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रीतिकाव्य रचना का आरंभ एक संस्कृतज्ञ ने किया। ये थे आचार्य [[केशवदास]], जिनकी सर्वप्रसिद्ध रचनाएँ [[कविप्रिया]], [[रसिकप्रिया]] और [[रामचंद्रिका]] हैं। कविप्रिया में अलंकार और रसिकप्रिया में रस का सोदाहरण निरूपण है। लक्षण दोहों में और उदाहरण कवित्तसवैए में हैं। लक्षण-लक्ष्य-ग्रंथों की यही परंपरा रीतिकाव्य में विकसित हुई। रामचंद्रिका केशव का [[प्रबंधकाव्य]] है जिसमें भक्ति की तन्मयता के स्थान पर एक सजग कलाकार की प्रखर कलाचेतना प्रस्फुटित हुई। केशव के कई दशक बाद [[चिंतामणि]] से लेकर अठारहवीं सदी तक हिंदी में रीतिकाव्य का अजस्र स्रोत प्रवाहित हुआ जिसमें नर-नारी-जीवन के रमणीय पक्षों और तत्संबंधी सरस संवेदनाओं की अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्ति व्यापक रूप में हुई।
 
== परिचय ==
रीतिकाल के कवि राजाओं और रईसों के आश्रय में रहते थे। वहाँ मनोरंजन और कलाविलास का वातावरण स्वाभाविक था। बौद्धिक आनंद का मुख्य साधन वहाँ उक्तिवैचित्रय समझा जाता था। ऐसे वातावरण में लिखा गया साहित्य अधिकतर शृंगारमूलक और कलावैचित्रय से युक्त था। पर इसी समय प्रेम के स्वच्छंद गायक भी हुए जिन्होंने प्रेम की गहराइयों का स्पर्श किया है। मात्रा और काव्यगुण दोनों ही दृष्टियों से इस समय का नर-नारी-प्रेम और सौंदर्य की मार्मिक व्यंजना करनेवाला काव्यसाहित्य महत्वपूर्ण है।
 
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रीतिकाव्य मुख्यत: मांसल [[शृंगार]] का काव्य है। इसमें नर-नारीजीवन के स्मरणीय पक्षों का सुंदर उद्घाटन हुआ है। अधिक काव्य मुक्तक शैली में है, पर प्रबंधकाव्य भी हैं। इन दो सौ वर्षों में शृंगारकाव्य का अपूर्व उत्कर्ष हुआ। पर धीरे धीरे रीति की जकड़ बढ़ती गई और हिंदी काव्य का भावक्षेत्र संकीर्ण होता गया। आधुनिक युग तक आते आते इन दोनों कमियों की ओर साहित्यकारों का ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट हुआ।
 
इतिहास साक्षी है कि अपने पराभव काल में भी यह युग वैभव विकास का था। मुगल दरबार के हरम में पाँच-पाँच हजार रूपसियाँ रहती थीं। मीना बाज़ार लगते थे, सुरा-सुन्दरी का उन्मुक्त व्यापार होता था। डॉ० नगेन्द्र लिखते हैं- "वासना का सागर ऐसे प्रबल वेग से उमड़ रहा था कि शुद्धिवाद सम्राट के सभी निषेध प्रयत्न उसमें बह गये। अमीर-उमराव ने उसके निषेध पत्रों को शराब की सुराही में गर्क कर दिया। विलास के अन्य साधन भी प्रचुर मात्रा में थे।" [[पद्माकर]] ने एक ही छन्द में तत्कालीन दरबारों की रूपरेखा का अंकन कर दिया है-
 
गुलगुली गिल में गलीचा हैं, गुनीजन हैं,
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सुबाला हैं, दुसाला हैं विसाला चित्रसाला हैं।६
 
ऐहलौकिकता, श्रृंगारिकता, नायिकाभेद और अलंकार-प्रियता इस युग की प्रमुख विशेषताएं हैं। प्रायः सब कवियों ने ब्रज-भाषा को अपनाया है। स्वतंत्र कविता कम लिखी गई, रस, अलंकार वगैरह काव्यांगों के लक्षण लिखते समय उदाहरण के रूप में - विशेषकर श्रृंगार के आलंबनों एवं उद्दीपनों के उदाहरण के रूप में - सरस रचनाएं इस युग में लिखी गईं। भूषण कवि ने वीर रस की रचनाएं भी दीं। भाव-पक्ष की अपेक्षा कला-पक्ष अधिक समृद्ध रहा। शब्द-शक्ति पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया, न नाटयशास्त्र का विवेचन किया गया। विषयों का संकोच हो गया और मौलिकता का ह्रास होने लगा। इस समय अनेक कवि हुए— [[केशव]], [[कवि चिंतामणि|चिंतामणि]], [[कवि देव|देव]], [[बिहारी]], [[मतिराम]], [[भूषण]], [[घनानंद]], [[पद्माकर]] आदि। इनमें से [[केशव]], [[बिहारी (साहित्यकार)|बिहारी]] और [[भूषण]] को इस युग का प्रतिनिधि कवि माना जा सकता है। बिहारी ने दोहों की संभावनाओं को पूर्ण रूप से विकसित कर दिया। आपको रीति-काल का प्रतिनिधि कवि माना जा सकता है।
 
इस काल के कवियों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-
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विद्वानों का यह भी मत हॅ कि इस काल के कवियों ने काव्य में मर्यादा का पूर्ण पालन किया है। घोर शृंगारी कविता होने पर भी कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन देखने को नहीं मिलता है।
 
== यह भी देखें ==
:[[हिन्दी साहित्य]]
:[[आदिकाल]]
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:[[आधुनिक हिंदी पद्य का इतिहास]]
 
== बाहरी कड़िया ==
* [http://books.google.co.in/books?id=5AF892kSHMsC&printsec=frontcover#v=onepage&q=&f=false हिन्दी रीति साहित्य] (गूगल पुस्तक ; लेखक - भगीरथ मिश्रा)
* [http://books.google.co.in/books?id=Oe3WzKQiVTQC&printsec=frontcover#v=onepage&q=&f=false मध्ययुगीन प्रेमाख्यान] (गूगल पुस्तक ; लेखक - श्याम मनोहर पाण्डेय)
* [http://www.kavitakosh.org कविता कोश - हिन्दी काव्य का अकूत खज़ाना]
 
[[श्रेणी:हिन्दी]]