"छपाई (वस्त्रों की)": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:Morris Evenlode textile drawing.jpg|right|thumb|250px|हाथ द्वारा ठप्पे से छपाई हेतु एक डिजाइन। इससे ठप्पों की जटिलता का अनुमान लगाया जा सकता है]]
 
[[वस्त्र|वस्त्रों]] के उपर निश्चित पैटर्न या [[डिजाइन]] के अनुसार [[रंग]] चढ़ाने की प्रक्रिया का '''वस्त्रों की छपाई''' (Textile printing) कहते हैं। एक अच्छी छपाई वह है जिसमें रंग [[सूत]] के साथ एकाकार हो जाय ताकि घर्षण से या धुलाई करने पर भी रंग न छूटे। छपाई, [[रंजन]] (dyeing) से सम्बन्धित तो है किन्तु भिन्न कार्य है। रंजन की क्रिया में सम्पूर्ण सूत को एक ही रंग से समान रूप से रंग दिया जाता है जबकि छपाई की प्रक्रिया में एक से अधिक रंग केवल कुछ चुने हुए स्थानों पर ही लगाये जाते हैं। प्रिन्टिंग की क्रिया में काष्ट के ठप्पे, स्टेंसिलें, नक्काशी की हुई धातु की प्लेटें, रोलर या सिल्कस्क्रीन आदि का उपयोग किया जाता है। छपाई में प्रयुक्त रंजक इतने गाढ़े बनाये जाते हैं कि वे सूक्ष्मनलिका-क्रिया (कैपिलरी-एक्शन) द्वारा पसर न सकें।
 
== इतिहास ==
हमारे प्राचीन ग्रंथों में चित्रलेखा, चित्रांगदा, रंगशाला, आदि शब्दों का प्रयोग यह सूचित करता है कि अलंकारिता की दृष्टि से रंगों का प्रयोग [[भारत]] में अत्यंत पुराना है। वस्त्र की बुनाई करते समय रंगीन सूत द्वारा नाना प्रकार के रंगबिरंगे चित्र बनाए जाते थे। इसके उपरांत उसे छपाई द्वारा रंगबिरंगे चित्रों से सँवारा जाता था। प्लिनी (Pliny) के अनुसार "रंगाई छपाई" का जन्म भारत से होकर मिस्र आदि देशों में ईसा पूर्व प्रसारित हो चुका था।
 
== बातिक छपाई ==
छींट (Chhintz), गत (Blotch), बँधनी (Tie Dyeing) और बातिक (Batik) आदि शब्द वस्तुत: छपाई की क्रियाविशेष के सूचक हैं। छींट और गत की छपाई यंत्रों से की जाती है। छींट में रंगीन भूमि कम ओर गत में लगभग सभी वस्त्र रंगचित्रों से ढका होता है। बँधनी में कपड़े को डोरी से बाँध कर रंग के विलयन में रँगाई की जाती है। बातिक में मोम अथवा रोजिन का प्रयोग किया जाता है और कपड़े पर रंग की बहुलता होती है। छींट की छपाई में ही उत्पादन सबसे अध्कि और व्यय सबसे कम हो सकता है। ये छपे हुए कपड़े प्राय: सभी प्रकार के व्यक्तिगत रुचि के अनुरूप तथा आकर्षक होते हैं। एक की दूसरे से तुलना कर किसी को घटिया और किसी को बढ़िया कहना बड़ा कठिन है।
 
== बँधनी छपाई ==
कपड़े की छपाई को दो भागों में बाँटा जा सकता है : (1) सिद्धांत (principles) और (2) कार्यप्रणाली (practice)। सिद्धांत में वे सभी बातें आ जाती हैं जिनसे कपड़े पर पक्का रंग चढ़ता है। विधान या व्यवहार में उपकरणों का उपयोग और यथार्थ उत्पादन आदि आते हैं।
 
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माड़ी कट जाने के पश्चात्, प्राकृतिक मोम, पेक्टिक पदार्थ और प्रोटीन कपड़े पर रह जाते हैं। इनको निकालने के लिए माल का दाहक सोडा ऐश, साबुन आदि के साथ आठ दस घंटे तक भट्ठी (कियर, kier) में दबाव देकर उबाला जाता है और धोकर अम्लीय बनाने तथा रसायन (chemicaling) की क्रियाएँ की जाती हैं। प्रत्येक क्रिया के बाद पानी से धुलाई अच्छी तरह होनी चाहिए। अंत में टर्की रेड (turkey red) तेल के हल्के विलयन में उबालकर, गरम पानी से धो देने पर रंग निर्विघ्न अच्छा और गहरा चढ़ता है। कपड़े पर छपाई के दो पक्ष होते हैं : एक तो छपाई विधि या साधन (Methods of printing), जिसमें यंत्रों का वर्णन है, दूसरा रंगीय उपचार या प्रथाएँ (Styles of printing), जिसमें उन नियमों का वर्णन है जिनके द्वारा कपड़े पर रंगीन अभिकल्प (designs) उपस्थित किए जाते हैं।
 
== छपाई की विधियाँ ==
कपड़े पर छींट की छपाई चार विधियों से की जाती है :
* (1) हाथ ठप्पों (hand blocks) से,
* (2) मशीन के द्वारा ठप्पों से (machine block, or perrotine printing),
* (3-क) स्टेन्सिल (stencil) की छपाई,
** (3-ख) स्क्रीन (screen) की छपाई,
* (4) ताँबे को खुदी हुई चद्दरों से छापे की छपाई (flat press printing from engraved copper plates) तथा
* (5) बेल छपाई (roller printing)।
 
=== हाथ के ठप्पे और स्टेंसिल ===
स्क्रीन की लोकप्रियता अधिक है, पर बेलन प्रिंटिंग का उत्पादन अधिक होने से माल सस्ता तथा सर्वसुलभ होता है।
 
हाथ ठप्पे (Hand Blocks) - ये कई प्रकार के हाते हैं : केवलं लकड़ी के, ताँबे के, लकड़ी के ठप्पों में ताँबे की पत्तियाँ लगाकर और बहुरंगी ठप्पे (multicolour blocks) आदि। लकड़ी के ठप्पे कड़ी और सीझी हुई (seasoned) लकड़ी से बनाए जाते हैं। ये आवश्यकतानुसार 6फ़ फ़ चौड़े और 8फ़ फ़ लंबे हाते हैं, पर वांछित अभिकल्प के अनुसार छोटे भी न होने चाहिए कि काम करने में असुविधा हो। अभिकल्प उभरे हुए (in relief) हाते हैं। इनमें खोदाई करने में देर लगती है और ये जल्दी घिस जाते हैं। इस विधि के अन्य दोष ये लें कि हाथ से काम करने में उत्पादन कम होता है और छीपे (छापनेवाले) को परिश्रम अधिक करना पड़ता है। परंतु इस कला का सबसे बड़ा गुण यह है कि हाथ ठप्पे के द्वारा, कितना ही लंबा चौड़ा कपड़ा क्यों न हो छापा जा सकता है, जो किसी अन्य विधि से असंभव है। इसके अतिरिक्त अलंकारिता (ornamentation) की दृष्टि से भी यह अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। इसके व्यवसाय में व्यय कम लगने से घरेलू धंधों में इसका चलन है। ठप्पा रग लगाने का साधन है। रंग थाली से लिया जाता है। यह लकड़ी की आयताकार होती है जिसकी तली में आजकल रबर की चादर लगाने का रिवाज़ चल गया है, इस थाली में आवश्यक समग्री, मिश्रित रंग क पेस्ट भर दिया जाता है। इसके ऊपर बाँस की पतली खपच्चियों से बनी एक टटिया रख दी जाती है। इसे इसी टटिया के बराबर जूट, टाट या कंबल के टुकड़े से ढक दिया जाता है। इन सब के ऊपर टाट के बराबर एक मलमल का टुकड़ा बिछा दिया जाता है। इन सब के ऊपर टाट के बराबर एक मलमल का टुकड़ा बिछा दिया जाता है। टाट और मलमल को रंग के पेस्ट में भिगोकर, साधारण निचोड़ कर और तब अच्छी तरह खोलकर इस प्रकार बिछाना चाहिए कि उनमें सिकुड़न न रहे। इस प्रकार विछी हुई गद्दी पर सरलता से आगे पीछे बदलकर, ठप्पे में दो बार रंग लगाकर, तब कपड़े पर लगाना चाहिए। कपड़े पर रंग लगाने से पूर्व उसे मेज पर बिछा लिया जाता है। यह मेज छपनेवाले कपड़े की लंबाई चौड़ाई को ध्यान में रखकर, लगभग 11 फीट लंबी, 30 इंच चौड़ी और 45 इंच ऊँची, होनी चाहिए। परंतु बैठकर काम करनेवाले लगभग 60 इंच लंबी, 30 इंच चौड़ी और 15 इंच ऊँची मेज पर सुविधापूर्वक काम करते हैं। मेज प्रत्येक दशा में चौरस और भारी होनी चाहिए, जिससे हिले नहीं। उसपर पहले एक मोटा कंबल बिछाकर, उसके ऊपर उबाली हुई कोरी खद्दर (back grey) की कम से कम दो या चार तहें देकर तब छपाई का कपड़ा इस प्रकार फैलाना चाहिए कि उसमें सिकुड़न न रहे। कोई कोई छीपे बारक कपड़े की छपाई करते समय उसे बबूल के काँटों अथवा आलपिनों से स्थिर कर देते हैं। इसके पश्चात् ऊपर बताए अनुसार ठप्पे को रंगकर छपाई की जाती है। अभिकल्प को ध्यान में रखते हुए कपड़े पर, उसे मोड़कर, रेखाएँ निर्धारित कर ली जाती हैं। इन्हीं के सहारे छपाई आगे बढ़ती है।
 
== स्टेंसिल की छपाई (Stencil Printing) ==
कागज के ऊपर चित्र बनाकर बच्चे उसे इस प्रकार काटते हैं कि चित्र के छिद्रों से ब्रश द्वारा रंग डाला जाए तो नीचे रखे दूसरे कागज या कपड़े पर वैसा ही चित्र बन जाए। इस कला को स्टेंसिल काटना और इस प्रकार की छपाई को स्टेंसिल की छपाई कहते हैं। कागज़ को स्टेंसिल टिकाऊ नहीं होती, अत: ताँबे की स्टेंसिल का कपड़े की छपाई में उपयोग होता है। ब्रश की जगह एअरोग्राफ गन (aerograph gun) का उपयोग किया जाता है। इस यंत्र में मुख्य दो अंग होते हैं। एक रंग प्याली (colour cup) होती है, दूसरी वायुनलिका, जिससे दबावयुक्त वायु (air under pressure) आती है। जब लिबलिबी (trigger) को दबाया जाता है, हवा आगे बढ़कर रसते हुए रंग पेस्ट से मिलती है और एक बारीक तुंड (nozzle) से फुहारे के रूप में रंग के साथ स्टेंसिल के ऊपर पड़ती है, और चित्र के छिद्रों से होकर कपड़े पर तत्सम चित्र बनाती है। एक एक चित्र में दस बारह रंग तक सरलतापूर्वक लगाए जा सकते हैं। इस साधन की यह विशेषता है कि इसमें रंग की आभा (shade) हल्की से हल्की और गहरी से गहरी की जा सकती है। एक कलाकार के हाथों इस विधि द्वारा रंगों की जो अलंकारिता लाई जा सकती है वह असीम है। इसके चित्रित फूलों पर मधुमक्खी या भ्रमर तक सरलता से बनाए जा सकते हैं। परंतु उत्पादन अत्यंत कम होने से स्टेंसिल की छपाई कार्यविशेष के लिए ही सीमित है।
 
== स्क्रीन की छपाई (Screen Printing) ==
स्टेंसिल का विकसित रूप स्क्रीन है। स्क्रीन जाली (gauze) से बनाई जाती है। रेशम का कपड़ा (silk cloth), अरंगडी (organdie), ताँबे के तारों की जाली, आधुनिक टेरिलीन (terylene) या नाइलॉन (nylon) का कपड़ा इत्यादि स्क्रीन बनाने में प्रयुक्त होते हैं। कुछ रंगों के पेस्ट में दाहक सोडा पड़ता है, जिससे रेशम का कपड़ा धीरे-धीरे गल जाता है। ऐसी दशा में रेश्म का कपड़ा अनुपयुक्त होता है। जाली या कपड़े की लकड़ी के आयताकार साँचे में खींचकर लगाया जाता है। लकड़ी की छोटी छोटी खपच्चियों को लगाकर चारों ओर खाँचे में अच्छी तरह कस दिया जाता है। इस आयत की दीवार लगभग तीन इंच ऊँची, आधी इंच मोटी और छह इंच लंबी होती है। आयत की चौड़ाई चार फुट के लगभग हो सकती है। अभिकल्प को जाली पर राल वार्निश्, या सेलूलोज़ लाक्षारस (cellulose lacquer) से इस प्रकार बनाया जाता है कि जहाँ चित्र हो वहाँ लाक्षारस न लगने पाए और शेष सब स्थान लाक्षारस से भर जाएँ। इस प्रकार बनाई स्क्रीन पर जब रंग डालकर, रबर के निपीड़क (squezee) से रंग आगे पीछे खींचा जाएगा, तब रंग चित्रित स्थानों को पारकर कपड़े पर पहुँच जाएगा। इस प्रकार स्क्रीन की छपाई की जाती है। निपीड़क आध इंच मोटे, दो इंच चौड़े और अभिकल्प की चौड़ाई के अनुसार दो फुट लंबे इंडिया रंबर के खंड को लकड़ी के खाँचेदार तीन इंच मोटे, और दो फुट लंबे हत्थे में जमा कर बनाया जाता है। ठप्पे की छपाई के लिए बनाए गए नियमों के अनुसार स्टेंसिल और स्क्रीन में भी कपड़ा मेज के ऊपर बिछाया जाता है। मेज की लंबाई स्क्रीन में 100 गज तक तथा चौड़ाई कपड़े की चौड़ाई से कुछ अधिक रखी जाती है। यह मेज छपाई धुलाई की सुविधा के लिए एक ओर को कुछ ढलुवाँ होती है। जहाँ गरमी देने का साधन है वहाँ मेज का ऊपरी तल धातु का, जैसे जस्ते की चादर का, होता है। कहीं कहीं आजकल सीमेंट का भी उपयोग होता है। कपड़े को स्थिर रखने के लिए ऊपर मोम लगा दिया जाता है। इस दश में मेज के ऊपर बेठन (कंबल, बैक ग्रे आदि) न भी रहे तो कोई असुविधा नहीं होती। मेज पर और स्क्रीन की लकड़ी में सानुपातिक खाँचे (catch points) बने होते हैं जिससे अभिकल्प दोबारा रखने (repeat) अर्थात् लगाने में आसानी पड़े। भारतीय कपड़े की मिलों में, विशेषकर जहाँ कृत्रिम रेशम या रेयन बनता है, इस पद्धति से छपाई बड़े पैमाने पर होती है। स्क्रीन का उपयोग रेशम की छपाई में इसलिए अधिक मान्य है, क्योंकि रोलर प्रिंटिंग मशीन पर सुविधापूर्वक उसे नहीं छापा जा सकता। कपड़े का रूप भी कुछ बिगड़ जाता है। अहमदाबाद, मुंबई और वाराणसी में स्क्रीन की छपाई घरेलू धंधों के रूप में भी काफी प्रचलित है। जापान और स्विट्जरलैंड तो इसके केंद्र ही हैं।
 
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हाथ के काम में चार आदमियों द्वारा, 60 गज की मेज पर, आठ घंटे में लगभग 400 गज कपड़ा और मशीन द्वारा लगभग 600 गज कपड़ा छापा जा सकता है।
 
== बेलन छपाई विधि या सिलिंडर प्रिंटिंग (Roller or Cylinder Printing) ==
यह आजकल की छींट की छपाई का आधुनिकतम और पूर्ण सफल साधन है। इस यंत्र का आविष्कार 1785 ई. के लगभग एक अंग्रेज सज्जन, बेल, (Bell) ने किया, यद्यपि इससे पूर्व फ्रांस और अन्य देशों में भी इसका स्वरूप सोच लिया गया था और संभवत: कुछ प्रयोग इसपर हुए भी थे, तथापि सफलता का श्रेय बेल को ही प्राप्त हुआ। इस यंत्र में वे सभी आवश्यक अंग हैं जो छपाई के लिए अनिवार्य होते हैं। इसमें मेज की जगह सिलिंडर और ठप्पों की गद्दियों के स्थान पर रंग थाली (colour furnisher) और लकड़ी के ठप्पों के बजाय ताँबे के बेलन (copper rollers) होते हैं।
 
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रोलर छपाई का उत्पादन अन्य सभी साधनों से अत्यंत अधिक है। इसके चार रंगों का अभिकल्प आठर घंटे में 20,000 गज कपड़ा छाप हो सकता है। अधिक से अधिक 18 रंगों की छपाई में आठ नौ हजार गज का उत्पादन हो सकता है। अधिक से अधिक 18 रंग तथा छापने की मशीन अभी बनी है। इस मशीन में प्राय: सूती कपड़ा ही अधिक छापा जाता है और अधिकांश सूती कपड़े की मिलें इसे लगाए हुए हैं। अन्य जाति के कपड़े भी इसपर उसी प्रकार छापे जा सकते हैं जैसे सूती कपड़े, किंतु छपनेवाले कपड़े का धरातल चिकना ओर समतल एव कपड़े पर पड़नेवाला खिंचाव यथोचित कम होना चाहिए।
 
== छपाई की प्रथाएँ (Styles Of Printing) ==
छपाई के आरंभिक काल में साधनगत विभाजन का चलन था, परंतु आजकल रंजक और रंगने में क्रमश: महान् विकास हो जने से उन रीतियों को विभाजन का आधार बनाना पड़ता है जिनके द्वारा छपाई में कपड़े पर रंग खिलता हे, या रंग स्थापित किया जाता है। रासायनिक अथवा यांत्रिक क्रियाओं के आधार पर इन रीतियों को अलग-अलग वर्गों में रखा जा सकता है, जो प्रत्येक की भिन्न-भिन्न होती हैं। इन्हीं को छपाई की प्रथाएँ कहते हैं। भाप छपाई (steam style or direct printing), रंजक छपाई (dyed style) और कटाव छपाई (discharge style) आदि इनके उदाहरण हैं।
 
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* पहले से रंगे एवं सुखाये गये वस्त्र पर समुचित पैटर्न में [[विरंजक]] (bleaching agent) का प्रयोग करके रंग छुड़ा दिया जाता है।
 
=== भाप की छपाई प्रथा (steam style or direct printing) ===
यह आजकल की सर्वाधिक छपाई की प्रथा है। इसमें वे ही रंजक प्रयुक्त होते हैं जो छपनेवाले कपड़े के प्रति सीधी बंधुता (direct affinity) रखते हैं, अथवा जो रसायनकों के संयोग से इस प्रकार की बंधुता उत्पन्न कर सकते हैं, जैसे अम्लीय और क्रोम रंगस्थापक तथा समाक्षारीय एल्शियन (Alcian) और विलेय कुंड (vat) रंजक ऊनी तथा रेशमी वस्त्र पर; प्रत्यक्ष (direct), समाक्षारीय, गंधकी, वैट (vat), विलेयकृत वैट रंजक अथवा वैट रंजकों के लिउको एस्टर्स (leuco esters), आज़ोइक (Azoic), जिनमें बीटा-नैपथाल (b-Naphthol), नैपथाल ए.एस. (Naphthol AS series), रैपिडफास्ट (Rapidfast), रैपिडोजन (Rapidogen) तथा पैरिडेज़ॉल (Rapidazol) भी संमिलित हैं और एनिलीन काला (Aniline Black), एलिजरिन क्रोम रंगस्थापक (chrome mordant) एवं वे सभी वानस्पतिक रंग जो रंगस्थापक द्वारा कपड़े पर चढ़ाए जाते हैं सूती कपड़े या समान गुणवाले रेयन के लिए उचित हैं। रंगस्थापक वह रासायनिक पदार्थ है जो रेशे और रंग दोनों के प्रति बंधुता रखता है। जब वह स्वयं कपड़े पर स्थापित हो जाता है तब रंग को भी चढ़ा लेता है। इस वर्ग के रंगों में प्राय: कपड़े के प्रति सीधी बंधुता नहीं होती। रंगस्थापक और समाक्षारीय रंजक यद्यपि सूती रेशे पर सीधे नहीं चढ़ते, तथापि इनको इस प्रथा में सम्मिलित किया गया है, क्योंकि इन रंगों को कुछ ऐसे रसायनकों के साथ छापा जाता है जिनका रंगस्थापक पहले निष्क्रिय रहता है, पर भाप लगने पर सक्रिय होकर रंगस्थापक और रंजक दोनों एक साथ रेशे पर चढ़ जाते हैं। इस प्रथा में प्रयुक्त रंजकों का योग (recipe) भी विभिन्न वर्ग के रंजकों के अनुसार पृथक पृथक् होता है। उदाहरण के लिए, प्रत्यक्ष (direct) रंजकों के साथ सोडा फॉस्फेट (sodaphosphate) कुंड रंजकों के साथ अवकरणीय पदार्थ, जैसे सोडियम सल्फॉक्जिलेट फामैंल्डिहाइड (Sodium sulphoxylate formaldehyde), या आई.सी.आई. निर्मित फॉर्मोसल (Formosul) और क्षार (alkali) जैसे पोटासियम कार्बोनेट, रंग को सक्रिय रूप देने के लिए लेना अनिवार्य है। इसी प्रकर माड़ी के अतिरिक्त अन्य रंजकों के साथ भी उचित रसायनकों का होना नितांत आवश्यक है।
 
इस प्रथा में भाप का महत्व प्रमुख है। आज़ोइक (azoic) रंजकों को छोड़कर शेष अन्य रंजकों के साथ भाप देना अनिवार्य है। आज़ोइक के रैपिडेज़ाल को भी भाप देकर विकसित किया जाता है। रैपिडोजेन (Rapidogen) रंजकों को अम्लीय भाप (steaming in acid fumes) से उपचारित करते हैं। रैपिडफास्ट (rapid fast) रंजकों को छपाई के पीछे कपड़े को दो-तीन दिन हवा में लटकाकर, अथवा भाप देकर, या उबलते तनु कार्बनिक अम्ल के विलयन में चलाकर, उभाड़ा जा सकता है। रंजक और उसके आनुषंगिक रसायक माड़ी (thickening agents) में मिलाकर कपड़े पर हाथ ठप्पे, स्क्रीन, स्टेंसिल या रोलर पिं्रटिग यंत्र से छाप दिए जाते हैं। पीछे कपड़े को सुखाकर घरेलू वाष्पयंत्र (Cottage Steamer) में एक घंटे और गतिवान् पक्वित्र (Rapid Ager) में तीन से लेकर सात मिनट तक भाप दी जाती है। इस प्रकार कपड़े पर रंग चढ़ाकर फिर उससे लिपटा हुआ (unfixed colour) रंजक सबुनिया (soaping) कर निकाल दिया जाता है। परंतु कभी-कभी इससे पहले कुंड रंजकों में आक्सीकरण अथवा बेसिक रंगों में स्थिरीकरण क्रिया (fixing), कर लेना आवश्यक है, अन्यथा रंग फीका आएगा और पक्का भी नहीं रहेगा। रंजक वर्ग के अनुसार ही रंग पक्का अथवा कच्चा होता है। पक्के और कच्चे रंग के अनुसार ही छपाई का व्यय भी कम या अधिक होता है।
 
=== छपाई की रँगाई प्रथा (dyed style) ===
यह अपने देश की प्राचीनतम छपाई प्रथा है, जो कुछ समय पूर्व संसार के अनेक देशों में व्यापक रूप से प्रचलित थी। आज भी "रामनामी" वस्त्र की छपाई मथुरा ओर उसके आसपास के जिलों में इसी विधि से होती है। छपाई के पहले कपड़े पर रंगस्थापक लगाना पड़ता है। रंगस्थापक को उचित रसायनकों से क्रियान्वित करके, कपड़े पर स्थापित करने के बाद उसकी धुलाई की जाती है। तदनंतर गीली दशा में ही रँगाईपात्र में उचित योगों के साथ वांछित रंग दिया जाता है। रंगस्थापक अभिकल्प के अनुसार लगाया जाता है, अत: रंग रंगस्थापकस्थित अभिकल्पों पर ही चढ़ता है। इस प्रकार चार रंग के अभिकल्प के लिए चार रंगस्थापक लगाने पड़ेंगे। इनका लेप रंगरहित होता है, इसलिए नील का प्रयोग प्रदर्शक (sighting agent) के रूप में किया जाता है। रंगस्थापक अनेक होते हैं और लगभग उन सबसे एक ही रंजक के अलग अलग रंग प्राप्त होते हैं। किन्हीं दो को मिलाकर रंग में परिवर्तन भी किया जा सकता है, क्योंकि रंग रंगस्थापक के अनुसार ही होता है और मिलाने पर एक का वर्ण दूसरे से प्रभावित हो जाता है।
 
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जो रंग रंगस्थापक की सहायता से चढ़ाए जाते हैं, वे सभी इस प्रथा से छापे जा सकते हैं। इस प्रकार समाक्षारीय रंजक भी इसके लिए उपयुक्त हैं, परंतु साधारणतया प्रकाश और धुलाई के लिय कच्चे होने से इनका चलन स्वतंत्र रंगत में अधिक नहीं है। क्रोम रंगस्थापक रंजक भी उपर्युक्त सिद्धांत के अनुसार उचित हैं, परंतु इनमें सभी आभा के रंग उपलब्ध होने से इनको प्राय: सीधी (direct) छपाई द्वारा ही काम में लाया जाता है। ऊनी या रेश्मी वस्त्रों की छपाई में अन्य योगों के साथ क्रोम ऐसिटेट (chrome acetate) रंग स्थिरीकरण के लिए उपयोग में आता है। अम्लीय माध्यम होना आवश्यक है।
 
=== कटाव प्रथा (Discharge Style of Printing) ===
इस छपाई में पहले कपड़े को किसी रंग में रंगना होता है। रंगाई वैसे ही की जाती है जैसे वस्तु रंगाई कला में प्रचलित है, अर्थात् रंग घुलाकर, रंजक जाति के अनुसार उचित योगों को लेकर, रंगपात्र में चलाना, पकाना आदि। पूर्ण रँगाई क्रिया के पश्चात्, कपड़े पर अभिकल्प के अनुसार कटाव कारक (discharging or cutting agent) लगाया जाता है। सुखाई करके भाप दी जाती है, घरेलू भापयंत्र में एक घंटा और गतिवान् पक्वित्र में तीन से 10 मिनट तक समय दिया जाता है। इसी बीच कटाव की क्रिया संपन्न होता है। उसके बाद माल को बाहर निकालकर हवा में सुखाया जाता है और आक्सीकरण आदि क्रियाएँ की जाती हैं। अंत में साबुन से धोकर कपड़े को अच्छी तरह साफ कर दिया जाता है। कपड़ा रंगीन होता है। यदि केवल कटाव का योग ही लगाया जाएगा, तो कपड़े की रंगीन पृष्ठभूमि पर श्वेत अभिकल्प होंगे, जो गोल बूँदों के या अलंकार के रूप में दृष्टिगोचर होंगे। इसे श्वेत कटाव कहा जाएगा। यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि केवल श्वेत चिह्नों में अलंकारिता का विस्तार अत्यंत सीमित हो सकता है। इसलिए रंगीन पृष्ठभूमि पर कटाव के माध्यम से एक श्वेत और कई एक रंगीन कटाव किए जाते हैं। रंगीन कटाव के लिए कटावकारक में ऐसे रंजक उचित अनुपात में मिश्रित कर दिए जाते हैं जो कपड़े के रंग को वाष्पन में काट दें। इन मिश्रित रंगों की अन्य क्रियाएँ, जैसे रंगउभाड़, अवकरण एवं आक्सीकरण आदि वैसी ही होती हैं जैसी उनकी निजी सीधी छपाई में। इन मिश्रित रंजकों में आभानुसार एक ही वर्ग के कई रंजक, अथवा कई वर्गों के रंजक, लिए जा सकते हैं। किंतु ये केवल ऐसे ही होने चाहिए जो कटाव कारक से नष्ट न हों, रेशे से उचित बंधुता रखते हों तथा कटाव कारक में उनका वर्ण भी परिवर्तित न हो। एक ही रसायनक एक रंजक के लिए घातक और दूसरे के लिए हितकर हो सकता है।
 
कटाव कारक तीन प्रकार के होते हैं। एक तो आक्सीकारक, जैसे बाईक्रोमेट, नाइट्रेट, क्लोरेट, ब्रोमेट आदि। इनके प्रभाव को बढ़ाने या उत्प्रेरित करने के लिये आक्सीजन वाहकों एवं उत्प्रेरकों का प्रयोग किया जाता है। दूसरे कटाव के पदार्थ अवकारक होते हैं, जैसे स्टेनस क्लोराइड, हाइड्रोसल्फाइट और सल्फॉक्ज़िलेट-फार्मैल्डिहाइड (Sulphoxylate Formaldehyde) अथव आई.सी.आई. निर्मित व्यापारिक फार्मोसल (Formosul) या आई.जी. निर्मित रांगोलाइट सी (Rongolite C) आदि। इनके प्रभाव को बढ़ाने के लिए ऐंथ्राक्विनोन लेप (Anthraquinone paste) और ल्यूकोट्राप डब्ल्यू (Leucotrope W) को कटाव कारक में मिलाना पड़ता है। तीसरे प्रकार के कटाव पदार्थ अम्ल होते हैं, जो प्राय: खनिज रंगों की ही कटाई में काम आते हैं। ये रासायनिक पदार्थ अलग अलग रंगजाति के कटाव के लिए लगभग निश्चित से हो गए हैं, यद्यपि इनका उपयोग दूसरे समकक्ष रंजकों में भी किया जा सकता है। इन पदार्थो का चुनाव इस प्रकार करना चाहिए कि ये मिश्रित रंग के मूल रसायनकों का विरोध न करें, जैसे आज़ोइक रंजकों के पृष्ठभूमि कटाव में पोटासियम कार्बोनेट, दाहक सोडा, हाइड्रोसल्फाइट और फॉर्मोसल आदि लिए जाते हैं। इन्हीं पदार्थों को कुंड रंजकों के मूल लेप में, उनकी प्रत्यक्ष छपाई में अथवा उनकी रंगाईं में उपयोग में लाया जाता है। अब कुंड रंजकों को इन कटाव के पदार्थों में मिलाकर आज़ोइक रंजकों के तल (ground) की निर्विघ्न कटाई की जा सकती है। इनमें से कोई भी पदार्थ कुंड रंजक के वस्त्र पर चढ़ने में हानिकारक न होकर पूरक होगा। यदि कुंडरंजक के अतिरिक्त सरल रंजकों (diret colours) को रंग कटाव के लिय लिया जाय, तो अनुचित होगा, क्योंकि सरल रंजक इन पदार्थों में स्वयं कटकर रंगहीन हो जायँगे। सरल रंजकों में केवल पीला रंग ही ऐसा होता है जो इन योगों से नहीं कटता। उसे पीले कटाव में आज़ोइक के तल पर लिया जा सकता है। नील तथा अन्य कुंडरंजकों की तल कटाई के लिए आक्सीकारक पदार्थ उपयुक्त होते हैं। परंतु जिन रंजकों में ऐंथ्राक्विनोन लेप आदि उत्प्रेरक मिले हों उन्हें अवकारक पदार्थों से भी काटा जा सकता है। सरल रंजकों के तल को भी आज़ोइक रजकों की भाँति ही काटा जा सकता है, परंतु योगों की मात्रा और भाप का समय कम होना चाहिए।
 
=== प्रतिरोध (Resist) छपाई ===
कटाव में कपड़े को रंगकर तब उसका रंग काटा जाता है, किंतु प्रतिरोध प्रथा में कपड़े पर प्रतिरोधी (resisting agent) पहले ही लगा लिया जाता है, तब सुखाने के बाद रँगाई की जाती है। प्रतिरोधी लगे स्थलों पर रंग नहीं चढ़ता शेष सब कपड़ा भली प्रकार रँग जाता है। प्रतिरोधी में रंग मिलाकर चित्रित किया जाए, तत्पश्चात् रँगाई की जाए, तो रंगीन प्रतिरोधन प्राप्त होगा। ये प्रतिरोधन दो प्रकार के होते हैं- एक तो यांत्रिक, जो अपरिवर्तित भौतिक रूप से बिना किसी परिवर्तन के काम करते हैं, जैसे मोम, रेजिन, चीनी मिट्टी, जिंक ऑक्साइड, चर्बी, सीस, बेरिय सल्फेट आदि। वातिक और बंधनी की छपाई इसी श्रेणी में आती है, परंतु इन पदार्थों को रासायनिक प्रतिरोधकों के साथ भी मिलाते हैं, जिससे सक्रिय रंजक तत्व कपड़े तक न पहुँच सकें। दूसरे रासायनिक द्रव्य, जो क्रियाकलाप के बीच ऐसी दशा उत्पन्न कर देते हैं कि रँगाई के समय योग लगे स्थलों पर कपड़ा रंग नहीं पकड़ता, तथा बिलकुल श्वेत रहता है। रासायनिक प्रतिरोधी चार प्रकार के होते हैं : (1) अवकारक, जैसे सोडियम या पोटाशियम सल्फाइट, सोडियम या पोटशियम बाइसल्फाइट, स्टैनस क्लोराइड, हाइड्रोसल्फाइट और फार्मोसल आदि, (2) आक्सीकारक, जैसे तूतिया, ऐमोनियम क्लोरेट, सोडा बाईक्रोमेट, सोडियम क्लोरेट, ऐमोनियम वैनेडेट आदि, (3) क्षार, जैसे दाहक सोडा, ऐश, और पोटासियम कार्बोनेट आदि, (4) अम्ल जैसे साइट्रिक, टैनिक, टार्टरिक और काक्ज़ैलिक अम्ल आदि। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे धातुलवण भी होते हैं जो भाप में विघटित होकर अम्ल देते हैं। इन्हें भी लिया जा सकता है। प्रतिरोधियों को लगाकर सुखाना चाहिए। यदि प्रतिरोधी श्वेत (white resist) है, तो कपड़े को सुखाकर पैडिंग (padding) द्वारा इस प्रकार रंगते हैं कि कपड़ा केवल दोनों बेलनों के बीच से जाता है, कक्ष से नहीं और नीचेवाले रोलर पर एक कपड़ा लपेट दिया जाता है।
 
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यांत्रिक प्रतिरोधियों का उपयोग स्वतंत्र रूप से बंधनी (tie-dyeing) और बातिक (batik) की छपाई में होता है। बँधनी में कपड़े का केवल पतली डोरी से अभिकल्प के अनुसार बाँधकर रँगाई की जाती है। कई रंग लगाने के लिए यह क्रिया कई बार में पूरी की जाती है। जब रँगाई ठंडे में करनी हो तब रस्सी में मोम लगाकर उसे भी जलसह बना लिया जाता है। उचित रँगाई के योगों के साथ रंगाई की जाती है। इस प्रथा का उपयोग जयपुर, जोधपुर आदि राजस्थानी नगरों में अब भी अधिक पाया जाता है। प्रसिद्ध जयपुरी साफा इसी रीति से रंगा जाता है।
 
=== बातिक (Batik) ===
अनुमानत: यह संस्कृत शब्द "वार्तिक" से बना है, जिसका अर्थ बत्ती होता है। इस क्रिया में प्रयुक्त मोमबत्ती के आधार पर इसका यह नाम पड़ा है। मोम लगाकर कपड़े को बत्ती की भॉति लपेट कर रंगाई के लिए झुर्रियाँ (cracks) डाली जाती हैं। संभवत: प्रारंभ में यह कला दक्षिण भारत के समुद्री तटों पर प्रचलित थी। वहीं से पूर्वी देशों - जावा, सुमात्रा की ओर जाकर उन देशों की मुख्य छपाई कला हो गई। अब इसका प्रचार हमारे देश में नहीं है। शांतिनिकेतन के कुछ कलाकार कला के रूप में इसे प्रदर्शित करते हैं। व्यापारिक वस्त्र छपकर जावा में ही तैयार होता है, भारत में नहीं। इस प्रथा से छपा हुआ कपड़ा बड़ा आकर्षक, सुंदर, उसकी अलंकारिता अत्यंत जटिल, विचित्र और अनेक रंगों से युक्त होती है। इसकी छपाई में अधिक समय और अनुभव एवं कार्यदक्षता की विशेष आवश्यकता होती है। जावा और अन्य पूर्वी देशों में इस प्रकार के कपड़े उत्सवों और विशेष अवसरों पर पहनने का चलन है। 17वीं, 18वीं और 19वीं शताब्दी में इसका विकास अधिक हुआ तथा यह चीन, जापान, इंडोचीन, और पश्चिम में हालैंड, जर्मनी एवं फ्रांस तक में फैल गया था। अंत में बेलन छपाई के सामने यह कला टिक न सकी, विशेषकर पश्चिम में, और अब केवल जावा इसका केंद्र रह गया है।
 
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प्रारंभ में यह छपाई प्रथा बड़े घरों में समय काटने का साधन थी, बाद में, विशेषकर जावा में, घरेलू धंधों के रूप में इसका प्रचलन बड़ी मात्रा में होने लगा और आज भी वहाँ जनसंख्या के एक बड़े भाग के जीविकोपार्जन का यह मुख्य साधन है।
 
=== धातु छपाई प्रथा ===
जरी की बुनाई में सोने-चाँदी के तारों का उपयोग किया जाता है। ऐसे वस्त्रों का मूल्य साधारण मनुष्य की क्रयशक्ति के परे होता है, अत: छपाई द्वारा इस कमी की पूर्ति करने का प्रयास छीपों ने किया है। इसमें धातुचूर्ण को काम में लाया जाता है। ये चूर्ण सोना, चाँदी, बनावटी सोना और ऐल्यूमीनियम आदि चमकदार धातुओं के होते हैं। इनका कपड़े पर चिपकाने के लिए कुछ आर्सजकों का उपयोग किया जाता है, जैसे लिथाफोन (Lithophone), प्राकृतिक प्रकाश संश्लेषिक राल, रोगन, असली का उबाला तेल, वार्निश (Lacquer) आदि। कपड़े की यथोचित रँगाई करके, सुखाने के बाद या पीतल के ठप्पों से आर्सजकों का अपेक्षित अभिकल्प लगाया जाता है उसके ऊपर पतले कपड़े की पोटली में बाँधकर धातुचूर्ण को धीरे-धीरे छिटकाया जाता है। इस प्रकार आसंजक पर धातुचूर्ण लगाकर कपड़े को दो तीन दिन धूप तथा छाया में लटकाने से आसंजक सूख जाता है और चूर्ण स्थायी होकर पक्का हो जाता है।
 
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आजकल उपर्युक्त सिद्धांत के आधार पर ही '''फ्लॉक (Flock) छपाई''' का आविष्कार हुआ है। इसमें धातुचूर्ण के स्थान पर रूई, ऊन, रेशम और रेयन के एक या दो मिलीमीटर लंबे, अथवा आवश्यकतानुसार छोटे एवं बड़े टुकड़े, काटकर कपड़े पर चिपकाए जाते हैं। पोटली या अन्य साधन के द्वारा रेश चूर्ण को छिटककर पारदर्शी वस्त्रभूमि, जैसे ऑरगैंडी या नाइलॉन पर, इसकी छपाई बहुत सुंदर और आकर्षक होती है। मशीन के द्वारा कपड़े के साथ 90 डिग्री का कोण बनाते हुए रेशें एवं बड़े टुकड़ों को खड़ा लगाने का चलन भी हो गया है। ऐसे कपड़े को पाइल फैब्रिक (pile fabric) कहते हैं। यह देखने में वैसा ही होता है जैसे गलीचे का कपड़ा। जिस मशीन के द्वारा इनको कपड़े पर लगाया जाता है, उसमें चुंबकीय आकर्षण होता है, जिसके संपर्क में आनेवाला रेशासमूह कपड़े में खड़ा लग जाता और आसंजक पदार्थ की वहाँ पूर्वस्थिति होने से, उसी में खड़ा स्थिर होकर पक्का हो जाता है। इस कला में प्रयुक्त आसंजक आधुनिक होते हैं और ये साबुन की धुलाई के लिए तो पक्के होते ही हैं, प्राय: उनमें से अधिकांश शुष्क धुलाई के लिए भी पक्के होते हैं, रेशे, रेशों के टुकड़े या चूर्ण, श्वेत अथवा रंगीन काम में लाए जाते हैं। चमड़े के चूर्ण को भी इसी प्रकार चिपकाकर नाना प्रकार की सुंदर एवं आकर्षक वस्तुएँ व्यापारिक स्तर पर बनाई जाती है। ऐल्यूमीनियम के चूर्ण को इसी पद्धति से छापकर आग बुझानेवाले कर्मचारियों के बहुमूल्य कपड़े बनाए जाते हैं।
 
== उपसंहार ==
छपाई की जिन पद्धतियों का ऊपर वर्णन किया गया है, उत्पादन और व्यापारिक दृष्टि से वे ही महत्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त कुछ और पद्धतियाँ भी हैं, जो कार्यविशेष के लिए ही निश्चित हैं और जिनका चलन उद्योग में सीमित है, जैसे उभाड़ प्रथा (Raised style) जो रसायनकों के अवक्षेपन द्वारा होती है, क्रीपान प्रथा (Crepon or crimp style) जो दाहक सोडा के मर्सरीकरण शक्ति के सांद्रण से प्राप्त होती है और धारी की छपाई (printing of linings) जो ब्रोकेड ऐसे कपड़ों के लिए भी प्रचलित है, परंतु अधिक नहीं।
 
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ऊपर बताई हुई प्रथाओं से रेशे के अनुसार उचित रंग और योग लेकर सूती, ऊनी रेशमी अथवा रेयन सभी प्रकार के कपड़े छापे जा सकते हैं। दाहक क्षारों का उपयोग ऊनी और रेशमी रेशों पर वर्जित है। इनका माध्यम सदैव अम्लीय होना अनिवार्य है। अत: पेस्ट बनाते समय इसे ध्यान में रखना आवश्यक है। छपाई में रंगाई की तरह रंग चढ़ाना मुख्य ध्येय होता है, अत: योग (recipe) ऐसा बनाना चाहिए जिससे निर्दिष्ट रेशे पर अपेक्षित रंग चढ़ जाए। योग में रासायनिक द्रव्यों की मात्रा कम या अधिक करना विशेषज्ञ के इच्छानुसार हो सकता है। एक रसायनक के अभाव में अन्य समगुणाधर्मी रसायन द्रव्य लिया जा सकता है, परंतु मूल सिद्धांत यह है कि रंग की विलेयता, बंधुता और उसके स्थायित्व आदि में अंतर नहीं आना चाहिए।
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://www.gyandarpan.com/2011/09/fabric-printing.html?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+gyandarpan+(ज्ञान+दर्पण) कपड़ा छपाई तकनीक का सफ़र] (ज्ञानदर्पण)
* [http://www.storkprints.com/ Stork printing machine manufacture]
* [http://www.zimmer-tt.net/ Zimmer printing machine manufacture]
* [http://www.gsedispensing.com/ GSE producer of printing paste kitchens and color dispensing systems]
 
[[श्रेणी:वस्त्र]]