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'''भक्ति आन्दोलन''' मध्‍यकालीन [[भारत]] का सांस्‍कृतिक इतिहास में एक महत्‍वपूर्ण पड़ाव था। इस काल में सामाजिक-धार्मिक सुधारकों की धारा द्वारा समाज विभिन्न तरह से भगवान की भक्ति का प्रचार-प्रसार किया गया। यह एक मौन क्रान्ति थी।
 
यह अभियान हिन्‍दुओं, मुस्लिमों और सिक्‍खों द्वारा भारतीय उप महाद्वीप में भगवान की पूजा के साथ जुड़े रीति रिवाजों के लिए उत्तरदायी था। उदाहरण के लिए, हिन्‍दू मंदिरों में कीर्तन, दरगाह में कव्‍वाली (मुस्लिमों द्वारा) और गुरुद्वारे में गुरबानी का गायन, ये सभी मध्‍यकालीन इतिहास में (800 - 1700) भारतीय भक्ति आंदोलन से उत्‍पन्‍न हुए हैं।
 
== इतिहास ==
भक्ति आन्दोलन का आरम्भ दक्षिण भारत में [[आलवार सन्त|आलवारों]] एवं [[नायनार सन्त|नायनारों]] से हुआ जो कालान्तर में (८०० ई से १७०० ई के बीच) उत्तर भारत सहित सम्पूर्ण [[दक्षिण एशिया]] में फैल गया।
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कृष्‍ण के अनुयायियों ने 1585 ईसवी में हरिवंश के अंतर्गत राधा बल्‍लभी पंथ की स्‍थापना की। [[सूरदास]] ने [[ब्रजभाषा]] में ''सूर सरागर'' की रचना की, जो श्री कृष्‍ण के मोहक रूप तथा उनकी प्रेमिका राधा की कथाओं से परिपूर्ण है।
 
== प्रभाव ==
* भक्ति आन्दोलन के द्वारा हिन्दू धर्म ने इस्लाम के प्रचार, जोर-जबरजस्ती एवं राजनैतिक हस्तक्षेप का कड़ा मुकाबला किया।
* इसका इस्लाम पर भी प्रभाव पड़ा। ([[सूफीवाद]])
bhakti andolan was stared by sants and swamis
 
== भक्ति आन्दोलन की कुछ विशेषताएं ==
* यह आन्दोलन न्यूनाधिक पूरे दक्षिणी एशिया (भारतीय उपमहाद्वीप) में फैला हुआ था।
* यह लम्बे काल तक चला।
* इसमें समाज के सभी वर्गों (निम्न जातियाँ, उच्च जातियाँ, स्त्री-पुरुष, सनातनी, सिख, मुसलमान आदि) का प्रतिनिधित्व रहा।
 
== भक्ति आन्दोलन के बारे में विद्वानों के विचार ==
* [[बालकृष्ण भट्ट]] के लिए भक्तिकाल की उपयोगिता अनुपयोगिता का प्रश्न मुस्लिम चुनौती का सामना करने से सीधे सीधे जुड़ गया था। इस दृष्टिकोण के कारण भट्ट जी ने मध्यकाल के भक्त कवियों का काफी कठोरता से विरोध किया और उन्हें हिन्दुओं को कमजोर करने का जिम्मेदार भी ठहराया। भक्त कवियों की कविताओं के आधार पर उनके मूल्यांकन के बजाय उनके राजनीतिक सन्दर्भों के आधार पर मूल्यांकन का तरीका अपनाया गया। भट्ट जी ने मीराबाई व सूरदास जैसे महान कवियों पर हिन्दू जाति के पौरुष पराक्रम को कमजोर करने का आरोप मढ़ दिया। उनके मुताबिक समूचा भक्तिकाल मुस्लिम चुनौती के समक्ष हिन्दुओं में मुल्की जोश’ जगाने में नाकाम रहा। भक्त कवियों के गाये भजनों ने हिन्दुओं के पौरुष और बल को खत्म कर दिया।
 
* [[रामचन्द्र शुक्ल]] जी ने भक्ति को पराजित, असफल एवं निराश मनोवृत्ति की देन माना था। अनेक अन्य विद्वानों ने इस मत का समर्थन किया जैसे, [[बाबू गुलाब राय]] आदि। डा. [[राम कुमार वर्मा]] का मत भी यही है - "मुसलमानों के बढ़ते हुए आतंक ने हिंदुओं के हृदय में भय की भावना उत्पन्न कर दी थी इस असहायावस्था में उनके पास ईश्वर से प्रार्थना करने के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं था।"
 
* आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सर्वप्रथम इस मत का खंडन किया तथा प्राचीनकाल से इस भक्ति प्रवाह का सम्बन्ध स्थापित करते हुए अपने मत को स्पष्टत: प्रतिपादित किया। उन्होंने लिखा - "यह बात अत्यन्त उपहासास्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मन्दिर तोड़ रहे थे तो उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार से यदि भक्ति की धारा को उमड़ना था तो पहले उसे सिन्ध में फिर उसे उत्तरभारत में प्रकट होना चाहिए था, पर हुई वह दक्षिण में।"
 
== भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सन्त ==
 
* [[नारद]]
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* [[मीराबाई]] (1498 - 1563 ; [[राजस्थान]] में ; कृष्ण भक्ति)
 
* [[हरिदास]] (1478 - 1573 ; महान संगीतकार जिहोने भगवान विष्णु के गुण गाये)
 
* [[तुकाराम]] ([[शिवाजी]] से समकालीन ; विठल के भक्त)
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* [[भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद]] (1896 - 1977)
 
== परिचय ==
स्वामी माधवाचार्य (संवत्‌ 1254-1333) ने '[[ब्राह्म सम्प्रदाय]]' नाम से [[द्वैतवाद|द्वैतवादी]] वैष्णव सम्प्रदाय चलाया जिसकी ओर लोगों का झुकाव हुआ। इसके साथ ही [[द्वैताद्वैतवाद]] (सनकादि सम्प्रदाय) के संस्थापक [[निम्बार्काचार्य]] ने [[विष्णु]] के दूसरे अवतार कृष्ण की प्रतिष्ठा विष्णु के स्थान पर की तथा लक्ष्मी के स्थान पर राधा को रख कर देश के पूर्व भाग में प्रचलित कृष्ण-राधा ([[जयदेव]], [[विद्यापति]]) की प्रेम कथाओं को नवीन रूप एवं उत्साह प्रदान किया। [[वल्लभाचार्य]] जी ने भी कृष्ण भक्ति के प्रसार का कार्य किया। जगत्‌प्रसिद्ध [[सूरदास]] भी इस सम्प्रदाय की प्रसिद्धि के मुख्य कारण कहे जा सकते हैं। सूरदास ने वल्लभाचार्य जी से दीक्षा लेकर कृष्ण की प्रेमलीलाओं एवं बाल क्रीड़ाओं को भक्ति के रंग में रंग कर प्रस्तुत किया। माधुर्यभाव की इन लीलाओं ने जनता को बहुत रसमग्न किया।
 
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निष्कर्षत: कह सकते हैं कि भक्ति के उद्‌भव एवं विकास के समय जो कुछ भी भारतीय साहित्य, भारतीय संस्कृति तथा इतिहास को प्राप्त हुआ, वह स्वयं में अद्‌भुत, अनुपम एवं दुर्लभ है। अंतत: [[हजारी प्रसाद द्विवेदी]] जी के शब्दों में कह सकते है - "समूचे भारतीय इतिहास में यह अपने ‘ग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है। यह एक नई दुनिया है। भक्ति का यह नया इतिहास मनुष्य जीवन के एक निश्चित लक्ष्य और आदर्श को लेकर चला। यह लक्ष्य है भगवद्‌भक्ति, आदर्श है शुद्ध सात्विक जीवन और साधन है भगवान के निर्मल चरित्र और सरस लीलाओं का गान।"
 
== इन्हें भी देखें ==
* [[संतसाहित्य]]
* [[आलवार सन्त]]
* [[सूफीवाद]]
* [[हिन्दी]] का [[भक्ति काल]]
* [[भक्त कवि]]
* [[सिख धर्म]]
* [[गुरु ग्रंथ साहिब]]
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://www.pravakta.com/?p=6375 संतों के समक्ष हार चला था असहिष्णु इस्लाम] (प्रवक्ता)
* [http://books.google.co.in/books?id=Twgoa53Uk6sC&printsec=frontcover#v=onepage&q=&f=false भक्तिकाव्य से साक्षात्कार] (गूगल पुस्तक ; लेखक - कृष्णदत्त पालीवाल)
* [http://www.pressnote.in/litrature_107614.html साझी सांस्कृतिक विरासत]
 
[[श्रेणी:भक्ति आन्दोलन]]