"नाटक": अवतरणों में अंतर

छो Bot: अंगराग परिवर्तन
पंक्ति 1:
'''नाटक''', [[काव्य]] का एक रूप है। जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे '''नाटक''' या दृश्य-काव्य कहते हैं। नाटक में श्रव्य काव्य से अधिक रमणीयता होती है। श्रव्य काव्य होने के कारण यह लोक चेतना से अपेक्षाकृत अधिक घनिष्ठ रूप से संबद्ध है। [[नाट्यशास्त्र]] में लोक चेतना को नाटक के लेखन और मंचन की मूल प्रेरणा माना गया है।
 
== परिचय ==
नाटक की गिनती काव्यों में है । काव्य दो प्रकार के मान गे हैं— श्रव्य और दृश्य । इसी दृश्य काव्य का एक भेद नाटक माना गया है । पर दृष्टि द्वारा मुख्य रूप से इसका ग्रहण होने के कारण दृश्य काव्य मात्र को नाटक कहने लगे हैं ।
 
पंक्ति 10:
उपर्युक्त भेदों के अनुसार नाटक शब्द दृश्य काव्य मात्र के अर्थ में बोलते हैं । साहित्यदर्पण के अनुसार नाटक किसी ख्यात वृत्त (प्रसिद्ध आख्यान, कल्पित नहीं)' की लेकर लिखाना चाहिए । वह बहुत प्रकार के विलास, सुख, दुःख, तथा अनेक रसों से युक्त होना चाहिए । उसमें पाँच से लेकर दस तक अंक होने चाहिए । नाटक का नायक धीरोदात्त तथा प्रख्यात वंश का कोई प्रतापी पुरुष या राजर्षि होना चाहिए । नाटक के प्रधान या अंगी रस शृंगार और वीर हैं । शेष रस गौण रुप से आते हैं । शांति, करुणा आदि जिस रुपक में में पधान हो वह नाटक नहीं कहला सकता । संधिस्थल में कोई विस्मयजनक व्यापार होना चाहिए । उपसंहार में मंगल ही दिखाया जाना चाहिए । वियोगांत नाटक संस्कृत [[अलंकार शास्त्र]] के विरुद्ध है ।
 
== नाटक शब्दावली ==
अभिनय आरंभ होने के पहले जो क्रिया (मंगलाचरण नांदी) होती है, उसे पूर्वरंग कहते हैं । पूर्वरंग, के उपरांत प्रधान नट या सूत्रधार, जिसे स्थापक भी कहते हैं, आकर सभा की प्रशंसा करता है फिर नट, नटी सूत्रधार इत्यादि परस्पर वार्तालाप करते हैं जिसमें खेले जानेवाले नाटक का प्रस्ताव, कवि-वंश-वर्णन आदि विषय आ जाते हैं । नाटक के इस अंश को प्रस्तावना कहते हैं । जिस इतिवृत्त को लेकर नाटक रचा जाता है उसे 'वस्तु' कहते हैं । 'वस्तु' दो प्रकार की होती है—आधिकारिक वस्तु और प्रासंगिक वस्तु । जो समस्त इतिवृत्त का प्रधान नायक होता है उसे 'अधिकारी' कहते हैं । इस अधिकारी के संबंध में जो कुछ वर्णन किया जाता है उसे 'आधिकारिक बस्तु' कहते हैं; जैसे, रामलीला में [[राम]] का चरित्र । इस अधिकारी के उपकार के लिये या रसपुष्टि के लिये प्रसंगवश जिसका वर्णन आ जाता है उसे प्रासगिक वस्तु कहते हैं; जैसे सुग्रीव, आदि का चरित्र । 'सामने लाने' अर्थात् दृश्य संमुख उपस्थित करने को अभिनय कहते हैं । अतः अवस्थानुरुप अनुकरण या स्वाँग का नाम ही अभिनय है । अभिनय चार प्रकार का होता है— आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक । अंगों की चेष्टा से जो अभिनय किया जाता है उसे आंगिक, वचनों से जो किया जाता है उसे वाचिक, भैस बनाकर जो किया जाता हैं उसे आहार्य तथा भावों के उद्रेक से कंप, स्वेद आदि द्वारा जो होता है उसे सात्विक कहते हैं । नाटक में बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य इन पाँचों के द्वारा प्रयोजन सिद्धि होती है । जो बात मुँह से कहते ही चारों ओर फैल जाय और फलसिद्धि का प्रथम कारण हो उसे बीज कहते हैं, जैसे [[वेणीसंहार]] नाटक में भीम के क्रोध पर युधिष्ठिर का उत्साहवाक्य द्रौपदी के केशमोजन का कारण होने के कारण बीज है । कोई एक बात पूरी होने पर दूसरे वाक्य से उसका संबंध न रहने पर भी उसमें ऐसे वाक्य लाना जिनकी दूसरे वाक्य के साथ असंगति न हो 'बिंदु' है । बिच में किसी व्यापक प्रसंग के वर्णन को पताका कहते हैं— जैसे उत्तरचरित में सुग्रीव का और अभिज्ञान- शांकुतल में विदूषक का चरित्रवर्णन । एक देश व्यापी चरित्रवर्णन को प्रकरी कहते हैं । आरंभ की हुई क्रिया की फलसिद्धि के लिये जो कुछ किया जाय उसे कार्य कहते हैं; जैसे, रामलीला में रावण वध । किसी एक विषयकीचर्चा हो रही हो, इसी बीच में कोई दूसरा विषय उपस्थित होकर पहले विषय से मेल में मालूम हो वहाँ पताकास्थान होता है, जैसे, रामचरित् में राम सीता से कह रहे हैं—'हे प्रिये ! तुम्हारी कोई बात मुझे असह्य नहीं, यदि असह्य है तो केवल तुम्हारा विरह, इसी वीच में प्रतिहारी आकर कहता है : देव ! दुर्मुख उपस्थित । यहाँ ' उपस्थित' शब्द से 'विरह उपस्थित' ऐसी प्रतीत होता है, और एक प्रकार का चमत्कार मालूम होता है । संस्कृत साहित्य में नाटक संबंधी ऐसे ही अनेक कौशलों की उदभावना की गई है और अनेक प्रकार के विभेद दिखाए गए हैं ।
 
आजकल देशभाषाओं में जो नए नाटक लिखे जाते हैं उनमें संस्कृत नाटकों के सब नियमों का पालन या विषयों का समावेश अनावश्यक समझा जाता है । [[भारतेंदु हरिश्चंद्र]] लिखते हैं—'संस्कृत नाटक की भाँति हिंदी नाटक में उनका अनुसंधान करना या किसी नाटकांग में इनको यत्नपूर्वक रखकर नाटक लिखना व्यर्थ है; क्योंकि प्राचीन लक्षण रखकर आधुनिक नाटकादि की शोभा संपादन करने से उलटा फल होता है और यत्न व्यर्थ हो जाता है ।
 
== नाटक के प्रमुख तत्व ==
* '''कथावस्तु '''
:नाटक की कथावस्तु पौराणिक, ऐतिहासिक, काल्पनिक या सामाजिक हो सकती है।
पंक्ति 27:
* '''अभिनय'''
:अभिनय भी नाटक का प्रमुख तत्व है। इसकी श्रेष्ठता पात्रों के वाक्चातुर्य और अभिनय कला पर निर्भर है। मुख्य प्रकार से अभिनय ४ प्रकार का होता हॅ।
* १ - आंगिक अभिनय( शरीर से किया जाने वाला अभिनय ),
 
* २ - वाचिक अभिनय ( संवाद का अभिनय [रेडियो नाटक ],
 
* ३ - आहार्य अभिनय ( वेषभूषा, मेकअप, स्टेज विन्यास्, प्रकाश व्यवस्था आदि ),
 
* ४ - सात्विक अभिनय (अंतरात्मा से किया गया अभिनय [ रस आदि ]।
 
== नाटक का इतिहास ==
{{main|संस्कृत नाटकों का उद्भव एवं विकास}}
=== प्राचीन काल ===
भारत में अभिनय-कला और रंगमंच का वैदिक काल में ही निर्माण हो चुका था। तत्पश्चात् संस्कृत रंगमंच तो अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया था-[[भरत मुनि]] का [[नाट्यशास्त्र]] इसका प्रमाण है। बहुत प्राचीन समय में भारत में संस्कृत नाटक धार्मिक अवसरों, सांस्कृतिक पर्वों, सामाजिक समारोहों एवं राजकीय बोलचाल की भाषा नहीं रही तो संस्कृत नाटकों की मंचीकरण समाप्त-सा हो गया।
 
भारतवर्ष में नाटकों का प्रचार बहुत प्राचीन काल से हैं । भरत मुनि का नाटयशास्त्र बहुत पुराना है । रामायण, महाभारत, हरिवंश इत्यादि में नट और नाटक का उल्लेख है । पाणिनि ने 'शिलाली' और 'कृशाश्व' नामक दो नटसूत्रकारों के नाम लिए हैं । शिलाली का नाम शुक्ल यजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण और सामवेदीय अनुपद सूत्र में मिलता हैं । विद्वानों ने ज्योतिष की गणना के अनुसार [[शतपथ ब्राह्मण]] को ४००० वर्ष से ऊपर का बतलाया है । अतः कुछ पाश्चात्य विद्वानों की यह राय कि ग्रीस या यूनान में ही सबसे पहले नाटक का प्रादुर्भव हुआ, ठीक नहीं है । हरिवंश में लिखा है कि जब प्रद्यु्म्न, सांब आदि यादव राजकुमार वज्रनाभ के पुर में गए थे तब वहाँ उन्होंने रामजन्म और रंभाभिसार नाटक खेले थे । पहले उन्होंने नेपथ्य बाँधा था जिसके भीतर से स्त्रियों ने मधुर स्वर से गान किया था । शूर नामक यादव रावण बना था, मनोवती नाम की स्त्री रंभा बनी थी, प्रद्युम्न नलकूबर और सांब विदूषक बने थे । विल्सन आदि पाश्चात्य विद्वानों ने स्पष्ट स्वीकार किया हैं कि हिंदुओं ने अपने यहाँ नाटक का प्रादुर्भाव अपने आप किया था । प्राचीन हिंदू राजा बडी बडी रंगशालाएँ बनवाते थे । मध्यप्रदेश में सरगुजा एक पहाड़ी स्थान है, वहाँ एक गुफा के भीतर इस प्रकार की एक रंगशाला के चिह्न पाए गए हैं । यह ठीक है कि यूनानियों के आने के पूर्व के संस्कृत नाटक आजकल नहीं मिलते हैं, पर इस बात से इनका अभाव, इतने प्रमाणों के रहते, नहीं माना जा सकता । संभव है, कलासंपन्न युनानी जाति से जब हिंदू जाति का मिलन हुआ हो तब जिस प्रकार कुछ और और बातें एक ने दूसरे की ग्रहण कीं इसी प्रकार नाटक के संबंध में कुछ बातें हिंदुओं ने भी अपने यहाँ ली हों । बाहयपटी का 'जवनिका' (कभी कभी 'यवनिका') नाम देख कुछ लोग यवन संसर्ग सूचित करते हैं । अंकों में जो 'दृश्य' संस्कृत नाटकों में आए हैं उनसे अनुमान होता है कि इन पटों पर चित्र बने रहते थे । अस्तु अधिक से अधिक इस विषय में यही कहा जा सकता है कि अत्यंत प्राचीन काल में जो अभिनय हुआ करते थे । उनमें चित्रपट काम में नहीं लाए जाते थे । सिकंदर के आने के पीछे उनका प्रचार हुआ । अब भी रामलीला, रासलीला बिना परदों के होती ही हैं ।
 
=== मध्यकाल ===
मध्यकाल में प्रादेशिक भाषाओं में लोकतंत्र का उदय हुआ। यह विचित्र संयोग है कि मुस्लिमकाल में जहाँ शासकों की धर्मकट्टता ने भारत की साहित्यिक रंग-परम्परा को तोड़ डाला वहाँ लोकभाषाओं में लोकमंच का अच्छा प्रसार हुआ। [[रासलीला]], [[रामलीला]] तथा [[नौटंकी]] आदि के रूप में लोकधर्मी नाट्यमंच बना रहा। भक्तिकाल में एक ओर तो ब्रज प्रदेश में कृष्ण की रासलीलाओं का ब्रजभाषा में अत्यधिक प्रचलन हुआ और दूसरी और विजयदशमी के अवसर पर समूचे भारत के छोटे-बड़े नगरों में रामलीला बड़ी धूमधाम से मनाई जाने लगी।
 
पंक्ति 49:
इस प्रकार साहित्यिक दृष्टि तथा साहित्यिक रचनाओं के आभाव के कारण मध्यकाल में साहित्यिक रंगकर्म की ओर कोई प्रवृत्ति नहीं हुई। सच तो यह है कि आधुनिक काल में व्यावसायिक तथा साहित्यिक रंगमंच के उदय से पूर्व हमारे देश में रामलीला, नौटंकी आदि के लोकमंच ने ही चार-पाँच सौ वर्षों तक हिन्दी रंगमंच को जीवित रखा। यह लोकमंच-परम्परा आज तक विभिन्न रूपों में समूचे देश में वर्तमान है। उत्तर भारत में रामलीलाओं के अतिरिक्त महाभारत पर आधारित ‘वीर अभिमन्यु’, ‘सत्य हरिशचन्द्र’ आदि ड्रामे तथा ‘रूप-बसंत’, ‘हीर-राँझा’, ‘हकीकतराय’, ‘बिल्वामंगल’ आदि नौटंकियाँ आज तक प्रचलित हैं।
 
=== आधुनिक काल ===
आधुनिक काल में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के साथ रंगमंच को प्रोत्साहन मिला। फलत: समूचे भीरत में व्यावसायिक नाटक मंडलियाँ स्थापित हुईं। नाट्यारंगन की प्रवृत्ति सर्वप्रथम बँगला में दिखाई दी। सन् 1835 ई. के आसपास कलकत्ता में कई अव्यावसायिक रंगशालाओं का निर्माण हुआ। कलकत्ता के कुछ सम्भ्रान्त परिवारों और रईसों ने इनके निर्माण में योग दिया था और दूसरी ओर व्यावयायिक नाटक मंडलियों के असाहित्यिक प्रयास से अलग था।
 
पंक्ति 64:
[[राघेश्याम कथावाचक]], नारायणप्रसाद बेताब, आगाहश्र कश्मीरी, हरिकृष्ण जौहर आदि कुछ ऐसे नाटककार भी हुए हैं जिन्होंने [[पारसी रंगमंच]] को कुछ साहित्यिक पुट देकर सुधारने का प्रयत्न किया है और हिन्दी को इस व्यावसायिक रंगमंच पर लाने की चेष्टा की। पर व्यावसायिक वृत्ति के कारण संभवत: इस रंगमंच पर सुधार संभव नहीं था। इसी से इन नाटककारों को भी व्यावसायिक बन जाना पड़ा। इस प्रकार पारसी रंगमंच न विकसित हो सका, न स्थायी ही बन सका।
 
== हिन्दी नाटक ==
{{मुख्य|हिन्दी नाटक}}
हिंदी में नाटकों का प्रारंभ [[भारतेंदु हरिश्चंद्र|भारतेन्दु हरिश्चंद्र]] से माना जाता है। उस काल के भारतेन्दु तथा उनके समकालीन नाटककारों ने लोक चेतना के विकास के लिए नाटकों की रचना की इसलिए उस समय की सामाजिक समस्याओं को नाटकों में अभिव्यक्त होने का अच्छा अवसर मिला।
पंक्ति 72:
उस समय नाट्यारंगन इतना लोकप्रिय हुआ कि अमानत की ‘इंदर सभा’ के अनुकरण पर कई सभाएँ रची गई, जैसे ‘मदारीलाल की इंदर सभा’, ‘दर्याई इंदर सभा’, ‘हवाई इंदर सभा’ आदि। पारसी नाटक मंडलियों ने भी इन सभाओं और मजलिसेपरिस्तान को अपनाया। ये रचनाएँ नाटक नहीं थी और न ही इनसे हिन्दी का रंगमंच निर्मित हुआ। इसी से [[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]] इनको 'नाटकाभास' कहते थे। उन्होंने इनकी पैरोडी के रूप में ‘[[बंदर सभा]]’ लिखी थी।
 
== लोक नाटक ==
{{मुख्य|लोकनाट्य}}
 
[[संस्कृत नाटक|संस्कृत नाटकों]] का युग ढलने लगा तब चौदहवीं शताब्दी से उन्नीसवी शताब्दी तक उनका स्थान विभिन्न भारतीय भाषाओं में '''लोक नाटकों''' (folk theatre) ने लिया। आज अलग-अलग प्रदेशों मे लोक नाटक भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है।
 
* '''[[रामलीला]]''' - उत्तरी भारत में
पंक्ति 91:
* '''[[थेरुबुट्टू]]''' - तमिलनाडु
 
* '''[[नाचा]]''' - छत्तीसगढ
 
== इन्हें भी देखें ==
* [[काव्य नाटक]]
 
* [[नुक्‍कड़ नाटक]]
 
* [[एकांकी]]
 
* [[लोकनाट्य]]
 
* [[रामलीला]]
 
* [[रासलीला]]
 
== वाह्य सूत्र ==
* [http://natyaprasang.blogspot.com/ संस्कृत नाटक : परम्परा तथा संभावनाएँ]
* [http://www.lakesparadise.com/madhumati/show_artical.php?id=1377 रंगमंच नाटक - परम्परा और प्रयोग] (मधुमती)
* [http://books.google.co.in/books?id=-5PbuRFBc34C&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false आधुनिक भारतीय रंगलोक] (गूगल पुस्तक ; लेखक - जय देव तनेजा)
* [http://asiarecipe.com/indfolk.html Folk Theatre of India]
* [http://narasimhan.com/SK/Culture/Art/thtr_folk%20theatre.htm The emergence of folk theatre]
* [http://abhinavrangmandal.com/aite.html अभिनव नाट्यकला शिक्षा संस्थान]
* [http://natyaprasang.blogspot.com/ नाट्य प्रसंग] (भारतेन्दु मिश्र का हिन्दी चिट्ठा)
* [http://books.google.co.in/books?id=L1sNOnjqe2kC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false रंग दस्तावेज़: सौ साल, 1850-1950] (गूगल पुस्तक ; लेखक - महेश आनन्द)
* [http://hindilok.com/kathadesh-september-2011-hindi-rang-paridrishay-09201119.html हिन्दी रंगपरिदृश्य और नाट्यालेखन]
 
[[श्रेणी:नाट्यकला]]
"https://hi.wikipedia.org/wiki/नाटक" से प्राप्त