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'''दान''' का शाब्दिक अर्थ है - 'देने की क्रिया' । सभी धर्मों में सुपात्र को दान देना परम् कर्तव्य माना गया है। हिन्दू धर्म में दान की बहुत महिमा बतायी गयी है। आधुनिक सन्दर्भों में दान का अर्थ किसी जरूरतमन्द को सहायता के रूप में कुछ देना है।
 
== परिचय ==
दान किसी वस्तु पर से अपना अधिकार समाप्त करके दूसरे का अधिकार स्थापित करना दान है। साथ ही यह आवश्यक है कि दान में दी हुई वस्तु के बदले में किसी प्रकार का विनिमय नहीं होना चाहिए। इस दान की पूर्ति तभी कही गई है जबकि दान में दी हुईं वस्तु के ऊपर पाने वाले का अधिकार स्थापित हो जाए। मान लिया जाए कि कोई वस्तु दान में दी गई किंतु उस वस्तु पर पानेवाले का अधिकार होने से पूर्व ही यदि वह वस्तु नष्ट हो गई तो वह दान नहीं कहा जा सकता। ऐसी परिस्थिति में यद्यपि दान देनेवाले को प्रत्यवाय नहीं लगता तथापि दाता को दान के फल की प्राप्ति भी नहीं हो सकती।
 
== प्रकार ==
सात्विक, राजस और तामस, इन भेदों से दान तीन प्रकार का कहा गया है। जो दान पवित्र स्थान में और उत्तम समय में ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है जिसने दाता पर किसी प्रकार का उपकार न किया हो वह सात्विक दान है। अपने ऊपर किए हुए किसी प्रकार के उपकार के बदले में अथवा किसी फल की आकांक्षा से अथवा विवशतावश जो दान दिया जाता है वह राजस दान कहा जाता है। अपवित्र स्थान एवं अनुचित समय में बिना सत्कार के, अवज्ञतार्पूक एवं अयोग्य व्यक्ति को जो दान दिया जात है वह तामस दान कहा गया है।
 
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* [[गो दान्]] - गाय देना
 
== दानपात्र ==
जिस व्यक्ति को दान दिया जाता है उसे दान का पात्र कहते हैं। तपस्वी, वेद और शास्त्र को जाननेवाला और शास्त्र में बतलाए हुए मार्गं के अनुसार स्वयं आचरण करनेवाला व्यक्ति दान का उत्तम पात्र है। यहाँ गुरु का प्रथम स्थान है। इसके अनंतर विद्या, गुण एवं वय के अनुपात से पात्रता मानी जाती है। इसके अतिरिक्त जामाता, दौहित्र तथा भागिनेय भी दान के उत्तम पात्र हैं। ब्राह्मण को दिया हुआ दान षड्गुणित, क्षत्रिय को त्रिगुणित, वैश्य का द्विगुणित एवं शूद्र को जो दान दिया जाता है वह सामान्य फल को देनेवाला कहा गया है। उपर्युक्त पात्रता का परिगणन विशेष दान के निमित्त किया गया है। इसके सिवाय यदि अन्न और वस्त्र का दान देना हो तो उसके लिए उपर्युक्त पात्रता देखने की आवश्यकता नहीं है। तदर्थ बुभुक्षित और विवस्त्र होना मात्र ही पर्याप्त पात्रता कही गई है।
 
== दातव्य ==
दातव्य द्रव्य के तीन भेद गिनाए गए हैं - शुक्ल, मिश्रित और कृष्ण। शास्त्र, तप, योग, परंपरा, पराक्रम, और शिष्य से उपलब्ध द्रव्य शुक्ल कहा गया है। कुसीद, कृषि और वाणिज्य से समागत द्रव्य मिश्रित बतलाया गया है। सेवा, द्यूत और चौर्य से प्राप्त द्रव्य को कृष्ण कहा है। शुक्ल द्रव्य के दान से सुख की प्राप्ति होती है। मिश्रित द्रव्य के दान से सुख एवं दु:ख, दोनों को उपलब्धि होती है। कृष्ण द्रव्य का दान दिया जाए तो केवल दु:ख ही मिलता है। द्रव्य की तीन ही परिस्थितियाँ देखी जाती हैं - दान, भोग और नाश। उत्तम कोटि के व्यक्ति अपने द्रव्य का उपयोग दान में करते हैं। मध्यम पुरुष अपने द्रव्य का व्यय उपभोग में करते हैं। इन दोनों से अतिरिक्त व्यक्ति अपने द्रव्य का उपयोग न दान में ही करते हैं न उपभोग में। उनका द्रव्य नाश को प्राप्त होता है। इस प्रकार के व्यक्तियों की गणना अधम कोटि में होती है।
 
== दानविधि ==
दान के महादान, लघुदान और सामानय दान प्रभृति अनेक भेद गिनाए गए हैं। महादान भी 16 तरह के कहे गए हैं। इनमें तुलादान को प्राथमिकता मिली हैं। इस तुलादान का अनुष्ठान तीन दिनों में संपन्न हाता है। प्रथम दिन तुलादान करनेवाला व्यक्ति और उस अनुष्ठान को संपादित करानेवाले विद्वान् लोग दूसरे दिन उपवास और नियमपालन करने का संकल्प करते हैं दूसरे दिन प्रात:काल उठकर अपने आवश्यक दैहिक कृत्य से निवृत्त होकर स्नान और दैनिक आह्निक से छुट्टी पाकर अनुष्ठानमंडप के निकट उपस्थित होते हैं। प्रारंभ में संकल्पपूर्वक महागणपतिपूजन, मातृकापूजन, वसोर्धारापूजन, नांदीश्राद्ध और पुण्याहवाचन होता है। प्रथम शुद्ध की हुई भूमि पर मंडप, कुंड और वेदियों का जो निर्माण हो चुका है उसका संस्कार किया जाता है वस्त्र, अलंकार और पताका से मंडप का प्रसाधन किया जाता है। यजमान के द्वारा अनुष्ठान के निमित्त आचार्य, ब्रह्मा और ऋत्विजों का वरण किया जाता है। सभी विद्वानों का मधुपर्क से अर्चन होता है। इस प्रकार के महादान के अवसर पर चारों वेदों के जानकार विद्वानों की अपेक्षा होती है। आचार्य की जानकारी उसी वेद की होनी चाहिए जो वेद यजमान का हो। यजमान के वेद के अनुसार अनुष्ठान का समस्त कार्य होना चाहिए। अन्य वेदों के जानकार विद्वानों में ऋग्वेदी विद्वान् मंडप के पूर्व द्वार पर, यजुर्वेदी विद्वान् दक्षिण द्वार पर, सामवेदी विद्वान् पश्चिम द्वार पर और अथर्ववेदी विद्वान् उत्तर द्वार पर बैठते हैं। वहीं पर बैठे हुए रक्षा एवं शांति के निमित्त वैदिक मंत्रपाठ करते हैं।
 
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श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, ज्ञान अलोभ, क्षमा और सत्य ये सात गुण दाता के लिए आवश्यक है। पड़गाहना करना, उच्च स्थान देना, चरणों का उदक ग्रहण करना, अर्चन करना, प्रणाम करना, मन वचन और काय तथा भोजन की शुद्धि रखना - इन नौ प्रकारों से दान देनेवाला दाता पुण्य का भागी होता है।
 
== इन्हें भी देखें ==
* [[विद्या दान]]
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://hindi.webdunia.com/religion/religion/mahakumbh/1001/14/1100114064_1.htm श्रेष्ठदान वही है जो सुपात्र को दिया जाए] (वेबदुनिया)
 
{{योग}}
"https://hi.wikipedia.org/wiki/दान" से प्राप्त