"फ़ैज़ अहमद फ़ैज़": अवतरणों में अंतर

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:राह तकता है सब, शहर ए जानां चलो
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:बोल कि होठ आज़ादस्वतंत्र हैं तेरे
:बोल, ज़ुबानजीभ अब तक तेरी है
:तेरा कसा हुआ जिस्मशरीर है तेरा
:बोल कि जानप्रीण अब तक तेरी है
:<br />
:आईए हाथ उठाएँ हम भी
:हम जिन्हें पूजा करने का तरीक़ा याद नहीं
:हम जिन्हें मुहब्बतप्रेम के दर्द (जज़बात) के सिवा
:कोई बुत कोई भगवान याद नहीं
:<br />
:लाओ, सुलगाओ कोई ग़ज़ब के जोशउत्साह की ज्वाला
:दीवानेपन की आग लाओ
:दहकता हुआ गुलज़ार (फूलों से भरपूर) लाओ
:जिस में गर्मी भी है, हरकतचलन भी, ऊर्जा भी
:ज़रूरअवश्य अपने जैसे लोगों का कोई गुट
:इस अन्धकार में दूरी पर मेरामेरी इन्तिज़ारप्रतीक्षा कर रहा होगा
:मेरी जलाई ज्वाला के शोले बेकार नहीं - वे उन्हें मेरी मौजूदगी के बारे में बताएँगे
:वो मुझे बचाने मुझ तक न भी पहुँच पाए, तो मुझे पुकारेंगे ज़रूर
:इस रात की सुबहप्रभात कितनी देर में होनी है, मुझे ख़बर दे देंगे
:(क़ैद में अकेलेपन में लिखी हुई)
:<br />
:कुरबानआर्पित हूँ मैं तेरी गलियों के ऐ वतनराष्ट्र
:के जहाँ चली है रस्मप्रथा के कोई न सरसिर उठा के चले
:अगर कोई चाहने वाला सैर को निकले
:नज़र चुरा के चले, जिस्मतन और जानप्राण बचा के चले
:<br />
:कुछ दिन और मेरी जानप्राण, सिर्फ़केवल चंदकुछ ही रोज़दिवस
:ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर है हम
:और कुछ देर सितमअत्याचार सह लें, तड़प लें, रो लें
:अपने पूर्वजों की देन (करनी का नतीजा) हैं, हम निर्दोष हैं
:<br />
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:हाथ हिलाते हुए चलो, मस्त हुए नाचते हुए चलो
:धुल से भरा हुआ सिर लेकर चलो, ख़ून से लथपथ दामन लेकर चलो
:महबूबाप्रियतमा का सारा शहर तमाशा देखना चाहता है, चलो
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