"सत्य": अवतरणों में अंतर

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'''सत्य''' (truth) के अलग-अलग सन्दर्भों में एवं अलग-अलग सिद्धान्तों में सर्वथा भिन्न-भिन्न अर्थ हैं।
 
== सत्य के विभिन्न सिद्धान्त ==
[[न्याय दर्शन]] में प्रमुख रूप में प्रत्येक निर्णय और अनुमान पर विचार होता है। इनमें निर्णय का स्थान केंद्रीय है। निर्णय का शाब्दिक प्रकाशन [[वाक्य]] है। जब हम किसी वाक्य को सुनते हैं, तो उसे स्वीकार करते हैं या अस्वीकार करते हैं; स्वीकार और अस्वीकार में निश्चय न कर सकने की अवस्था संदेह कहलाती है। प्रत्येक निर्णय सत्य होने का दावा करता है। जब हम इसे स्वीकार करते हैं तो इसके दावे को सत्य मानते हैं; अस्वीकार करने में उसे असत्य कहते हैं। विश्वास हमारी साधारण मानसिक अवस्था है। जब किसी विश्वास में त्रुटि दिखाई देती है, तो हम इसका स्थान किसी अन्य विश्वास तक जाने की मानसिक क्रिया ही चिंतन है। विश्वास, सत्य हो या असत्य, क्रिया का आधार है, यही जीवन में इसे महत्वपूर्ण बनाता है। न्याय का काम निर्णय या वाक्य के सत्यासत्य की जाँच करना है; इसके लिए यह बात असंगत है कि कोई इसे वास्तव में सत्य मानता है या नहीं।
 
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== ‘सत्यमेव जयते’ ==
सत्यनिष्ठा ही ब्रह्मनिष्ठा
 
- देवेश शास्त्री-
 
‘‘सत्यमेव जयते’’ वेदवाक्य, के निहितार्थ को आत्मसात करते हुए सत्यनिष्ठा के साथ पद की शपथ लेने वाले ‘जनसेवकों’ से पूछिए, कि आप सत्यनिष्ठा के रहस्य को जानते है? सत्यनिष्ठा का राग अलापने की कोई आवश्यकता नहीं है और न ही सत्यमेव जयते को मनोरंजन का साधन बनाने की। वास्तव में यह वेदवाक्य मन का रंजन नहीं कर सकता, बल्कि आत्मानुभूति कराता है। जिसे अनुपमेय आनंद का आधार कहा जा सकता। इस संदर्भ में गीतकार ओपी दीक्षित के ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं-‘‘जाओ जाकर उनसे कह दो कुर्सी पाकर कुछ काम करें, मत ढोल पीटकर वादों के, अब लोकतंत्र बदनाम करें।’’
‘सत्यं वद, धर्मं चर’, याद करने के नहीं, धारण करने के मंत्र हैं। यहां यह भी कहा गया - सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, मा ब्रूयात सत्यमप्रियम्। ‘सत्य बोलो, प्रिय बोलो किंतु अप्रिय सत्य तथा प्रिय असत्य मत बोलो।’ यहां यह भी उल्लेखनीय है- ‘हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः।’ यानी प्रिय-सत्य एक साथ नहीं हो सकते। जब सत्यता कटु है और असत्य में माधुर्य है तो क्या करना चाहिए? सत्य अप्रिय और असत्य प्रिय होता है, इसीलिए असत्य का बोलवाला है। ‘‘मधुर वचन है औषधी, कटुक वचन है तीर।’’ यानी सत्य हानिकारक शस्त्र है और असत्य लाभदायक औषधि है। बाबा तुलसी ने स्पष्ट कर दिया- ‘‘सचिव वैद गुरु तीन जो प्रिय बोलें भय आश। राज धर्म तन तीन कर होय वेग ही नाश।।’’ सचिव यदि प्रिय बोले तो राज्य, बैद्य यदि प्रिय बोले तो शरीर और गुरू यदि प्रिय बोले तो धर्म का नाश निश्चित है। प्रिय बोलना अहित कर इसलिए है, क्योंकि वह असत्य ही प्रिय है। इस तरह अर्थ की बजाय हम अनर्थ निकालते रहे और स्वार्थपरता में गधे को बाप बनाते हुए अपना उल्लू सीधा करते चले आ रहे हैं। ‘सत्य’ की परिभाषा सीधी है, उक्त सभी उक्तियां उचित और मानव जीवन के लक्ष्यवेध में मंत्र के रूप में हैं। ‘‘त्यागाय संभ्रतार्थानां, सत्याय मितभाषिणाम्’’ मितभाषी ही सत्यवादी होता है। साधक दीर्घकाल मौन साधना करता है जब मुंह से कोई शब्द निकलता तो वह सत् रूप ब्रह्मवाक्य होता है। वही प्रिय सत्य कहा गया है। सत्यनिष्ठा की अजस्र ऊर्जा शक्ति मितभाषी सत्यनिष्ठ साधक की रिद्धि-सिद्धि संपन्नता को प्रकट करता है। ‘‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्।’’
आइये! विचार करें!!
सत्-चित्-आनंद यानी सच्चिदानंद स्वरूप वह परमतत्व है, जिसे परब्रह्म परमात्मा या परमेश्वर कहते हैं। ‘‘सत्यं ब्रह्म जगन्मिथ्या’’ यह वेदबाक्य स्पष्ट करता है कि सत् रूप ब्रह्म है, सत् से सत्य शब्द बना अर्थात् जो सत् (ब्रह्म के योग्य है वही सत्य है। यह सत् जब मन-वाणी-कर्म ही नहीं बल्कि श्वांस-श्वांस में समा जाता है तब किसी तरह द्विविधा नहीं रहती। सिर्फ सत् से ही सरोकार रह जाय, तब ‘सत्यं वद’ को कंठस्थ हुआ मानो।
सन्मार्ग से विचलित न होना सत्स्वरूप परमेश्वर की कृपा से ही संभव है। सन्मार्ग पर पहला कदम है सद्विचारों का आविर्भाव होना। विचारों से दुबुद्धि का सद्बुद्धि के रूप में परिवर्तन दिखाई देगा। बुद्धि से संबद्ध विवेक में सत् का समावेश होगा और वह सत्यासत्य का भेद करने की राजहंसीय गति प्राप्त कर लेता है। अष्टांग योग प्रथमांग यम का प्रथम चरण ही सत् है, सत् पर केंद्रित होने की दशा में ही ‘योगश्चित्त वृत्तिः निरोधः’ सद्बुद्धि ही चित्तवृत्तियों को नियंत्रित करती है। अन्तःचतुष्टय में बुद्धि के बाद चित्त, अहंकार में ब्रह्मरूपी सत् समावेश होते ही मन पर नियंत्रण पाया जा सकता है। मन पर केंद्रित हैं, कामनायें। जो इन्द्रियों की अभिरुचि के आधार पर प्रस्फुटित होती है। कामनाओं का मकड़जाल ही तृष्णा है। संतोष रूपी परमसुख से तृष्णा का मकड़जाल टूटता है। मन द्वारा कामनाओं के शांत हो जाने से आचरण नियंत्रित हो जाता है। ‘‘आचारः परमो धर्मः’’ आचरण में सत् का समावेश ही सदाचार कहा गया है। ऐसे में कदाचार की कोई गुंजाइस नहीं रहती, मनसा-वाचा-कर्मणा लेश मात्र भी कदाचार दिखे तो मान लो कि यहां सत्यनिष्ठा का सिर्फ दिखावा है। सदाचार स्वच्छ मनोदशा का द्योतक है। जबकि कदाचार की परधि में अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार और भ्रष्टाचार अदि आते हैं। सत्-जन मिलकर सज्जन शब्द बनता है। प्रत्येक व्यक्ति सज्जन नहीं होता। इसी तरह सत् युक्त होने पर सन्यास की स्थिति बनती है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि सत्यनिष्ठा ही धर्मनिष्ठा, कर्मनिष्ठा और ब्रह्मनिष्ठा है। क्योंकि धर्म, कर्म ही ब्रह्मरूप सत् है। सत्य परेशान भले हो मगर पराजित नहीं होता। तभी तो ‘‘सत्यमेव जयते’’ के बेदवाक्य को राष्ट्रीय चिन्ह के साथ जोड़ा गया। यह भी विचारणीय है- सत्य परेशान भी क्यों होता है? अध्यात्म विज्ञान स्पष्ट करता है कि सत्यनिष्ठा में अंशमात्र का वैचारिक प्रदूषण यथा सामथ्र्य परेशानीदायक बन जाता है। सत्यनिष्ठा का सारतत्व यह है-‘‘हर व्यक्ति सत्य, धर्म व ज्ञान को जीवन में उतारे, यदि सत्य-धर्म-ज्ञान तीनों न अपना सकें तो सिर्फ सत्य ही पर्याप्त है क्योंकि वह पूर्ण है सत्य ही धर्म है, और सत्य ही ज्ञान। सदाचार से दया, शांति व क्षमा का प्राकट्य होता है। वैसे सत्य से दया, धर्म से शांति व ज्ञान से क्षमा भाव जुड़ा है।
सत् को परिभाषित करते हुए रानी मदालिसा का वह उपदेशपत्र पर्याप्त है जो उन्होंने अपने पुत्र की अंगूठी में रखकर कहा था कि जब विषम स्थिति आने पर पढ़ना। ‘‘संग (आसक्ति) सर्वथा त्याज्य है। यदि संग त्यागने में परेशानी महसूस हो तो सत् से आसक्ति रखें यानी सत्संग करो इसी तरह कामनाएं अनर्थ का कारण हैं, जो कभी नहीं होनी चाहिए। कामना न त्याग सको तो सिर्फ मोक्ष की कामना करो।’’ अनासक्त और निष्काम व्यक्ति ही सत्यनिष्ठ है। आसक्ति और विरक्ति के मध्य की स्थिति अनासक्ति है। जो सहज है, दृऋषभदेव व विदेहराज जनक ही नहीं तमाम ऐसे अनासक्त राजा महाराजा हुए है। आज भी शासन, प्रशासन में नियोजित अनासक्त कर्तव्यनिष्ठ नेता व अफसर हैं जिन्हें यश की भी कामना नहीं है।
( लेखक सत्यनिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों के संगठन ‘सत्यमेव जयते’ की नेशनल कार्यकारिणी में सदस्य तथा इंडिया अगेंस्ट करप्शन की टीम यूपी का सदस्य हैं)
 
 
== निष्कर्ष ==
वास्तव में अनुरूपतावाद, अविरोधवाद और व्यवहारवाद एक ही प्रश्न का उत्तर नहीं। दो प्रश्न उत्तर की माँग करते हैं - सत्य से क्या अभिप्रेत है? सत्य और असत्य में भेद करने की कसौटी क्या है? अनुरूपतावाद पहले प्रश्न का उत्तर देता है; अविरोधवाद और व्यवहारवाद दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हैं। जेम्स ने कहा है कि व्यवहार की दृष्टि में जब कोई विश्वास सत्य सिद्ध होता है, तो उसके लिए आवश्यक है कि वह उसी प्रकार के सत्यों से युक्त हो सके। यह धारणा व्यवहार को अविरोधवाद के निकट ले आती है। तीनों विचार एक दूसरे के विरुद्ध नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं।
 
== इन्हें भी देखें ==
* [[आर्यसत्य]]
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
* http://www.sacred-texts.com/hin/yogasutr.htm
* http://www.crystalclarity.com/yogananda/chap25.html
* http://satya.com
* [http://www.achhikhabar.com/2011/12/30/truth-quotes-in-hindi/ सत्य पर महान व्यक्तियों के विचार (Truth Quotes in English and Hindi)]
 
[[श्रेणी:दर्शन]]
"https://hi.wikipedia.org/wiki/सत्य" से प्राप्त