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== नृत्य कला (दक्षिण भारतीय) ==
=== [[भरत नाट्यम]] ===
[[तमिलनाडु]] में प्रसिद्ध यह नृत्य पहले पहल आडल, कूलू, दासियाट्टम, चिन्नमेलम आदि नामों से जाना जाता था। इस नृत्य में भरतमुनि कृत नाट्यशास्त्र में वर्णित प्रणालियों का शुद्ध अनुकरण होने के कारण इसे 'भरतनाट्यम्‌' कहने लगे। भरत शब्द ही भाव, राग और ताल के संयोग को सूचित करता है। यह नाट्य तांडव, लास्य दो प्रकार के हैं। शिवजी द्वारा तंडु नामक भूतगण को प्रदत्त तांडव तथा पार्वती देवी से प्रदत्त लास्य है। अलग अलग रहनेवाली तथा शृंगार के आधार धरकर विकसित होनेवाली भावभूमिकाओं का अभिनय ही लास्य के रूप में वर्णित है।
 
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इन नृत्यप्रणाली में पहले पुष्पांजलि, फिर मुखशाली, फिर शुद्ध यति नृत्य, शब्दशाली, सूडादि शब्द नृत्त, शब्दसूड, फिर अनेक प्रकार के गीतों का अभिनय, फिर प्रबंध नर्तन तथा अंत में सिंधुतरु ध्रुवपद आदि का क्रम रखा गया है। यह नाट्य कविता, अभिनय, रस, राग आदि का सम्मिश्रित रूप है जो क्रमश: यजु:, साम, अथर्वण वेदों का सार तथा धर्म, अर्थ काम, मोक्ष को प्रदान करनेवाला माना जाता है। आजकल इस नृत्यप्रणाली का प्रचलन व्यापक हो गया है। राग, ताल, अभिनय, नृत्त, चित्रकारी, शिल्पकला आदि से युक्त इस कला का संपोषण इसकी वारीकियों की ओर विशेष ध्यान देते हुए बड़ी श्रद्धा के साथ हो रहा है।
 
=== भागवत नाट्य नाटक या भागवत्‌ मेल नाट्य नाटक ===
नाट्य नाटकों में यह एक प्रकार का है जो बहुत ही श्रेष्ठ माना जाता है। इन नाटकों का अभिनय प्राय: पुरुषों के द्वारा ही होता है। गणपति, नरसिंह इत्यादि देवों की मुखाकृतियाँ होती है जिनकी पूजा नट नित्य किया करते हैं और नाट्य काल में व्रत धारण करते हैं। ये नाटक बहुधा मंदिरों में ही खेले जाते हैं, अन्यत्र नहीं।
 
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इसके बाद पात्रप्रवेश होता है, प्रवेश तरु गाए जाते हैं। तंचावूर जिला के मेरटूर, उल्लुक्काडु, शूलमंगलम्‌ शालियमंगलम्‌ आदि जगहों में यह नृत्यपद्धति प्रचलित है। आंध्रप्रदेश के कूचिपुडी नामक गाँव में भी नरसिंह जयंती महोत्सव के समय यह नृत्य होता है।
 
=== सदिर ===
इसका नर्तन प्राय: एक अथवा दो स्त्री पात्रों द्वारा होता है। यह नर्तन पहले प्राय: देवदासियों से ही कराया जाता था।
 
=== पल्लु ===
स्त्री और पुरुष सम्मिलित रूप से यह नृत्य करते है। इसमें बहुधा ग्रामीण गीतों की ही प्रधानता होती है।
 
=== कथकली ===
इसका अर्थ ही कथाप्रधान है। यह नृत्य प्राचीन कालीन नाट्य सम्प्रदायों एवं देवी देवताओं की पूजनपद्धति से जनित माना जाता है। मुडियेट्टु, भगवती पाट्टु, काली आट्टम, तूकुआदि - ये नृत्य आर्यों के आगमन के पूर्व स्थित अनार्यों के आचारविचार को प्रतिबिंबित करनेवाले हैं। मूक अभिनय, धार्मिकता, तंत्र मंत्र, विचित्र भूषा, युद्ध, रक्तप्रवाह, आदि रूढ़िबद्ध होकर रंगमंच में प्रदर्शित किए जाते हैं। ये इस नृत्य की विशेषताएँ हैं। यह नाटक केरल के शाक्य लोगों से ही अधिक प्रचलित हुआ। तमिल महाकाव्यों में श्रेष्ठ शिलप्पधिकारम्‌ में भी इस नृत्य का उल्लेख है। संस्कृत नाटकों का अंश कूडियाट्टम से अभिनयादि विशेष अंग कथकली में लिया गया है। शाक्यों के आंगिक अभिनय, उनकी मुद्राएँ, भावाभिनय, रंगमंच की रूढ़ियाँ इत्यादि कथानुसार अपनाई गई हैं।
 
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केरल में ज्यों ज्यों इस नृत्य का प्रचलन होने लगा त्यों त्यों केरल साहित्य का विकास हुआ।
 
=== कृष्णाट्टम ===
कथकली का ही अंश माना जाता है। इस नृत्यपद्धति के स्रष्टा थे राजा सामुद्रि। इसमें कृष्ण जीवन सबंधी कहानियों की प्रधानता होती है। इसके अलावा केरल में मोहिनीयाट्टम नामक नृत्य भी प्रचलित है। यह प्राय: स्त्रियों द्वारा ही किया जाता है।
 
=== कूच्चुप्पुडी ===
[[आंध्र प्रदेश]] में प्रचलित नृत्यपद्धति है। विजयवाड़ा के समीप का कूच्चुप्पुडी गाँव इस नृत्य का जन्मस्थान है। इसके स्रष्टा है सिद्धेंद्र योगी। इस नृत्य-प्रणाली में अभिनय, पद चालन और हस्तचालन अधिक है। इस नृत्य में पौराणिक कथांश ही अधिक होता है।
 
=== यक्षगानम्‌ ===
यह [[कर्णाटक]] में प्रचलित एक पुरातन नृत्य प्रणाली है।
 
== धातु एवं काष्ठ कला ==
प्रत्येक देश में तथा प्रत्येक युग में धातु एवं काष्ठ कला मानव सभ्यता के जीवन के अभिन्न उपकरण रहे हैं, जिनके प्रयोग द्वारा मनुष्य ने अपने जीवन को सहज, सुखी और संपन्न बनाने की चेष्टा की है। प्रागैतिहासिक काल से ही प्रकृति को विजयी अथवा प्रमोहित करने के लिए और जीवन में एक नियमित नियंत्रण लाने के लिए, भय से हो अथवा श्रद्धा से, जब मनुष्य ने अपने चारों ओर के वातावरण की ताल से अपने जीवन को संयोजित किया तो उसका यह प्रयत्न कला को केवल सुंदरता के लिए वरण करना न था बल्कि उसमें उसके जीवननिर्वाह और दैनिक क्रिया का लक्ष्य केंद्रित था। हम देखते है कि प्रस्तर युग, ताम्र युग और उसके बाद के युगों की कला इसी आदर्श और लक्ष्य पर आधारित है, न कि एक किसी अनुपयोगी वस्तु का केवल सौंदर्यपान करने के लिए। यही कारण है कि जहाँ एक ओर उनके द्वारा बने हुए दैनिक कार्यों में काम आनेवाली इन धातु और काष्ठ की वस्तुओं में भी उनके जीवन, धर्म और सामाजिक व्यवस्था की छाप स्पष्ट है, वहाँ दूसरी ओर इन्हीं वस्तुओं द्वारा हम उनमें निहित सुप्त सौंदर्य बोध की झाँकी भी पाते हैं।
 
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सभी कलाओं की भाँति धातु और काष्ठ की मूर्तियाँ भी विदेशी राज्य के भिन्न दृष्टिकोण के कारण और उचित संरक्षण तथा प्रोत्साहन के अभाव में निर्जीव एवं रूढ़िग्रस्त हो गईं। कहीं उनका लोप हुआ तो कहीं उनके कुशल कारीगरों ने जीवननिर्वाह के लिए अन्य काम धंधे सम्हाल लिए। धनी शिक्षित वर्ग विदेशी वस्तुओं की सभ्यता और कला की चकाचौंध में अपनी परिष्कृत रुचि गवाँ बैठे। शिक्षित कलाकारों ने भी विदेशी कला का अनुसरण किया किंतु कालांतर से अब फिर इन खोई हुई वैभवशील कलाओं की ओर ध्यान जा रहा है और अनेक उदीयमान कलाकारों ने काष्ठ मूर्तिकला को अपना माध्यम बनाया है जिसमें भारतीय परंपरागत शैली के साथ हम आज अंतरराष्ट्रीय कलादृष्टि का सुंदर समन्वय पाते हैं। प्रत्येक माध्यम का अपना स्वतंत्र गुण और चरित्र है जो दूसरे माध्यम में हमें नहीं मिलता। धातु की मूर्ति काष्ठ जैसी न लगे और काष्ठ की मूर्ति पत्थर, सीमेंट अथवा धातु जैसी न लगे और उसके अंर्तहित गुणों को परखकर माध्यम के अनुकूल, नस, रंग, रूप को ध्यान में रख कलाकार अपनी कृति की कल्पना करे और उसके गोपनीय सौंदर्य को उन्मीलित कर दे जिससे उतार चढ़ाव, रेखा इत्यादि के सम्मिश्रण से एक मौलिक रचना प्रस्तुत हो, यही आधुनिक कलाकार का ध्येय और उद्देश्य है। बाह्यरूप कुछ भी हो पर हमारी कला के मूल सिद्धांत, जो षडंग के अंतर्गत आते हैं, अब भी किसी भी माप दंड से खरे उतरते हैं चाहे दृष्टिकोण कितना ही अति आधुनिक हो।
 
== इन्हें भी देखें ==
* [[मूर्ति कला|मूर्तिकला]]
* [[सौन्दर्यशास्त्र]]
* [[वास्तुकला]]
 
== बाहरी कडियाँ ==
* [http://hp.gov.in/LAC/Fine art/kala3.aspx ललित कला (परिचय)]
 
[[श्रेणी:कला]]