"जगन्नाथ पण्डितराज": अवतरणों में अंतर
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'''जगन्नाथ पण्डितराज''',
== जीवनी ==
पंडितराज जगन्नाथ बेंगिनाटीय कुलोद्भव तैलंग ब्राह्मण, गोदावरी जिलांतर्गत मुंगुडु ग्राम के निवासी थे। उनके उनके पिता का नाम "पेरुभट्ट" (पेरभट्ट) और माता का नाम लक्ष्मी था। पेरुभट्ट परम विद्वान् थे। उन्होंने ज्ञानेंद्र भिक्षु से "ब्रह्मविद्या", महेंद्र से [[न्यायशास्त्र|न्याय]] और [[वैशेषिक]], खंडदेव से "[[पूर्वमीमांसा]]" और शेषवीरेश्वर से महाभाष्य का अध्ययन किया था। वे अने विषयों के अति प्रौढ़ विद्वान् थे। पंडितराज ने अपने पिता से ही अधिकांश शास्त्रों का अध्ययन किया था। शेषवीरेश्वर जगन्नाथ के भी गुरु थे।
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पंडितराज जगन्नाथ उच्च कोटि के कवि, समालोचक तथा शास्त्रकार थे। कवि के रूप में उनका स्थान उच्च काटि के उत्कृष्ट कवियों में कालिदास के अनंतर - कुछ विद्वान् रखते हैं। उन्होंने यद्यपि महाकाव्य की रचना नहीं की है, तथापि उनकी मुक्तक कविताओं और स्तोत्रकाव्यों में उत्कर्षमय और उदात्त काव्यशैली का स्वरूप दिखाई देता है। उनकी कविता में प्रसादगुण के साथ-साथ आजप्रधान, समासबहुला रीति भी दिखाई देती है। भावनाओं का ललितगुंफन, भावचित्रों का मुग्धकारी अंकन, शब्दमाधुर्य की झंकार, अलंकारों का प्रसंगसहायक और सौंदर्यबोधक विनियोग, अर्थ में भावप्रण्ता और बोधगरिमा तथा पदों के संग्रथन में लालित्य की सर्जना - उनके काव्य में प्रसंगानुसार प्राय: सर्वत्र मिलती है। रीतिकालीन अलंकरणप्रियता और ऊहात्मक कल्पना की उड़ान का भी उनपर प्रभाव था। गद्य और पद्य - दोनों की रचना में उनकी अन्योक्तियों में उत्कृष्ट अलंकरणशैली का प्रयोग मिलता है। कल्पनारंजित होने पर भी उनमें तथ्यमूलक मर्मस्पर्शिता है। उनकी सूक्तियों में जीवन के अनुभव की प्रतिध्वनि है। उनके स्तोत्रों में भक्तिभाव और श्रद्धा की दृढ़ आस्था से उत्पन्न भावगुरुता और तन्मयता मुखरित है। उनके शास्त्रीय विवेचन में शास्त्र के गांभीर्य और नूतन प्रतिभा की दृष्टि दिखाई पड़ती है। सूक्ष्म विश्लेषण, गंभीर मनन-चिंतन और प्रौढ़ पांडित्य, के कारण उनका "रसगंगाधर" अपूर्ण रहने पर भी साहित्यशास्त्र के उत्कृष्टतम ग्रंथों में एक कहा जाता है। वे एक साथ कवि, साहित्यशास्त्रकार और [[वैयाकरण]] थे। पर "रसगंगाधर" कार के रूप में उनके साहित्यशास्त्रीय पांडित्य और उक्त ग्रंथ का पंडितमंडली में बड़ा आदर है।
== रचनाएँ ==
ग्रंथ की प्रौढ़ता से आकृष्ट होकर साहित्यशास्त्रज्ञ [[नागेश भट्ट]] ने "रसगंगाधर" की टीका लिखी थी।
;स्तोत्र
(क) अमृतलहरी (यमुनास्तोत्र), (ख) गंगालहरी (पीयूषलहरी - गंतामृतलहरी),
(ङ) सुधालहरी।
;प्रशस्तिकाव्य
(क) आसफविलास, (ख) प्राणाभरण
; शास्त्रीय रचनाएँ -
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भामिनीविलास (पंडितराज शतक) उनका परम प्रसिद्ध मुक्तक कविताओं का संकलन ग्रंथ है। "नागेश भट्ट" के अनुसार "रसंगगाधर" के लक्षणों का उदाहरण देने के लिए पहले से ही इसकी रचना हुई थी। इसमें चार विलास हैं, प्रथम "प्रस्तावित विलास" में अत्यंत सुंदर और ललित अन्योक्तियाँ हैं जिनमें जीवन के अनुभव और ज्ञान का सरस एवं भावमय प्रकाशन है। अन्य "विलास" हैं - श्रृंगारविलास, करुणविलास और शांतिविलास। सायास अलंकरणशैली का प्रभाव तथा चमत्कारसर्जना की प्रवृत्ति में अभिरुचि रखते हुए भी जगन्नाथ की उक्तियों में रस और भाव की मधुर योजना का समन्वय और संतुलन बराबर वर्तमान है। उनके मत से वाङ्मय में साहित्य, सहित्य में ध्वनि, ध्वनि में रस और रसो में शृंगार का स्थान क्रमश: उच्चतर हैं। पंडितराज न अपने पांडित्य और कवित्व के विषय में जो गर्वोक्तियाँ की हैं वे साधार हैं। ये सचमुच श्रेष्ठ कवि भी है और पंडितराज भी।
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://books.google.co.in/books?id=vc_eBshVJf8C&printsec=frontcover#v=onepage&q=&f=false Paṇḍitarāja Jagannātha, the renowned Sanskrit poet of medieval India] (Google book; By Narendra Nath Sarma)
[[श्रेणी:संस्कृत साहित्यकार]]
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