई.) । डॉ. वासुदेवनन्दन प्रसाद लिखते हैं- "पं. कामता प्रसाद गुरु का 'हिन्दी-व्याकरण' सन् 1920 ई. में प्रकाशित हुआ था । तब से इसी का, हिन्दी का एकमात्र आदर्श व्याकरण मानकर, सम्मान होता रहा है ।" - आधुनिक हिन्दी-व्याकरण और रचना, भारती भवन, पटना 1977, पृ. 9, पं. 20-22
 
2. कुछ अन्य भारतीय देशी भाषाओं के (Vernaculars) आरम्भ-काल के व्याकरण उपलब्ध होते हैं । जैसे- भीष्माचार्य कृत 'पंचवार्तिक' नामक मराठी व्याकरण तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दी का है । लगभग सभी साहित्य समृद्ध द्रविड़ भाषाओं (तमिल, कन्नड, तेलुगु और मलयालम) के प्राचीन व्याकरण उपलब्ध हैं ।
 
3. इस संबंध में देखें लेखक का संक्षिप्त लेख "हिन्दी भाषा का प्रथम व्याकरण", जलवाणी, केन्द्रीय जल और विद्युत अनुसंधान शाला, पुणे, अंक 8, वर्ष 2001 पृ. 13-17.
 
4. अंग्रेजों के पहले योन योस्वा केटलार नाम के एक जर्मन ने डच भाषा में एक हिन्दी व्याकरण 1698 ई. या इसके कुछ पूर्व लिखा था । विस्तार के लिए देखें फुटनोट 3 का संदर्भ ।
 
5. "हिन्दी-व्याकरण", भूमिका, पृ. 4-5.
12. Indian Linguistics, ग्रियर्सन अभिनन्दन ग्रंथ, खंड IV, 1935; पुनर्मुद्रण - S. K. Chatterji: "SELECT WRITINGS", Vol. 1, Vikas Publishing House Pvt. Ltd., New Delhi, 1978, pp.&nbsp;237–255.
 
13. 'भारतीय अनुशीलन', महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा के सम्मान में समर्पित, 23वाँ हिन्दी साहित्य सम्मेलन, दिल्ली, 1933, विभाग 4, अर्वाचीन काल, पृ. 30-36.
 
14. "Indian and Iranian Studies", डॉ. ग्रियर्सन के पचासीवें जन्म दिवस 7 जनवरी, 1936 पर समर्पित, The school of Oriental studies, लन्दन, पृ. 817-822.
 
15. देखें फुटनोट 3 का संदर्भ ।
 
16. "हिन्दी के तीन प्रारंभिक व्याकरण", निर्देशक - डॉ. उदयनारायण तिवारी, अनुवादक-मैथ्यु वेच्चुर, St. Paul Publications, इलाहाबाद, 1976; कुल 176 पृष्ठ ।
 
17. पुनर्मुद्रण: Firma K. L. Mukhopadhyaya, Calcutta, 1963. Edited with notes, biographical sketch and bibliography of writings on Lebedeff by Mahadev Prasad Saha; Foreword by Prof. Suniti Kumar Chatterji; कुल पृष्ठ 40+118. इस संस्करण की एक प्रति डेक्कन कॉलेज, पुणे में उपलब्ध है ।
 
18. हिन्दी व्याकरण, भूमिका, पृष्ठ 6.
 
19. वही, पृ. 6.
 
20. डॉ. पंजाबराव रामराव जाधव: "हिन्दी भाषा और साहित्य के अध्ययन में ईसाई मिशनरियों का योगदान", पी.एच.डी. थीसिस, पुणे विश्वविद्यालय; प्रकाशक - कर्मवीर प्रकाशन, 22 अम्बिका हौसिंग सोसायटी, सेनापति बापट पथ, पुणे - 411016; प्रथम संस्करण 1973 ई. ।
 
21. भूमिका, पृ. 6.
 
22. तत्रैव
 
23. भूमिका, पृ. 3
 
24. राष्ट्रभाषा का प्रथम व्याकरण, पृ. 82
 
25. बुलन्द शहर एवं खुर्जा तहसीलो की बोलियों का संकालिक अध्ययन - डा. महावीर सरन जैन ( हिन्दी सहित्य सम्मेलन, 12, सम्मेलन मार्ग, इलाहाबाद,1967 )
 
26. परिनिष्ठित हिन्दी का ध्वनिग्रामिक अध्ययन—डा. महावीर सरन जैन ( लोक भारती प्रकाशन, 15 - ए, महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद, 1974 )
 
27. परिनिष्ठित हिन्दी का रूपग्रामिक अध्ययन—डा. महावीर सरन जैन ( लोक भारती प्रकाशन, 15 - ए, महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद, 1978 )
 
28. प्रकाशक - सरस्वती सदन, आगरा, 1962; कुल 224 पृष्ठ ।
 
29. देखें नोट 9.
 
30. "हिन्दी व्याकरण का काल विभाजन : एक दृष्टि", पृ.46 ; प्रकाशन विवरण हेतु देखें सन्दर्भ 31.
 
31. "हिन्दी व्याकरण का काल विभाजन : एक दृष्टि", पृ.48-49 । प्रकाशन विवरण इस प्रकार है - " समन्वय (क्षेत्रीय साहित्य सन्दर्भ)" (1996) - सं० उमाशंकर मिश्र; प्रकाशक - युवा साहित्य मंडल, 68, तुराबनगर, गाजियाबाद; 392 + 405 + 59 पृष्ठ । इसमें डॉ. बीणा गर्ग का लेख "हिन्दी व्याकरण का काल विभाजन : एक दृष्टि", पृ.46-50.
 
== संदर्भ ==
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: 2. [http://technical-hindi.googlegroups.com/web/Hindi_vyakaran_ka_sankshipta_itihas.htm?gda=ma0dIVgAAAB5zxHOSbEKAP8cNeX2R8xaHWL78891e_aaO-lQ6a2AY2G1qiJ7UbTIup-M2XPURDRYcDwL6j3O1RmnVxBBGLKluwH2gbeaKrgEFWTVqsZbdLn3HKeLcRNtvoQ61wI3lzc हिन्दी का संक्षिप्त व्याकरण] - लेखक : श्री नारायण प्रसाद
 
== इन्हें भी देखें ==
* [[हिन्दी व्याकरण]]
* [[संस्कृत व्याकरण का इतिहास]]
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://books.google.co.in/books?id=GfSXJAqFGXsC&printsec=frontcover#v=onepage&q=&f=false '''A history of the Hindi grammatical tradition : Hindi-Hindustani grammar'''] (Google booka By Tej K. Bhatia)
* [http://forum.janmaanas.com/viewtopic.php?f=12&t=132#p323 हिन्दी व्याकरण का इतिहास]
* [http://prakashblog-google.blogspot.com/2011/03/blog-post.html हिंदी व्याकरण का इतिहास] - डॉ.अनंतनाथ चौधरी के पुस्तक की समीक्षा और व्याकरण की परंपरा]
 
[[श्रेणी:व्याकरण]]