"नवधा भक्ति": अवतरणों में अंतर

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प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे '''नवधा भक्ति''' कहते हैं।
 
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । <br />
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
 
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'''आत्म निवेदन''': अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।
 
== [[रामचरितमानस]] में नवधा भक्ति ==
भगवान् श्रीराम जब भक्तिमती शबरीजी के आश्रम में आते हैं तो भावमयी शबरीजी उनका स्वागत करती हैं, उनके श्रीचरणों को पखारती हैं, उन्हें आसन पर बैठाती हैं और उन्हें रसभरे कन्द-मूल-फल लाकर अर्पित करती हैं। प्रभु बार-बार उन फलों के स्वाद की सराहना करते हुए आनन्दपूर्वक उनका आस्वादन करते हैं। इसके पश्चात् भगवान् राम शबरीजी के समक्ष नवधा भक्ति का स्वरूप प्रकट करते हुए उनसे कहते हैं कि-
 
नवधा भकति कहउँ तोहि पाहीं।<br />
सावधान सुनु धरु मन माहीं।।<br /><br />
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।<br />
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।<br /><br />
गुर पद पकंज सेवा तीसरि भगति अमान।<br />
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान। 3/35<br /><br />
मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।<br />
पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।<br /><br />
छठ दम सील बिरति बहु करमा।<br />
निरत निरंतर सज्जन धरमा।।<br /><br />
सातवँ सम मोहि मय जग देखा।<br />
मोतें संत अधिक करि लेखा।।<br /><br />
आठवँ जथालाभ संतोषा।<br />
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।<br /><br />
नवम सरल सब सन छलहीना।<br />
मम भरोस हियँ हरष न दीना।। 3/35/1-5<br /><br />
 
[[श्रेणी:भारतीय दर्शन]]