"दादा भाई नौरोजी": अवतरणों में अंतर
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उन दिनों भारतीय सिविल सेवाओं में सम्मिलित होने के इच्छुक अभ्यर्थियों के लिए सबसे कठिनाई की बात यह थी कि उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में ब्रिटिश अभ्यर्थियों से स्पर्धा करनी पड़ती थी। इस असुविधा को दूर करने के लिए दादा भाई का सुझाव इंग्लैंड और भारत में एक साथ सिविल सर्विस परीक्षा करने का था। इसके लिए उन्होंने 1893 तक आंदोलन चलाया जब कि उन्होंने वहाँ लोकसभा (हाउस आव कामन्स) में उस सदन के एक सदस्य की हैसियत से अधिक संघर्ष किया और सभा ने भारत तथा इंग्लैंड में एक साथ परीक्षा चलाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
उन दिनों दूसरी उससे भी बड़ी परिवेदना भारतीयों की भयानक दरिद्रता थी। हालाँकि दादाभाई ही पहले व्यक्ति नहीं थे जिन्होंने इसके लिए दु:ख की अभिव्यक्ति की हो किंतु वे पहले व्यक्ति अवश्य थे जिन्होंने उसके उन्मूलन के लिए आंदोलन चलाया। उन्होंने तथ्यों और आँकड़ों से यह सिद्ध कर दिया कि जहाँ भारतीय दरिद्रता में आकंठ डूबे थे, वहीं भारत की प्रशासकीय सेवा दुनियाँ में सबसे महँगी थी। सरकारी आँकड़े उन दिनों नहीं के समान थे और जानकारी प्राप्त करने के लिए कोई गैर सरकारी साधन भी नहीं था। भारतीयों की आर्थिक स्थिति के संबंध में प्रारंभिक सर्वेक्षण के बाद यही निष्कर्ष निकला कि देश में एक व्यक्ति की औसत वार्षिक आय कुल बीस रुपए थी। इन्हीं सब आँकड़ों के आधार पर ईस्ट इंडिया एसोसिएशन के सामने उन्होंने "वांट्स
19वीं शताब्दी के अंत तक दादाभाई ने अनेक समितियों और आयोगों के समक्ष ही नहीं वरन् ब्रिटिश पार्लमेंट के सामने भी भारत के प्रति की गई बुराइयों को दूर करने के लिए वकालत की और उच्चाधिकारियों को बराबर चेतावनी देते रहे कि यदि इसी प्रकार भारत की नैतिक और भौतिक रूप से अवनति होती रही तो भारतीयों को ब्रिटिश वस्तुओं का ही नहीं वरन् ब्रिटिश शासन का भी बहिष्कार करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा, किंतु इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अंत में उन्होंने भारतीयों की राजनीतिक दासता और दयनीय स्थिति की ओर विश्व लोकमत का ध्यान आकृष्ट करने के लिए महान् प्रयास करने का निश्चय किया जिसका परिणाम हुआ उनकी वृहदाकार पुस्तक '''लिबर्टी ऐंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया''' । इसमें बहुत से लेख, भाषण, निबंध और उच्चाधिकारियों से पत्रव्यवहार तथा समितियों और आयोगों के समक्ष दी गई उनकी गवाहियाँ तथा कितने ही महत्वपूर्ण अधिनियमों और घोषणाओं के उद्धरण थे। [[हाउस आव कामन्स]] की सदस्यता प्राप्त करने में उनकी अद्भुत सफलता लक्ष्यपूर्ति के लिए एक साधन मात्र थी। उनका यह लक्ष्य या ध्येय था भारत का कल्याण और उन्नति जो संसद की सदस्यता के लिए संघर्ष करते समय भी उनके मस्तिष्क पर छाया रहता था। वे बराबर नैशनल कांग्रेस के लिए प्रचार करते रहे और भारत में अपने मित्रों को लिखे विविध पत्रों में पारसियों की राष्ट्रीय संग्राम से दूर रहने की प्रवृत्ति की निंदा करते रहे। कोई भी सप्ताह ऐसा नहीं बीतता था जिसमें उनके पास भारत से पत्र और कांग्रेस के संबंध में पत्रपत्रिकाओं की कतरनें न आती रही हों तथा उनके पत्र भारतीय मित्रों के पास न पहुँचते रहे
अपने लंबे जीवन में दादाभाई ने देश की सेवा के लिए जो बहुत से कार्य किए उन सबका वर्णन करना स्थानाभाव के कारण यहाँ संभव नहीं है किंतु स्वशासन के लिए अखिल भारतीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (1906) में उनके द्वारा की गई माँग की चर्चा करना आवश्यक है। उन्होंने अपने भाषण में '''स्वराज्य''' को मुख्य स्थान दिया। अपने भाषण के दौरान में उन्होंने कहा, ''हम कोई कृपा की याचना नहीं कर रहे हैं, हमें तो केवल न्याय चाहिए। आरंभ से ही अपने प्रयत्नों के दौरान में मुझे इतनी असफलताएँ मिली हैं जो एक व्यक्ति को निराश ही नहीं बल्कि विद्रोही भी बना देने के लिए पर्याप्त थीं, पर मैं हताश नहीं हुआ हूँ और मुझे विश्वास है कि उस थोड़े से समय के भीतर ही, जब तक मै जीवित हूँ, सद्भावना, सचाई तथा संमान से परिपूर्ण स्वयात्त शासन की माँग को परिपूर्ण, करनेवाला संविधान भारत के लिए स्वीकार कर लिया जाएगा।'' उनकी यह आशा उस समय पूरी हुई जब वे सार्वजनिक जीवन से अवकाश ग्रहण कर चुके थे।
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