"अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ": अवतरणों में अंतर
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देखते-देखते सम्पूर्ण देश में प्रगतिशील लेखक संगठन की शाखाएँ फैलने लगीं। 9-10 अप्रैल 1936 को प्रेमचंद की अध्यक्षता में होने वाले लखनऊ अधिवेशन में उस समय के प्रसिद्ध लेखक प्रेमचंद और जैनेन्द्र इसमें शामिल हुए। इस अधिवेशन में प्रेमचंद का अध्यक्षीय भाषण जब हिन्दी में रूपांतरित हुआ तो हिन्दी लेखकों की प्रेरणा का स्रोत बन गया। लखनऊ अधिवेशन में कई आलेख पढ़े गए जिनमें अहमद अली, रघुपति सहाय, मह्मूदुज्ज़फर और हीरन मुखर्जी के नाम उल्लेख्य हैं। गुजरात, महाराष्ट्र और मद्रास के प्रतिनिधियों ने भी भाषण दिए. प्रेमचंद के बाद सबसे महत्वपूर्ण वक्तव्य हसरत मोहानी का था। हसरत ने खुले शब्दों में साम्यवाद की वकालत करते हुए कहा " हमारे साहित्य को स्वाधीनता आन्दोलन की सशक्त अभ्व्यक्ति करनी चाहिए और साम्राज्यवादी, अत्याचारी तथा आक्रामक पूंजीपतियों का विरोध करना चाहिए. उसे मजदूरों, किसानों और सम्पूर्ण पीड़ित जनता का पक्षधर होना चाहिए. उसमें जन सामान्य के दुःख-सुख, उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं को इस प्रकार व्यक्त करना चाहिए कि इससे उनकी इन्क़लाबी शक्तियों को बल मिले और वह एकजुट और संगठित होकर अपने संघर्ष को सफल बना सकें. केवल प्रगतिशीलता पर्याप्त नहीं है. नए साहित्य को समाजवाद और कम्युनिज्म का भी प्रचार करना चाहिए." अधिवेशन के दूसरे दिन संध्या की गोष्ठी में जय प्रकाश नारायण, यूसुफ मेहर अली, इन्दुलाल याज्ञिक, कमलादेवी चट्टोपाध्याय आदि भी सम्मिलित हो गए थे. इस अवसर पर संगठन का एक संविधान भी स्वीकार किया गया और सज्जाद ज़हीर को संगठन का प्रधान मंत्री निर्वाचित किया गया.
इसका दूसरा द्वितीय अखिल भारतीय अधिवेशन : कोलकाता 1938, तृतीय अखिल भारतीय अधिवेशन : दिल्ली 1922, चौथा अखिल भारतीय अधिवेशन : मुम्बई 1945, पांचवां अखिल भारतीय अधिवेशन : भीमड़ी 1949, छठा अखिल भारतीय अधिवेशन : दिल्ली 1953 में हुआ। १९५४ तक पहुँचते पहुँचते यह आंदोलन आपसी सामंजस्य की कमी,सामाजिक परिवर्तनों और उद्देश्यहीनता के कारण धीमा पढ़ने लगा और इसका बाद इसका कोई अधिवेशन नहीं हुआ।<ref>{{cite web |url= http://yugvimarsh.blogspot.com/2008/06/blog-post_14.html|title= प्रगतिशील लेखक आन्दोलन : जड़ों की पहचान |accessmonthday=[[२६ जून]]|accessyear=[[2008]]|format= एचटीएमएल|publisher= युग विमर्श|language=}}</ref>
==संदर्भ==
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