"वास्तुकला का इतिहास": अवतरणों में अंतर

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[[वास्तुकला]] किसी स्थान को मानव के लिए वासयोग्य बनाने की कला है। अत: कालांतर में यह चाहे जितनी जटिल हो गई हो, इसका आरंभ [[मौसम]] की उग्रता, वन्य पशुओं के भय और शत्रुओं के आक्रमण से बचने के प्रारंभिक उपायों में ही हुआ होगा। [[मानव सभ्यता]] के इतिहास का भी कुछ ऐसा ही आरंभ है। इसीलिए विद्वानों ने इसे मानव सभ्यता का "योजक मसाला" कहा है।
 
== तकनीकी विकास एवं वास्तु का विकास ==
1. झूला-खंभे, रस्सियाँ और खूँटे (तंबुओं में), जिनका विकास अभी अभी 1,900 ई. में ही हुआ, जब तार के रस्से और इस्पात की जंजीरें उपलब्ध हुई।
 
2. खंभे और सरदल (क) पत्थर के तथा (ख) लकड़ी के। इनमें भी विशेष अंतर हाल में ही पड़ा, जब इस्पात और प्रबलित कंक्रीट का प्रयोग हुआ।
 
3. गोल डाट - किसी दीवार में बनाया हुआ छेद, या चट्टान अथवा कठोर मिट्टी में काटा हुआ रास्ता। यह गुफाओं में पाई जाती है।
 
4. गढ़ी डाट - फन्नी के आकार के पत्थरों से बनाई हुई होती है। इसकी मजबूती क्षैतिज ठेल रोकने की क्षमता पर निर्भर रहती है।
 
5. टोड़ा या कॉर्निस - पत्थर या लकड़ी का यह निकला हुआ भाग सीमित ही होता था। अब यह इस्पात, प्रबलित कंक्रीट और कैंचियाँ लगाकर बहुत बढ़ाया जा सकता है।
 
6. टोड़े निकालकर शिखर बनाने से केवल ऊर्ध्वाधर दाब पड़ती है, क्षैतिज ठेल बिल्कुल नहीं पड़ता। हिंदू मंदिरों के शिखर ऐसे ही होते थे।
 
7. टोड़े निकालते हुए गोल छल्लों से गुंबद बनाने से भी केवल ऊर्ध्वाधर दाब पड़ती है। पश्चिमी एशिया में यह पद्धति प्रचलित थी और यह मुस्लिम शैली की डाट के सिद्धांत का आधार बनी।
 
8. इसी प्रकार लकड़ियों के ढाँचे पर, या उसके बिना ही मिट्टी या कंक्रीट के छल्लों द्वारा भी, गुंबद बनाए जा सकते हैं; अथवा साँचे को चमड़े या सरपत से ढककर ऊपर से मिट्टी चढ़ाई जा सकती है। ये विधियाँ देशीय संरचना में प्राय: प्रयुक्त होती थीं।
 
9. जहाँ वेंत मिलता था, वहाँ इस प्रकार का ढाँचा विकसित हुआ, इस आकृति का अनुसरण भारत में और अन्यत्र भी पत्थर में किया गया और टोड़ेवाले गुंबद बने।
 
== आदिकालीन वास्तु ==
आदिकाल में शिकारियों और मछुओं ने पहाड़ी गुफाओं में शरण ली होगी। ये गुफाएँ ही शायद मानव निवास के प्राचीनतम रूप रहे होंगे। [[किसान]] वृक्षों के झुरमुटों में रहते और सरकंड़े, घास आदि के झोंपड़े बनाते रहे होंगे। अपने पशुओं के साथ घूमनेवाले चरवाहे चमड़े के खोलों में रहते रहे होंगे, और उन्हें बांसों या लट्ठों से ऊँचा करके डेरे बनाते रहे होंगे। इन्हीं गुफाओं और डेरों में बाद के वास्तुविकास के बीज मिलते हैं। मिस्र के पुराने मकानों के नमूने साक्षी हैं कि अनगढ़ द्वारों चट्टानी दीवारों और छतों वाली प्राकृतिक गुफाओं से ही पत्थर की दीवारें उठाने और उन पर पटियों की छत रखने का विचार उत्पन्न हुआ। झुरमुटों के अनुरूप झोंपड़े बने, जिनकी दीवारें परस्पर सटाकर गाड़ी हुई शाखाओं से और छत घास से बनाई गई। इस प्रकार के एकमंजिले और दुमंजिले झोंपड़े अब भी आदिवासी बनाते हैं। चमड़े के डेरे भी अरब के बद्दू और अन्य घुमंतू जातियाँ काम में लाती हैं।
 
प्रागैतिहासिक अवशेष, जिनका वास्तुकीय की अपेक्षा पुरातात्विक महत्व ही अधिक है, प्राय: एकाश्मक (जैसे [[कुस्तुंतुनिया]], उत्तरी [[फ्रांस]], [[इंग्लैंड]], सैवाय, या [[भारत]] में), [[स्तूप]] (जो शायद मिस्र के पिरामिड या वेल्स, स्काटलैंड और आयरलैंड के छत्ताकुटीर जैसे ही बने) तथा [[स्विट्जरलैंड]], [[इटली]], या [[आयरलैंड]] में मिले सरोवरनिवासों के रूप में हैं। बाद में धीरे-धीरे इनका विकास होता गया।
 
== प्राच्य और पाश्चात्य वास्तु ==
विकसित वास्तु को दो स्थूल वर्गों में बाँटा जा सकता है : एक तो प्राच्य, जैसे भारतीय, चीनी, और जापानी वास्तु, जो प्राय: स्वतंत्र शैलियाँ हैं और जिनका वास्तुविकास में विशेष प्रभाव नहीं पड़ा; और दूसरा पाश्चात्य वास्तु, जिसका आरंभ [[मिस्र]] और सीरिया में हुआ और चरम विकास [[यूरोप]] में। प्राचीन अमरीकी और इस्लामी वास्तु भी स्वतंत्र शैलियाँ हैं यद्यपि इस्लामी वास्तु का अमिट प्रभाव स्पेन तक पड़ा। मिस्र और पश्चिमी एशिया का प्रभाव यूनान पर और फलत: सारी पाश्चात्य शैलियों पर पड़ा, इसलिए वे पाश्चात्य वास्तु के अंतर्गत ही आ सकते हैं।
 
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वास्तुकला के ऐतिहासिक विकास के प्रत्येक प्रमुख चरण के मूल में कोई न कोई विचारधारा स्पष्ट झलकती है। [[यूनानी वास्तु]] में परिष्कृत पूर्णता थी, रोमन इमारतें अपने वैज्ञानिक निर्माण के लिए प्रसिद्ध हैं, फ्रांसीसी गॉथि वास्तु उग्र क्रियाशीलता का द्योतक है, इतालवी पुनरुद्धार में उस युग का पांडित्य झलकता है और भारतीय वास्तु का प्रमुख गुण है उसका आध्यात्मिक विषय। इसमें संदेह नहीं, कि जनता की तत्कालीन धार्मिक चेतना मूर्त रूप में व्यक्त करना ही भारतीय वास्तु का मूल उद्देश्य रहा है, अर्थात् जनभावना ही ईंट पत्थर में मूर्त हुई है।
 
== भारतीय वास्तु ==
{{मुख्य|भारतीय स्थापत्य}}
 
भारतीय वास्तु की विशेषता यहाँ की दीवारों के उत्कृष्ट और प्रचुर अलंकरण में है। भित्तिचित्रों और मूर्तियों की योजना, जिसमें अलंकरण के अतिरिक्त अपने विषय के गंभीर भाव भी व्यक्त होते हैं, भवन को बाहर से कभी कभी पूर्णतया लपेट लेती है। इनमें वास्तु का जीवन से संबंध क्या, वास्तव में आध्यात्मिक जीवन ही अंकित है। न्यूनाधिक उभार में उत्कीर्ण अपने अलौकिक कृत्यों में लगे हुए देश भर के देवी देवता, तथा युगों पुराना पौराणिक गाथाएँ, मूर्तिकला को प्रतीक बनाकर दर्शकों के सम्मुख अत्यंत रोचक कथाओं और मनोहर चित्रों की एक पुस्तक सी खोल देती हैं।
 
== मुस्लिम वास्तु ==
वास्तुकला पर मुसलमानों के आक्रमण का जितना प्रभाव भारत में पड़ा उतना अन्यत्र कहीं नहीं, क्योंकि जिस सभ्यता से मुस्लिम सभ्यता की टक्कर हुई, किसी से उसका इतना विरोध नहीं था जितना भारतीय सभ्यता से। चिर प्रतिष्ठित भारतीय सामाजिक और धार्मिक प्रवृत्तियों की तुलना में मुस्लिम सभ्यता बिलकुल नई तो थी ही, उसके मौलिक सिद्धात भी भिन्न थे। दोनों का संघर्ष यथार्थवाद का आदर्शवाद से, वास्तविकता का स्वप्नदर्शिता से, और व्यक्त का अव्यक्त से संघर्ष था, जिसका प्रमाण मस्जिद और मंदिर के भेद में स्पष्ट है। मस्जिदें खुली हुई होती हैं, उनका केंद्र सुदूर मक्का की दिशा में होता है; जबकि मंदिर रहस्य का घर होता है, जिसका केंद्र अनेक दीवारों एवं गलियारों से घिरा हुआ बीच का देवस्थान या गर्भगृह होता है। मजिस्द की दीवारें प्राय: सादी या पवित्र आयतों से उत्कीर्ण होती हैं, उनमें मानव आकृतियों का चित्रण निषिद्ध होता है; जबकि मंदिरों की दीवारों में मूर्तिकला और मानवकृति चित्रण उच्चतम शिखर पर पहुँचा, पर लिखाई का नाम न था। पत्थरों के सहल रंगों में ही इस चित्रण द्वारा मंदिरों की सजीवता आई; जबकि मस्जिदों में रंगबिरंगे पत्थरों, संगमर्मर और चित्र विचित्र पलस्तर के द्वारा दीवारें मुखर की गई।
 
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शैलियों की दृष्टि से भी मुस्लिम वास्तु के तीन वर्ग हो सकते हैं। पहला दिल्ली, अथवा शहंशाही है, जिसे प्राय: "पठान वास्तु" (1193-1554) कहते हैं (यद्यपि इसके सभी पोषक "पठान" नहीं थे)। इस वर्ग में दिल्ली की कुतुबमीनार (1200), सुल्तान गढ़ी (1231), अल्तमश का मकबरा (1236), अलाई दरवाज़ा (1305), निजामुद्दीन (1320), गयासुद्दीन तुगलक (1325) और फीरोजशाह तुगलक (1388) के मकबरे, कोटला फीरोजशाह (1354-1490), मुबारकशाह का मकबरा (1434), मेरठ की मस्जिद (1505), शेरशाह की मस्जिद (1540-45) सहसराम का शेरशाह का मकबरा (1540-45), और अजमेर का अढ़ाई दिन का झोंपड़ा (1205) आदि उल्लेखनीय हैं। दूसरे वर्ग में प्रांतीय शैलियाँ हैं। इनमें पंजाब शैली (1150-1325 ई.); जैसे मुल्तान के श्रकने आलम (1320) और शाहयूसुफ गर्दिजी (1150), तब्रिजी (1276), बहाउलहक (1262) के मकबरे; बंगाल शैली (1203-1573) : जैसे पंडुआ की अदीना मस्जिद (1364), गौर के फतेहखाँ का मकबरा (1657), कदम रसूल (1530), तांतीमारा मस्जिद (1475); गुजरात शैली (1300-1572) : जैसे खंबे (1325), अहमदाबाद (1423), भड़ोच और चमाने (1523) की जामा मस्जिदें, नगीना मस्जिद मकबरा (1525); जौनपुर शैली (1376-1479) : जैसे अटाला मस्जिद (1408), लाल दरवाजा मस्जिद (1450), जामा मस्जिद (1470); मालवा शैली (1405-1569) : जैसे माडू के जहाजमहल (1460), होशंग का मकबरा (1440), जामा मस्जिद (1440), हिंडोला महल (1425), धार की लाट मस्जिद (1405), चंदेरी का बदल महल फाटक (1460), कुशक महल (1445), शहज़ादी का रौजा (1450); दक्षिणी शैली (1347-1617) : जैसे गुलबर्गा की जामा मस्जिद (1367) और हफ्त गुंबज (1378), बीदर का मदरसा (1481), हैदराबाद की चारमीनार (1591) आदि; बीजापुर खानदेश शैली (1425-1660), जैसे बीजापुर के गोलगुंबज (1660), रौजा इब्राहीम (1615) और जामा मस्जिद (1570), थालनेर खानदेश के फारूकी वंश के मकबरे (15 वीं शती); और कश्मीर शैली (15-17 वीं शती) : जैसे श्रीनगर की जामा मस्जिद (1400), शाह हमदन का मकबरा (17 वीं शती) आदि, सम्मिलित हैं। तीसरे वर्ग में मुगल शैली आती है, जिसके उत्कृष्टतम नमूने दिल्ली, आगरा, फतेहपुर सीकरी, लखनऊ, लाहौर आदि में किलों, मकबरों, राजमहलों, उद्यान मंडपों आदि के रूप में मौजूद हैं। इसी काल में कला पत्थर से बढ़कर संगमर्मर तक पहुँची और दिल्ली के दीवाने खास, मोती मस्जिद, जामा मस्जिद और आगरा के ताजमहल जैसी विश्वविश्रुत कृतियाँ तैयार हुई।
 
== बृहत्तर भारत का वास्तु ==
भारतीय कला के उत्कृष्ट नमूने भारत के बाहर [[श्रीलंका]], [[नेपाल]], [[बरमा]], [[स्याम]], [[जावा]], [[बाली]], [[हिंदचीन]], और [[कंबोडिया]] में भी मिलते हैं। नेपाल के शंभुनाथ, बोधनाथ, मामनाथ मंदिर, लंका में अनुराधापुर का स्तूप और लंकातिलक मंदिर, बरमा के बौद्ध मठ और पगोडा, कंबोडिया में अंकोर के मंदिर, स्याम में बैंकाक के मंदिर, जावा में प्रांबनाम का बिहार, कलासन मंदिर और बोरोबंदर स्तूप आदि हिंदू और बौद्ध वास्तु के व्यपक प्रसार के प्रमाण हैं। जावा में भारतीय संस्कृति के प्रवेश के कुछ प्रमाण 4 वी शती ईसवी के मिलते हैं। वहाँ के अनेक स्मारकों से पता लगता है कि मध्य जावा में 625 से 928 ई. तक वास्तुकला का स्वर्णकाल और पूर्वी जावा में 928 से 1478 ई. तक रजतकाल था।
 
== बीसवीं शती का वास्तु ==
सन् 1911 ई. में ब्रिटिश राज्य उन्नति के शिखर पर था। उसी समय दिल्ली दरबार में घोषणा की गई और साम्राज्य की राजधानी के अनुरूप एक नई दिल्ली में और सारे भारत के जिला सदर स्थानों तक में, सुंदर इमारतें बनवाई, जिनमें अनेक कार्यालय भवन, गिरजे, और ईसाई कब्रिस्तान कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। सरकारी प्रयास से नई दिल्ली में राजभवन (अब राष्ट्रपति भवन), सचिवालय भवन, संसद् भवन जैसी भव्य इमारतें बनीं, जिनमें पाश्चात्य कला के साथ हिंदू, बौद्ध और मुस्लिम कला का सुखद सम्मिश्रण दिखाई देता है।
 
मंदिर वास्तु भी, जो केवल व्यक्तिगत प्रयास से अपना अस्तित्व बनाए रहा, कुछ कुछ इसी दिशा में झुका। मुस्लिम वास्तु के अनुकरण पर अशोककालीन शिलालेखों की प्रथा पुन: प्रतिष्ठित हुई और मंदिरों मे भीतर बाहर, मूर्तियों और चित्रों के साथ लेखों को भी स्थान मिलने लगा। दिल्ली का लक्ष्मीनारायण मंदिर और हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी, का शिवमंदिर बीसवीं शती के मंदिरवास्तु की उत्कृष्ट कृतियाँ हैं। मंदिरों के अतिरिक्त राजाओं के महल और विद्यालय आदि भी कला को प्रश्रय देते रहे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की सभी इमारतें और वाराणसी का भारतमाता मंदिर, काशी विश्वनाथ की मंदिरोंवाली नगरी में दर्शकों के लिए विशेष आकर्षण के केंद्र हैं। कुशीगर (देवरिया जिला) में बने निर्वाण बिहार, बुद्ध मंदिर और सरकारी विश्रामगृह में बौद्ध कला को पुनर्जीवन मिला है। दिल्ली में लक्ष्मीनारायण मंदिर के साथ भी एक बुद्ध मंदिर है। इस प्रकार किसी शैली विशेष के पति अनाग्रह और उत्कृष्टता के लिए समन्वय 20 वीं शती की विशेषता समझी जा सकती है।
 
== चीनी वास्तु ==
चीनी वास्तु में बौद्ध और मुस्लिम प्रभाव स्पष्ट हैं। भारत के तोरणों की भाँति पत्थर या लकड़ी के द्वार चीनी वास्तु की विशेषता हैं। एक दूसरी के ऊपर अनेक छतें बनाकर ऊँची इमारतों में भी चौड़ाई का आभास पैदा किया जाता है। यद्यपि पत्थर भी वहँ मिलता है, फिर भी इमारतों में लकड़ी और ईंट का प्रयोग ही प्राय: हुआ है, क्योंकि मिस्रवालों की भाँति स्थायित्व उनका लक्ष्य न था। पीकिंग में महामकर मंदिर (1420), और ग्रीष्म प्रासाद का निद्रामग्न बुद्ध मंदिर तथा 17 डाटों वाला संगमर्मर का पुल, कैंटन में हो’नन मंदिर (918), नानकिन में पगोडा (1412) कला की दृष्टि से उल्लेखनीय है। 1400 मील लंबी प्राचीर तो विश्वविख्यात ही है।
 
== जापानी वास्तु ==
यद्यपि जापानी वास्तु का मूल चीन में है, फिर भी नक्काशी और अलंकरण की बारीकी इसकी अपनी विशेषता है। अनेक बौद्ध मंदिर और पगोडा देश भर में फैले हैं। क्यूटो में मिकाडो का महल, और किंकाकूजी तथा जिंकाकूजी के उद्यानमंडप, और नगोया में शुकिन रो सराय उल्लेखनीय हैं।
 
== पाश्चात्य वास्तु ==
भारत की सिंधु घाटी सभ्यता के बाद, प्राचीनता में मिस्र, यूनान, और रोम का नाम लिया जाता है। पाश्चात्य वस्तुकला में ये ही तीन देश अग्रणी रहे। सादे और आवर्तक मिस्री वास्तु के बाद यूनान की अति विकसित मंदिर-निर्माण-कला में, और फिर उसे बाद रोमन साम्राज्य की विविध सार्वजनिक निर्माण के लिए आवश्यक जटिल पद्धतियों में, वास्तु के क्रमिक विकास का इतिहास मिलता है। मिस्र में घर अस्थायी निवास समझे जाते थे और कब्रें स्थायी। इसी विचारधारा के पोषण सम्राटों के लिए निर्मित अति विशाल, भारी भरकम पिरामिडों और रहस्यपूर्ण मंदिरों में मिलता है। इसे विपरीत यूनानी मंदिर जनता के लिए बने और प्रस्तरकला में सुंदरता आई। साहित्य, संगीत और कला की उन्नति के साथ साथ रंगमंच, क्रीड़ांगण, और मल्लशालाएँ भी विकसि हुइ। संगमर्मर के प्रयोग से कृतियों में सफाई और बारीकी आई। सौंदर्यप्रिय यूनानियों ने भारतीय वास्तुकों की भांति ही, किंतु बहुत पहले ही, स्वतंत्र रूप से, स्तंभों की डोरिक, आयोनिक, और कोरिंथियन नामक विशिष्ट शैलियाँ विकसित की थीं। किंतु जब 146 ई.पू. में यूनान रामन साम्राज्य का अंग हो गया, तब उसका स्वतंत्र प्रभुत्व भी समाप्त हो गा। हाँ, उसका प्रभाव रोमन कला में अंत तक अवश्य बना रहा।
 
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वास्तुशैलियों के विकास में फिर कुछ विराम आया। इसी बीच पुनरुद्धार शैली का पथ प्रश्स्त करनेवाली परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई। बारूद के आविष्कार से समर पद्धतियाँ और फलत: किलों के विन्यास बदल गए। नई दुनिया की खोज हो चुकी थी। सन् 1453 ई. में कुस्तुंतुनिया के पतन के बाद यूरोप में यूनानियों के आप्रवास का भी प्रभाव पड़ा। फलत: इटली के ही समृद्ध और व्यापारिक नगर फ्लोरेंस में एक प्रतिद्वंद्वी शैली का जन्म हुआ। नए गिरजाघरों, और राजमहलों में गॉथिक युग की नुकीली डाटें, प्रतिच्छेदी मेहरावें, और ऊर्ध्वाधर लक्षण नहीं, बल्कि चिरप्रतिष्ठित रोमन शैली के अर्धवृत्ताकार गुंबद ही परिष्कृत रूपों में अपनाए गए। पुनरुद्धार का यह आंदोलन इटली से फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, नीदरलैंड, और इंग्लैंड तक फैला। हाँ, कालक्षेप के साथ इंग्लैंड में यह धीरे धीरे ही फैला, जिससे वहाँ दोनों शैलियों का मिश्रण दिखाई देता है।
 
== आधुनिक यूरोपीय वास्तु ==
उन्नीसवीं शती में परंपरागत वास्तुशैलियों में, मुख्यतया वास्तुकों की व्यक्तिगत रुचि के कारण, अनेक परिवर्तन हुए और एक "शैली संघर्ष" ही उपस्थित हो गया। किंतु वास्तुकला आज भी सामयिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है। यह संग्रहालयों, पाठशाओं, पुस्तकालयों, पठन केंद्रों, चिकित्सालयो, तरणतालों, स्नानागारों, विद्यालयों, चित्रशालाओं एवं कलाभवनों तथा वैज्ञानिक एवं जन-कल्याण-संस्थानों के निर्माण से स्पष्ट है। बीसवीं शती में पुनरुद्धार शैली सार्वजनिक भवनों और मार्गों आदि के लिए, तथा गॉथिक शैली गिरजाघरों और शिक्षालयों के लिए, विशेष रूप से प्रयुक्त होती है। निवासभवन सादी और उपयोगितालक्षी शैली में ही पसंद किए जाते हैं।
 
== अमरीकी वास्तु ==
अमरीकी वास्तु के विकास में तीन चरण स्पष्ट हैं। पहला है उपनिवेशीय काल (1775-83), प्रारंभि उपनिवेशों की स्थापना से क्रांति तक। इसमें यूरोपीय वास्तु से मिलता जुलता ही निर्माण हुआ है। दूसरा है आधुनिक काल (जिसे उपनिवेशोत्तर, राष्ट्रीय, या गणतंत्रीय काल भी कहते हैं) क्रांति से शिकागो प्रदर्शनी (1893) तक। इसमें राजधानियों के उपयुक्त महत्वाकांक्षासूचक और स्मारकीय भवन बने। 19 वीं शती की यूरोप की "यूनानी चेतना" भी वहाँ पहुँची। तीसरा अर्वाचीन काल (1893 से अब तक) है, जिसमें यूरोपीय "शैलीसंघर्ष" की भाँति ही यहाँ भी कोई एक दो शैलियाँ युग का प्रतिनिधित्व करती हुई नहीं कही जा सकतीं। सामाजिक स्थिति और श्रमसेवी उपकरणों से प्रभावित निवासों में उपयेगितालक्षी शैली स्पष्ट है, जब कि गिरजाघरों में वही गॉथिक शैली समादृत है। हाँ कुछ न कुछ मौलिकता का समावेश सभी जगह अवश्य देखने में आता है। यह भी उल्लेखनीय है कि केवल दो तीन शताब्दियों में ही जितना द्रुत परिवर्तन यहाँ हुआ है, उतना संसर में अन्यत्र कहीं नहीं। आजकल गगनचुंबी बहुमंजिली इमारतें अमरीका की विशेषता हैं।
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
* The Roman walls of Lugo. Past, present and future [http://3dnauta.com ''Unusual promotion of a technological strength'']
* [http://www.arounder.eu Tolomeus] VR Panoramas about Architectural History