"सत्य": अवतरणों में अंतर

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== सत्य के विभिन्न सिद्धान्त ==
[[न्याय दर्शन]] में प्रमुख रूप में प्रत्येक [[निर्णय]] और [[अनुमान]] पर विचार होता है। इनमें निर्णय का स्थान केंद्रीय है। निर्णय का शाब्दिक प्रकाशन [[वाक्य]] है। जब हम किसी वाक्य को सुनते हैं, तो उसे स्वीकार करते हैं या अस्वीकार करते हैं; स्वीकार और अस्वीकार में निश्चय न कर सकने की अवस्था संदेह कहलाती है। प्रत्येक निर्णय सत्य होने का दावा करता है। जब हम इसे स्वीकार करते हैं तो इसके दावे को सत्य मानते हैं; अस्वीकार करने में उसे असत्य कहते हैं। विश्वास हमारी साधारण मानसिक अवस्था है। जब किसी विश्वास में त्रुटि दिखाई देती है, तो हम इसका स्थान किसी अन्य विश्वास तक जाने की मानसिक क्रिया ही चिंतन है। विश्वास, सत्य हो या असत्य, क्रिया का आधार है, यही जीवन में इसे महत्वपूर्ण बनाता है। न्याय का काम निर्णय या वाक्य के सत्यासत्य की जाँच करना है; इसके लिए यह बात असंगत है कि कोई इसे वास्तव में सत्य मानता है या नहीं।
 
सत्य के संबंध में दो प्रश्न विचार के योग्य हैं - किसी निर्णय या वाक्य को सत्य कहने में हमारा अभिप्राय क्या होता है।
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मैं कहता हूँ कि मुझे दांत में दर्द हो रहा है। इसका अर्थ क्या है? मेरा अनुभव एक धारा है जिसमें निरंतर गति होती रहती है। मैं कहता हूँ कि धारा का जो भाग वर्तमान में ज्ञात है, दु:ख की अनुभूति उसमें प्रमुख पक्ष है। मेरे लिए यह स्पष्ट अनुभव है और मैं इसमें संदेह कर ही नहीं सकता। मेरे लिए इसे जाँचने को दूसरा मापक न है, न हो सकता है। स्पष्ट बोध से अधिक अधिकार किसी अन्य अनुभव का नहीं।
 
==अनुरूपता का सिद्धान्त (Correspondence theory)==
अन्य चेतनों का हमें स्पष्ट बोध नहीं हो सकता। कुछ लोग कहते हैं कि अनुरूपता के आधार पर हम उनके अस्तित्व में विश्वास करते हैं। परंतु ऐसा अनुमान करने की योग्यता प्राप्त होने से पहले ही बच्चा ऐसा विश्वास करता है। संभवत: वह सभी पदार्थों को अपने नमूने का समझता है, और पीछे कुछ वस्तुओं को अपने असमान पाकर अचेतन समझने लगता है।
 
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मैं ख्याल करता हूँ कि मुझसे अलग, बाहर, मेज और पुस्तक विद्यमान हैं और उनमें एक विशेष संबंध है। यदि स्थिति वास्तव में ऐसी ही है तो मेरा वाक्य सत्य है; ऐसा न होने की हालत में असत्य है। यह "सत्य का अनुरूपता सिद्धांत" है।
 
अनुरूपता का सिद्धांत वस्तुवाद से गठित है, और सर्वमान्य सा है। भारत के दर्शन में [[प्रत्यक्ष]] को प्रथम प्रमाण का पद दिया गया है। प्रत्यक्ष "इंद्रिय और उसके विषय के सामीप्य का फल है"। यह सामीप्य दो प्रकार से हो सकता है : या तो पदार्थ इंद्रिय के पास आए, या मन इंद्रिय द्वार से गुजरकर पदार्थ तक पहुँचे। दूसरी घटना घटती है और मन विषय का रूप ग्रहण करता है। यह अनुरूपता सिद्धांत का स्पष्ट समर्थन है।
 
अनुरूपता सिद्धांत के अनुसार हम अपने विचार और बाह्य स्थिति में समानता देखते हैं। अपने विचारों का तो हमें स्पष्ट बोध होता है, पर बाहर की स्थिति को हम कैसे जानते हैं? हम दो विचारों को साथ रखकर उनकी समानता असमानता की बाबत कह सकते हैं, परंतु बाह्य पदार्थ तो हमारी चेतना में प्रविष्ट ही नहीं हो सकता। उसकी तुलना किसी विचार से कैसे करेंगे? अनुरूपतावाद में यह मान लिया जाता है कि बाह्य स्थिति का ज्ञान हमें पहले से ही है। यदि पहले ही ऐसा ज्ञान हो तो निर्णय के सत्य असत्य होने का प्रश्न ही नहीं उठता। हमारी स्थिति ऐसे मनुष्य की स्थिति है जिसने ताजमहल के चित्र देखे हैं, परंतु ताजमहल को नहीं देखा, और जानना चाहता है कि वे चित्र परंतु ताजमहल को नहीं देखा, और जानना चाहता है कि वे चित्र ताजमहल को वास्तविक रूप में दिखाते हैं या नहीं।
 
==अविरोध का सिद्धान्त (Coherence theory of truth)==
अध्यात्मवाद कहता है कि वस्तुवाद के पास इस आपत्ति से बचने का कोई साधन नहीं। सत्य के मापक की खोज स्वयं अनुभव में करनी चाहिए। अनुभव में "आंतरिक अविरोध" सत्य की कसौटी है। अपने पिछले दृष्टांत को फिर लें। "पुस्तक मेज पर पड़ी है", मैं यह कैसे जानता हूँ? आंख ऐसा बताती है। यह एक अनुभव है। परंतु आँख कभी कभी धोखा भी दे देती है। मैं हाथ से पुस्तक और मेज को छूता हूँ। यह दूसरा अनुभव पहले अनुभव की पुष्टि करता है। हाथ से खटकाता हूँ तो जो शब्द सुनाई देता है, वह पुस्तक और मेज से निकला प्रतीत होता है। तीसरा अनुभव पहले दोनों अनुभवों की पुष्टि करता है दूसरे भी पुस्तक को मेज पर पड़ा देखते हैं। अनुरूपता सत्य का चिह्न है, परंतु यह अनुरूपता विचार और बाह्य पदार्थ के दरमियान नहीं, अनुभव के विविध भागों के दरमियान होती है। आकर्षणनियम के अनुसार प्रत्येक पदार्थ अन्य पदार्थों से आकृष्ट होता है, और उन्हें खींचता भी है। इसी तरह सत्य ज्ञान के सभी भाग एक दूसरे पर आश्रित हैं। जो निर्णय इस तरह शेष अनुभव से युक्त हो सकता है, वह सत्य है; जिसमें यह योग्यता नहीं वह असत्य है।
 
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जिन वाक्यों को हम सत्य कहते हैं, वे दो प्रकार के होते हैं- वैज्ञानिक नियम संबंधी और तथ्य संबंधी। "दो और दो चार होते हैं," यदि किसी त्रिकोण के भुज बराबर हों, तो उसके कोण भी बराबर होंगे। - यह वाक्य हर कहीं और सदा सत्य हैं; देश और काल का भेद उनके सत्य होने से असंगत है। "भारत 1947 ई. में स्वाधीन हुआ।" 1947 ई. से पहले यह वाक्य कहा ही नहीं जा सकता था, परंतु अब यह भी सदा के लिए सत्य है।
 
==व्यवहारवाद==
सत्य का तीसरा सिद्धांत "[[व्यवहारवाद]]" या "[[प्रैग्मेटिज्म]]" के नाम से प्रसिद्ध है। अपने आधुनिक रूप में यह अमरीका की देन है। वास्तव में व्यवहारवाद कोई सिद्धांत नहीं, एक मनोवृत्ति है जो सामान्य से विशेष को, स्थिरता से परिवर्तन को, चिंतन से क्रिया को अधिक महत्व देती है। इस विचार के प्रसार में चाल्र्स पीअर्स, विलियम जेम्स और जान डियूई का विशेष भाग है। पीअर्स नैयामिक था, जेम्स मनोवैज्ञानिक था, डियूई की अभिरुचि नीति और राजनीति में थी। पीअर्स ने प्रत्ययों के "अर्थ" को स्पष्ट करने में व्यवहारवाद की विधि का प्रयोग किया, जेम्स ने "सत्य का स्वरूप निर्णीत करने में इसे बर्ता, डियूई ने "भद्र" पर इसे लागू किया। इस तरह वे न्याय, सौंदर्यशास्त्र और नीति को अनुभववाद के निकट ले आए।
 
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"व्यवहारवाद, मूल रूप में, उन दार्शनिक विवादों को मिटाने का नियम है जो इसके बिना अंतरहित होते। जगत् एक है या अनेक? स्वाधीन है या पराधीन? प्राकृतिक है या आध्यात्मिक? ये विचार ऐसे हैं जिनमें एक या दूसरा सत्य या असत्य हो सकता है, और ऐसे विचारों पर विवादों का कोई अंत नहीं। व्यवहारवाद की विधि इन विषयों के संबंध में यह है कि हम प्रत्येक प्रत्यय का समाधान इसके व्यावहारिक परिणामों के परीक्षण से करें। यदि कोई प्रत्यय दूसरे प्रत्यय के स्थान में सत्य होता, तो इससे किसी मनुष्य के लिए व्यावहारिक भेद क्या पड़ता? यदि कोई व्यावहारिक भेद दिखाई न दे तो व्यवहार में दोनों पक्षांतर एक ही हैं और सारा विवाद व्यर्थ है। जब कोई विवाद गंभीर हो तो हमें यह दिखाई के योग्य होना चाहिए कि दोनों पक्षों में एक या दूसरे के सत्य होने पर कोई व्यावहारिक भेद होता है"।
 
जेम्स से बहुत पहले इसी भाव को प्रकट करते हुए [[रामानुज]] ने कहा था-"व्यवहार योग्यता सत्यम्"।
 
व्यवहारवाद [[ज्ञानमीमांसा]] में [[उपयोगितावाद]] है : "जो कुछ विश्वास के संबंध में अपने आपको मूल्यवान् सिद्ध करता है, वह सत्य है। व्यवहारवाद बिना झिझक के यह मान लेता है कि जो विश्वास एक के लिए सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है।
 
ऊपर कहा गया है कि व्यवहारवाद सामान्य से विशेष को और स्थिरता से परिवर्तन को अधिक महत्व देता है। डियूई की शिक्षा में हम इसे स्पष्ट देखते हैं।
 
राजनीति में राजतंत्र, शिष्टजनतंत्र और प्रजातंत्र शासनों में भेद किया जाता है। राजतंत्र और शिष्टजनतंत्र अधिक सफल हों, तो भी प्रजातंत्र उनसेअच्छाउनसे अच्छा है, क्योंकि यह व्यक्ति के मूल्य को स्वीकार करता है। नीति में कुछ नियमपालन को और कुछ श्रेय की सिद्धि को लक्ष्य बताते हैं। [[जॉन डुई|डियूई]] के अनुसार दोनों वर्ग एक ही भ्रांति में पड़े हैं; वे विशेष को उचित महत्व नहीं देते। नीति को एक नहीं अनेक नियमों को, एक नहीं अनेक साध्यों को स्वीकार करना चाहिए। उद्देश्य हर हालत में वर्तमान कठिनाई को दूर करना होता है; जो क्रिया इसमें अधिक से अधिक सहायक हो, वही उस स्थिति में सर्वश्रेष्ठ है। कोई मनुष्य कहीं भी स्थित हो, वह अच्छा मनुष्य है यदि वह आगे बढ़ रहा है, बुरा मनुष्य है यदि पीछे हट रहा है। जीवन का एकमात्र लक्ष्य उत्थान या वृद्धि है; पूर्णता नहीं, अपितु पूर्णता की ओर निरंतर गति है।
 
यह गति ही शिक्षा है, नैतिक जीवन और शिक्षा एक ही वस्तु है। प्रचलित विचार के अनुसार शिक्षाकाल तैयारी का समय है; यह व्यक्ति को पराधीनता से विमुक्त करके स्वाधीन बना देता है। यदि ऐसा ही है, तो शिक्षाकाल की समाप्ति पर शिक्षा की आवश्यकता भी नहीं रहती। डियूई कहता है कि वृद्धि का यत्न तो जीवन के अंत तक जारी रहना चाहिए, सारा जीवन ही शिक्षाकाल है। जो कुछ स्कूलों कालेजों में पढ़ाया जाता है, उसमें साहित्य और भाषाओं के ज्ञान की अपेक्षा विज्ञान को अधिक महत्व मिलना चाहिए। विज्ञान में भी जो भाग पुस्तकों से प्राप्त होता है, उससे अधिक मूल्य उस भाग का है जो विद्यार्थी अपनी क्रिया से सीखता है। मनुष्य का दिमाग का नहीं, क्रिया का अस्त्र है।
 
 
== ‘सत्यमेव जयते’ ==
सत्यनिष्ठा ही ब्रह्मनिष्ठा
 
- देवेश शास्त्री-
 
‘‘सत्यमेव जयते’’ वेदवाक्य, के निहितार्थ को आत्मसात करते हुए सत्यनिष्ठा के साथ पद की शपथ लेने वाले ‘जनसेवकों’ से पूछिए, कि आप सत्यनिष्ठा के रहस्य को जानते है? सत्यनिष्ठा का राग अलापने की कोई आवश्यकता नहीं है और न ही सत्यमेव जयते को मनोरंजन का साधन बनाने की। वास्तव में यह वेदवाक्य मन का रंजन नहीं कर सकता, बल्कि आत्मानुभूति कराता है। जिसे अनुपमेय आनंद का आधार कहा जा सकता। इस संदर्भ में गीतकार ओपी दीक्षित के ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं-‘‘जाओ जाकर उनसे कह दो कुर्सी पाकर कुछ काम करें, मत ढोल पीटकर वादों के, अब लोकतंत्र बदनाम करें।’’
‘सत्यं वद, धर्मं चर’, याद करने के नहीं, धारण करने के मंत्र हैं। यहां यह भी कहा गया - सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, मा ब्रूयात सत्यमप्रियम्। ‘सत्य बोलो, प्रिय बोलो किंतु अप्रिय सत्य तथा प्रिय असत्य मत बोलो।’ यहां यह भी उल्लेखनीय है- ‘हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः।’ यानी प्रिय-सत्य एक साथ नहीं हो सकते। जब सत्यता कटु है और असत्य में माधुर्य है तो क्या करना चाहिए? सत्य अप्रिय और असत्य प्रिय होता है, इसीलिए असत्य का बोलवाला है। ‘‘मधुर वचन है औषधी, कटुक वचन है तीर।’’ यानी सत्य हानिकारक शस्त्र है और असत्य लाभदायक औषधि है। बाबा तुलसी ने स्पष्ट कर दिया- ‘‘सचिव वैद गुरु तीन जो प्रिय बोलें भय आश। राज धर्म तन तीन कर होय वेग ही नाश।।’’ सचिव यदि प्रिय बोले तो राज्य, बैद्य यदि प्रिय बोले तो शरीर और गुरू यदि प्रिय बोले तो धर्म का नाश निश्चित है। प्रिय बोलना अहित कर इसलिए है, क्योंकि वह असत्य ही प्रिय है। इस तरह अर्थ की बजाय हम अनर्थ निकालते रहे और स्वार्थपरता में गधे को बाप बनाते हुए अपना उल्लू सीधा करते चले आ रहे हैं। ‘सत्य’ की परिभाषा सीधी है, उक्त सभी उक्तियां उचित और मानव जीवन के लक्ष्यवेध में मंत्र के रूप में हैं। ‘‘त्यागाय संभ्रतार्थानां, सत्याय मितभाषिणाम्’’ मितभाषी ही सत्यवादी होता है। साधक दीर्घकाल मौन साधना करता है जब मुंह से कोई शब्द निकलता तो वह सत् रूप ब्रह्मवाक्य होता है। वही प्रिय सत्य कहा गया है। सत्यनिष्ठा की अजस्र ऊर्जा शक्ति मितभाषी सत्यनिष्ठ साधक की रिद्धि-सिद्धि संपन्नता को प्रकट करता है। ‘‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्।’’
आइये! विचार करें!!
सत्-चित्-आनंद यानी सच्चिदानंद स्वरूप वह परमतत्व है, जिसे परब्रह्म परमात्मा या परमेश्वर कहते हैं। ‘‘सत्यं ब्रह्म जगन्मिथ्या’’ यह वेदबाक्य स्पष्ट करता है कि सत् रूप ब्रह्म है, सत् से सत्य शब्द बना अर्थात् जो सत् (ब्रह्म के योग्य है वही सत्य है। यह सत् जब मन-वाणी-कर्म ही नहीं बल्कि श्वांस-श्वांस में समा जाता है तब किसी तरह द्विविधा नहीं रहती। सिर्फ सत् से ही सरोकार रह जाय, तब ‘सत्यं वद’ को कंठस्थ हुआ मानो।
सन्मार्ग से विचलित न होना सत्स्वरूप परमेश्वर की कृपा से ही संभव है। सन्मार्ग पर पहला कदम है सद्विचारों का आविर्भाव होना। विचारों से दुबुद्धि का सद्बुद्धि के रूप में परिवर्तन दिखाई देगा। बुद्धि से संबद्ध विवेक में सत् का समावेश होगा और वह सत्यासत्य का भेद करने की राजहंसीय गति प्राप्त कर लेता है। अष्टांग योग प्रथमांग यम का प्रथम चरण ही सत् है, सत् पर केंद्रित होने की दशा में ही ‘योगश्चित्त वृत्तिः निरोधः’ सद्बुद्धि ही चित्तवृत्तियों को नियंत्रित करती है। अन्तःचतुष्टय में बुद्धि के बाद चित्त, अहंकार में ब्रह्मरूपी सत् समावेश होते ही मन पर नियंत्रण पाया जा सकता है। मन पर केंद्रित हैं, कामनायें। जो इन्द्रियों की अभिरुचि के आधार पर प्रस्फुटित होती है। कामनाओं का मकड़जाल ही तृष्णा है। संतोष रूपी परमसुख से तृष्णा का मकड़जाल टूटता है। मन द्वारा कामनाओं के शांत हो जाने से आचरण नियंत्रित हो जाता है। ‘‘आचारः परमो धर्मः’’ आचरण में सत् का समावेश ही सदाचार कहा गया है। ऐसे में कदाचार की कोई गुंजाइस नहीं रहती, मनसा-वाचा-कर्मणा लेश मात्र भी कदाचार दिखे तो मान लो कि यहां सत्यनिष्ठा का सिर्फ दिखावा है। सदाचार स्वच्छ मनोदशा का द्योतक है। जबकि कदाचार की परधि में अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार और भ्रष्टाचार अदि आते हैं। सत्-जन मिलकर सज्जन शब्द बनता है। प्रत्येक व्यक्ति सज्जन नहीं होता। इसी तरह सत् युक्त होने पर सन्यास की स्थिति बनती है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि सत्यनिष्ठा ही धर्मनिष्ठा, कर्मनिष्ठा और ब्रह्मनिष्ठा है। क्योंकि धर्म, कर्म ही ब्रह्मरूप सत् है। सत्य परेशान भले हो मगर पराजित नहीं होता। तभी तो ‘‘सत्यमेव जयते’’ के बेदवाक्य को राष्ट्रीय चिन्ह के साथ जोड़ा गया। यह भी विचारणीय है- सत्य परेशान भी क्यों होता है? अध्यात्म विज्ञान स्पष्ट करता है कि सत्यनिष्ठा में अंशमात्र का वैचारिक प्रदूषण यथा सामथ्र्य परेशानीदायक बन जाता है। सत्यनिष्ठा का सारतत्व यह है-‘‘हर व्यक्ति सत्य, धर्म व ज्ञान को जीवन में उतारे, यदि सत्य-धर्म-ज्ञान तीनों न अपना सकें तो सिर्फ सत्य ही पर्याप्त है क्योंकि वह पूर्ण है सत्य ही धर्म है, और सत्य ही ज्ञान। सदाचार से दया, शांति व क्षमा का प्राकट्य होता है। वैसे सत्य से दया, धर्म से शांति व ज्ञान से क्षमा भाव जुड़ा है।
सत् को परिभाषित करते हुए रानी मदालिसा का वह उपदेशपत्र पर्याप्त है जो उन्होंने अपने पुत्र की अंगूठी में रखकर कहा था कि जब विषम स्थिति आने पर पढ़ना। ‘‘संग (आसक्ति) सर्वथा त्याज्य है। यदि संग त्यागने में परेशानी महसूस हो तो सत् से आसक्ति रखें यानी सत्संग करो इसी तरह कामनाएं अनर्थ का कारण हैं, जो कभी नहीं होनी चाहिए। कामना न त्याग सको तो सिर्फ मोक्ष की कामना करो।’’ अनासक्त और निष्काम व्यक्ति ही सत्यनिष्ठ है। आसक्ति और विरक्ति के मध्य की स्थिति अनासक्ति है। जो सहज है, दृऋषभदेव व विदेहराज जनक ही नहीं तमाम ऐसे अनासक्त राजा महाराजा हुए है। आज भी शासन, प्रशासन में नियोजित अनासक्त कर्तव्यनिष्ठ नेता व अफसर हैं जिन्हें यश की भी कामना नहीं है।
( लेखक सत्यनिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों के संगठन ‘सत्यमेव जयते’ की नेशनल कार्यकारिणी में सदस्य तथा इंडिया अगेंस्ट करप्शन की टीम यूपी का सदस्य हैं)
 
 
== निष्कर्ष ==
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== इन्हें भी देखें ==
* [[आर्यसत्य]]
* [[सत्यमेव जयते]]
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
"https://hi.wikipedia.org/wiki/सत्य" से प्राप्त