"स्वप्न": अवतरणों में अंतर

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* [http://www.achhikhabar.com/2011/11/17/dreams-quotes-in-hindi/ स्वप्न पर महान व्यक्तियों के विचार]
स्वप्न का विज्ञान -
हम रात भर स्वप्न देखते हैं. दिवा स्वप्न भी अक्सर लोग देखते रहते हैं, दिवा स्वप्न कल्पना कहलाते हैं. नीद में देखा गया स्वप्न ही स्वप्न होता है. कभी कभी कुछ कम अवधि के स्वप्न याद रहते हैं.
श्रुति में स्वप्न के विषय में जगह जगह चर्चा हुयी है.
वृहदारण्यक उपनिषद् में स्वप्न के विषय में प्रसंग है,जिस प्रकार एक राजा अपने सेवक और प्रजा के साथ देश का भ्रमण करता है उसी प्रकार जीव स्वप्नावस्था में प्राण, शब्द, वाणी आदि को लेकर इस शरीर में इच्छानुसार विचरता है. वृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णन है स्वप्नावस्था में जीव लोक–परलोक दोनों देखता है और दुःख सुख दोनों का अनुभव करता है. इस स्थूल शरीर को अचेत करके जीव वासनामय शरीर की रचना करता है फिर लोक परलोक देखता है.
इस अवस्था में देश-विदेश,नदी, तालाब, सागर, पर्वत मैदान. वृक्ष, मल, मूत्र, स्त्री, पुरुष, सेक्स, क्रोध, भय आदि नाना प्रकार के संसार की रचना कर लेता है.
जीव द्वारा स्वप्न में भी सृष्टि-सांसारिक पदार्थों की रचना होती है. यह रचना अत्यंत रहस्यमय और अति विचित्र होती है.
मांडूक्योपनिषद् में गूढ़ रूप से स्वप्न को स्पष्ट किया है.
 
स्वप्न भांति सम व्याप्त जग
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तैजस दूसर पाद
 
स्वप्न में जीवात्मा अपनी सभी उपाधियों के समूह साथ एक होता है,इस समय अन्तःकरण तेजोमय होने के कारण इस अवस्था में आत्मा को तैजस कहा है. तैजस ब्रह्म की ऊपर से नीचे तीसरी अवस्था है. स्वप्नावस्था में दोनों जीवात्मा और आत्मा का तैजस स्वरूप मनोवृत्ति से शब्द स्पर्श रूप रस गंध का अनुभव करते हैं. तैजस सूक्ष्म विषयों का भोक्ता है. जीवात्मा और आत्मा का तैजस स्वरूप दोनों अभेद हैं जैसे जल की बूंद में और जलाशय मैं पडने वाला आकाश का प्रतिविम्ब.
कठोपनिषद कहता है- ‘य एष सुप्तेषु जागर्ति कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः’ यह पुरुष जो नाना भोगों की रचना करता है सबके सो जाने पर स्वयं जागता है. यहाँ पुरुष को कामनाओं का निर्माता बतलाया है. अतः सिद्ध है स्वप्न में भी सृष्टि होती है,
क्या स्वप्न में हुई सृष्टि वास्तविक है.-तात्कालिक रूप से स्वप्न में हुई सृष्टि का कोई अस्तित्व नहीं दिखायी देता परन्तु इस विषय में मेरा निश्चित विचार है कि स्वप्न में जो भी देखा सुना जाता है उसे सृष्टि में किसी न किसी जगह किसी न किसी जीव अथवा पदार्थ के रूप में होना निश्चित है. स्वप्न और सृष्टि के विकास का गहरा सम्बन्ध है स्वप्न है तो सृष्टि है और सृष्टि है तो स्वप्न हैं.
 
स्वप्न के शुभ–अशुभ परिणाम-
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एतरेय आरण्यक के अनुसार स्वप्न में दांत वाले पुरुष को देखना मृत्यु का सूचक है.
 
छान्दग्योपनिषद में कहा है जब कामना की पूर्ति के लिए स्वप्न में स्त्री को देखना समृद्धि का सूचक है.आदि
 
सुसुप्ति का रहस्य-
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प्रत्येक प्राणी के लिए नीद आवश्यक है नीद की दो अवस्थाएँ है.स्वप्नावास्था और सुषुप्ति. सुषुप्ति वह अवस्था है जब कोई स्वप्न भी नहीं रहता. प्रश्नोपनिषद बताता है जब उदान वायु द्वारा CNS (स्नायुतंत्र पर) पूर्ण रूप से अधिकार कर लिया जाता है तब सुषुप्ति अवस्था होती है.
वेदान्त बताता है सुषुप्ति काल में इन्द्रियों और उनके विषय नहीं रहते. इस अवस्था में कोई आसक्ति न होने से यहाँ जीव आनन्द का अनुभव करता है.
सुषुप्ति काल में स्थूल और सूक्ष्म दोनों विलीन हो जाते हैं.व्यावहारिकसत्ता और स्वप्न प्रपंच अपने कारण अज्ञान में लीन हो जाते हैं. केवल शुद्ध चेतन्य अंश उपस्थित रहता है. इस अवस्था में ईश्वर और जीव आनन्द का अनभव करते हैं परन्तु इस समय वृत्ति अज्ञानमय होती है
मांडूक्योपनिषद् सुषुप्ति को स्पष्ट करता है.
 
नहीं स्वप्न नहिं दृश्य
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सब लय होत स्वभाव.
 
चैतन्य से दीप्त अज्ञान वृत्ति से मुक्त होकर आनन्द को भोगता है. इसी कारण सोकर उठा हुआ मनुष्य कहता है मैं सुख पूर्वक सोया ,बढ़े चैन से सोया, इन शब्दों से सुषुप्ति में आनन्द के अस्तित्व का पता चलता है. मुझे कुछ याद नहीं है,इससे अज्ञान के अस्तित्व का भी पता चलता है.
वृहदारण्यक उपनिषद् कहता है मनुष्य के शरीर में हिता नामक 72000 नाडियों हृदय से निकल कर समस्त शरीर में व्याप्त हैं, उनमें फैलकर शरीर में व्याप्त हुआ शयन करता है. छान्दग्योपनिषद में कहा है शरीर में व्याप्त हुआ जब शयन करता है तो कोई स्वप्न नहीं देखता है सब प्रकार से सुखी होकर नाडियों में व्याप्त हो सोता है.इस अवस्था में कोई पाप इसे स्पर्श नहीं करते. श्रुति कहती हैं, यह जीव सोते हुए सत् युक्त होता है. वृहदारण्यक उपनिषद् बताता है सोते हुए जीवात्मा न बाहर की किसी वस्तु को जानता है न भीतर की किसी वस्तु को जानता है.
सोते हुए जीव अपने उदगम स्थान में पहुँचता है और वहीँ से वापस होता है परन्तु अज्ञानमय होने के कारण सुसुप्ति में बोध नहीं होता.
वृहदारण्यक उपनिषद् बताता है जो जीवात्मा सोता है वही जागता है. प्राज्ञ ब्रह्म की ऊपर से नीचे दूसरी अवस्था है जिसे जीवात्मा सुसुप्ति में उपलब्ध होता है. यहाँ आनन्द है पर यहाँ बोध नहीं है.
सन्दर्भ - सरल वेदांत -बसंत प्रभात जोशी