"सूरसागर": अवतरणों में अंतर

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:"काव्य गुणें की इस विशाल वनस्थली में एक अपना सहज सौन्दर्य है। वह उस रमणीय उद्यान के समान नहीं जिसका सौन्दर्य पद-पद पर माली के कृतित्व की याद दिलाता है, बल्कि उस अकृत्रिम वन-भूमि की भाँति है जिसका रचयिता रचना में घुलमिल गया है।"
 
== परिचय ==
पुरा हस्तलिखित रूप में "सूरसागर" के दो रूप मिलते हैं - "संग्रहात्मक और संस्कृत भागवत अनुसार" "द्वादश स्कंधात्मक"। संग्रहात्मक "सूरसागर" के भी दो रूप देखने में आते हैं। पहला, आपके-गौघाट (आगरा) पर श्रीवल्लभाचार्य के शिष्य होने पर प्रथम प्रथम रचे गए भगवल्लीलात्मक पद-"ब्रज भयौ मैहैर कें पूत, जब यै बात सुनी" से प्रारंभ होता है, दूसरा-"मथुरा-जन्म-लीला" से. .. । कहा जाता है, हिंदी साहित्येतिहास ग्रंथों से ओझल "सूरसागर" के उत्पत्ति विकास का एक अलग इतिहास है, जो अब तक प्रकाश में नहीं आया है और श्रीसूर के समकालीन भक्त इतिहास रचयिताओं-"श्री गोकुलनाथ जी, श्रीहरिराय जी (सं.-1647 वि.), और श्री नाभादास जी (सं.-1642 वि.) प्रभृति में जिसका विशेष रूप से उल्लेख किया है। अत: इन पूर्वा पर के अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों से जाना जाता है कि श्रीसूर ने-सहस्रावधि पद किए, लक्षावधि पद रचे, कोई ग्रंथ नहीं रचा। बाद में अनंत-सूर-पदावली सागर कहलाई। वस्तुत: श्रीसूर, जैसा इन ऊपर लिए संदर्भ ग्रंथों से जाना जाता है, भगवल्लीला के भाव भरे उन्मुक्त गायक थे, सो नित्य नई-नई पद रचना कर, अपने प्रभु "गोवर्धननाथ जी" के सम्मुख गाया करते थे। रचना करने वाले थे, सो नित्य सवेरे से संध्या तक गाए जाने वाले रागों में ललित रसों का रंग भरकर अपनी वाणी की तूलिका से चित्रित कर अपने को धन्य किया करते थे। अस्तु, न उनमें अपनी उन्मुक्त कृतियों को संग्रह करने का भाव था, और न कई क्रम देने की उमंग। उनका कार्य तो अपने प्रभु की नाना गुनन गरूली गुणावली गाना, उसके अमृतोपम रस में निमग्न हो झूमना तथा-"एतेचांश कलापुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयं" (भाग-1।3।28) की नंदालय में बाल से पौगंड अवस्था तक लीलाओं में तदात्मभाव से विभोर होना था, यहाँ अपनी समस्त मुक्तक रचनाओं को एकत्र कर क्रमबद्ध करने का समय और स्थान कहाँ था। कहा जाता है, श्री सूरदास "एकदम अंधे थे," तब अपनी जब तब की समस्त रचनाओं को कैसे एकत्र करते? फिर भी सूरदास द्वारा नित्य रचे और गाये जाने वाले पदों का लेखन और संकलन अवश्य होता रहा होगा। अन्यथा वे मौलिक रूप से रचित और गाए गए पद जुप्त हो गए होते। संभवत: सूर के समकालीन शिष्य या मित्र-यदि सूर सचमूच अंधे थे तो-उन पदों को लिखते और संकलित करते रहे होंगे। अब तक उसके संग्रहात्मक या द्वादस स्कंधात्मक बनने का कोई इतिहास पूर्णत: ज्ञात नहीं है। "गीत-संगीत-सागर" (गो. रघुनाथ जी नामरत्नारूय) श्री विट्ठलनाथ जी गोस्वामी, (सं. 1572 वि.) के समय श्रीमद्वल्लभाचार्य सेवित कई निधियाँ (मूर्तियाँ), आपके वंशजों द्वारा, ब्रज से बाहर चली गई थीं। यत: संप्रदाय के अनुसार "कीर्तनों के बिना सेवा नहीं, और सेवा, बिना कीर्तनों के नहीं अत: जहाँ जहाँ ये निधियाँ गईं, वहीं वहीं" "कंठ" या "ग्रंथ" रूप में अष्टछाप के कवियों की कृतियाँ भी गई और वहाँ इनके संकलित रूप में-"नित्य कीर्तन" और "वर्षोत्सव" नाम पड़े, ऐसा भी कहा जाता है।
 
सूर के सागर का "संग्रहात्मक" रूप श्रीसूर के सम्मुख ही संकलित हो चुका था। उसकी सं. 1630 वि. की लिखी प्रति ब्रज में मिलती है। बाद के अनेक लिखित संग्ररूप भी उसके मिलते हैं। मुद्रित रूप इसका कहीं पुराना है। पहले यह मथुरा (सं. 1840 ई.) से, बाद में आगरा (सं.-1867 ई. तीसरी बार), जयपुर (राजस्थान सं. 1865 ई.), दिल्ली (सं. 1860 ई.) और कलकत्ता से सं. 1898 ई. में लीथी प्रेसों से छपकर प्रकाशित हो चुका था। कृष्णानंद व्यासदेव संकलित "रागकल्पद्रुम" भी इस समय का संग्रहात्मक सूरसागर का एक विकृत रूप है, जो संगीत के रंगों में बँटा हुआ है। ब्रजभाषा के रीतिकालीन प्रसिद्ध कवि "द्विजदेव"-अर्थात् महाराज मानसिंह, अयोध्या नरेश (सं. 1907 वि.) ने इसे सं. 1920 वि. में संपादित कर लखनऊ के नवलकिशोर प्रेस से प्रकाशित किया था। ये सभी संग्रहात्मक रूप सूरसागर, भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मलीला गायन रूप गोकुल नंदालय में मनाए गए "नंदमहोत्सव" से प्रारंभ होकर उनकी समस्त ब्रजलीला मथुरा आगमन, उद्धव-गोपी-संवाद, श्री राम, नरसिंह तथा वामन जयंतियाँ एवं पहले-श्री वल्लभाचार्य जी की शिष्यता से पूर्व रचे गए "दीनता आश्रय" के पदों के बाद समाप्त हुए हैं। सूर पदों के इस प्रकार संकलन की प्रवृत्ति उनके सागर के संग्रहात्मक रूप पर ही समाप्त नहीं, वह विविध रूपों में आगे बढ़ी, जिससे उनकी पद कृति के नाना संकलित रूप हस्तलिखित तथा मुद्रित देखने में आते हैं, जो इस प्रकार हैं-दीनता आश्रय के पद, दृष्टिकुल पद, जिसे आज "साहित्यलहरी" कहा जाता है। रामायण, बाललीला के पद, विनय पत्रिका, वैराग्यसतक, सूरछत्तीसी, सूरबहोत्तरी, सूर भ्रमरगीत, सूरसाठी, सूरदास नयन, मुरली माधुरी आदि-आदि, किंतु ये सभी संग्रह आपके संग्रहात्मक "सागर कल्पतरु" के ही मधुर फल हैं।
 
श्री सूर के सागर का रूप श्री व्यास प्रणीत और शुक-मुख-निसृत "द्वादश स्कंधात्मक" भी बना। वह कब बना, कुछ कहा नहीं जा सकता। हिंदी के साहित्येतिहास ग्रंथ इस विषय में चुप हैं। इस द्वादश स्कंधात्मक "सूर सागर" की सबसे प्राचीन प्रति सं. 1757 वि. की मिलती है।
 
इसके बाद की कई हस्तलिखित प्रतियाँ मिलती हैं। उनके आधार पर कहा जा सकता है कि सूर समुदित सागर का यह "श्रीमद्भागवत अनुसार द्वादश स्कंधात्मक रूप" अठारहवीं शती के पहले नहीं बन पाया था। उसका पूर्वकथित "संग्रहात्मक" रूप इस समय तक काफी प्रसार पा चुका था। साथ ही इस (संग्रहात्मक) रूप की सुंदरता, सरसता और भाषा की शुद्धता एवं मनोहरता में भी कोई विशेष अंतर नहीं हो पाया था। वह सूर के समय जैसी विविध रागमयी थी वैसी ही सुंदर बनी रही, किंतु इसके इस द्वादश स्कंधात्मक रूपों में वह बात समुचित रूप से नहीं रह सकी। ज्यों ज्यों हस्तलिखित रूपों में वह आगे बढ़ती गई त्यों-त्यों सूर की मंजुल भाषा से दूर हटती गई। फिर भी जिस किसी व्यक्ति ने अपना अस्तित्व खोकर और "हरि, हरि, हरि हरि सुमरन करौ" जैसे असुंदर भाषाहीन कथात्मक पदों की रचना कर तथा श्री सूर के श्रीमद्वल्लभाचार्य की चरणशरण में आने से पहले रचे गए "दीनता आश्रय" के पद विशेषों को भागवत अनुसार प्रथम स्कंध तक ही नहीं, दशम स्कंध उत्तरार्ध, एकादश और द्वादश स्कंधों को सँजोया, वह आदरणीय है।
 
== रूपरेखा ==
इस द्वादश स्कंधात्मक सूरसागर की "रूपरेखा" इस प्रकार है:
 
'''प्रथम स्कंध''' - भक्ति की सरस व्याख्या, भागवत निर्माण का प्रयोजन, शुक उत्पत्ति, व्यास अवतार, संक्षिप्त महाभारत कथा, सूत-शौनक-संवाद, भीष्म प्रतिज्ञा, भीष्म-देह-त्याग, कृष्ण-द्वारिका-गमन, युधिष्ठिर वैराग्य, पांडवों का हिमालयगमन, परीक्षितजन्म, ऋषिशाप, कलियुग को दंड इत्यादि।
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इस प्रकार यत्र-तत्र बिखरे इस श्रीमद्भागवत अनुसार द्वादश-स्कंधात्मक रूप में भी, श्री सूर का विशिष्ट वाड्.मय "हरि, हरि, हरि, हरि सुमरैन करौ" जैसे अनेक अनगढ़ काँच मणियों के साथ रगड़ खा-खाकर मटमैला होकर भी कवित्व की प्रभा के साथ कोमलता, कमनीयता, कला, एवं कृष्णस्तुभगवान् स्वयं की सगुणात्मक भक्ति, उसकी भव्यता, विलक्षणता, उनके विलास, व्यंग्य और विदग्धता आदि चमक-चमककर आपके कृतित्व रूप सागर को, नित्य गए रूप में दर्शनीय और वंदनीय बना रहे हैं।
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://books.google.co.in/books?id=_cAoM19z19QC&printsec=frontcover#v=onepage&q=&f=false सम्पूर्ण सूरसागर, भाग-२] (गूगल पुस्तक ; डॉ किशोरी लाल गुप्त)
 
[[श्रेणी:हिन्दी साहित्य]]