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टरबाइन घूर्णक मोटर या इंजिन है, जिसमें गैस, जल या भाप की धारा द्वारा, क्रैंक के स्थान पर ईषा बेयरिंग पर घूर्णन करती है। गैस, जल और भाप से जलनेवाले टरबाइन एक दूसरे से भिन्न होते हैं।
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गैस टरबाइन'''
 
इस शब्द की विभिन्न परिभाषाएँ दी जाती हैं। विस्तृत परिभाषा के अनुसार गैस टरबाइन वह मूल चालक (prime mover) है जिसके संपूर्ण उष्मीय चक्र में कार्यकारी तरल गैसीय ही बना रहता है एवं जिसके सभी यंत्रांगों की गति परिभ्रमी होती है। संकीर्ण परिभाषा के अनुसार इस शब्द का प्रयोग सिर्फ उस मुख्य टरबाइन अंग के लिये किया जाता है जिसका माध्यम गरम वायु होती है। कुछ विद्वानों के मतानुसार गैस टरबाइन वह यंत्र है जिसमें प्रवाह प्रक्रम अविरत रहता है एवं शक्ति टरबाइन द्वारा प्राप्त होती है।
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संक्षिप्त इतिहास '''
 
 
संक्षिप्त इतिहास '
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प्रथम गैस टरबाइन की निर्माणतिथि अभी तक अज्ञात है किंतु 130 ई. पू. के मिस्र में हीरो ने टरबाइन के सदृश एक ऐसे यंत्र का निर्माण किया था जो गरम वायु की सहायता से चलता था संभवत: प्रथम ज्ञात गैस टरबाइन का निर्माण सन्‌ 1550 ई. में हुआ एवं इसका निर्माता लियोनार्डो दा विंशी था। यह यंत्र चिमनी के पास रखा जाता था और इससे होकर चिमनी की गैस ऊपर जाती थी। इस यंत्र के द्वारा बहुत कम शक्ति प्राप्त होती थी, जिसका उपयोग मांस को भूनने के लिए बने हुए पात्र को चलाने के लिए किया जाता था। गैस टरबाइन का सर्वप्रथम पेटेंट इंग्लैंड में जॉन बारबर ने 1791 ई. में कराया था। आश्चर्य की बात तो यह है कि उसका बनाया गैस टरबाइन आधुनिक विकसित सिद्धान्त पर आधारित पाया गया है। उसके बाद जॉन डाबेल ने 1808 ई. में दूसरा पेटेंट इंग्लैंड में ही कराया। 1837 ई. में पेरिस में ब्रेसन ने एक ऐसे टरबाइन का पेटेंट कराया, जिसमें सभी आवश्यक कल पुर्जे थे। उच्च शक्ति वाले गैसे टरबाइन का निर्माण 1872 ई0 में स्टोल्ज ने किया था, जो बहुपद (multi-stage) अभिक्रिया टरबाइन एवं बहुपद अक्षीय-प्रवाह संपीडक (Arial Flow Compressor) द्वारा युक्त था। उस समय वैज्ञानिकों को वायुगतिकी (Aerodynamics) का ज्ञान कम था, जिसस दक्ष संपीडक का निर्माण संभव नहीं था। संपीडक की डिज़्ााइन सुचारू रूप से न किए जाने के कारण अनेक हानियाँ होती हैं, जिनके कारण टरबाइन द्वारा प्राप्त कार्य का अधिकांश भाग संपीडक को चलाने में ही खर्च हो जाता है और बहुत ही कम शक्ति उपलब्ध होती है। दहनकक्ष की डिजाइन एवं निर्माण भी अधिक विकसित नहीं हो पाया था। अनुसंधानकर्ताओं को इन समस्याओं के सिवाय उपयुक्त निर्माण सामग्री की विकट समस्या का भी सामना करना पड़ता था। इन्हीं सब कारणों से प्रारंभिक गैस टरबाइन सफल नहीं हो पाए।
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उपर्युक्त डिजाइनों के अलावा और भी विभिन्न डिजाइनों के टरबाइनों का विकास होता रहा है। वैज्ञानिकों के अथक प्रयास के फलस्वरूप आज गैस टरबाइन की नींव पक्की हो गर्ह है।
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गैस टरबाइन की उष्मागतिकी (Thermodynamics)'''
 
गैस टरबाइन का सबसे सरल रूप चित्र 1. में दिखाया गया है। वायु मंडल से वायु संपीडक में प्रवेश करती है, जहाँ इसका संपीड़न होता है। संपीडित वायु को दहनकक्ष में लाया जाता है, जिसमें ईधंन की सहायता से वायु गरम की जाती है। दहन कक्ष से निकलकर गरम वायु टरबाइन में जाती है एवं इस यंत्र के द्वारा कार्य करती है। कार्य करने के बाद वायु बाहर निकल जाती है। दहन करने की दो प्रणालियाँ व्यवहार में लाई जाती हैं : (1) स्थिर दाब तथा (2) स्थिर आयतन। इन दो प्रणालियों में स्थिर दाब चक्र अच्छा पाया गया है। गैसे टरबाइन में व्यवहृत उष्मागतिकी चक्र हैं : (1) खुला चक्र तथा (2) बंद चक्र। प्रथम प्रकार के चक्र में वायुमंडल से ताजी वायु संपीडक में प्रवेश करती एवं टरबाइन में कार्य करने के बाद वायुमंडल में ही निष्कासित हो जाती है, किंतु दूसरे प्रकार के चक्र में बाहर से ताजी वायु नहीं आती है, वरन्‌ उसी वायु या गैस का बारंबार परिवहन होता है।
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टरबाइन की दक्षता को बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार के उपकरण व्यवहार में लाए जाते हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं :
 
===(क) उष्मा विनिमयित्र (Heat Exchanger)===
 
संपीडक से निकलकर संपीडित वायु इसमें (देखें चित्र 2) एक ओर से प्रवेश करती है एवं दूसरी ओर से टरबाइन द्वारा निष्कासित गैस प्रवेश करती है। गैस संपीड़ित वायु से अधिक गरम होती है। इसीलिये ताप गैस से संपीड़ित वायु में प्रवेश करता है तथा संपीडित वायु और भी गरम हो जाती है। संपीडित वायु के अधिक गरम होने से दहनकक्ष में ईधंन की कम आवश्यकता होती है। इससे संपूर्ण संयंत्र की दक्षता बढ़ जाती है।
 
===(ख) अंत:शीतलक (Intercooler)=== -
 
संपीड़न के कार्य में कुछ भी कमी होने से उपलब्ध शक्ति की वद्धि हो जाती है, जिससे संयंत्र की दक्षता बढ़ जाती है। संपीड़न के कार्य को कम करने के लिये वायु निम्न दाब संपीड़क में संपीड़ित होकर अंत:शीतलक (देखें चित्र 3) में प्रवेश करती है, जहाँ उसका ताप कम करके उसको उच्च दाब संपीड़क में पुन: संपीड़ित होने के लिये भेजा जाता है।
 
===(ग) पुनस्तापक (Reheater) ===
 
प्रथम टरबाइन में कार्य करने के बाद गैस पुनस्तापक (देखें चित्र 4) में प्रवेश करती है, जहाँ इसे पुनस्तापित किया जाता है। पुनस्तापक से निकलकर गैस द्वितीय टरबाइन में कार्य करने के लिये प्रवेश करती है।
 
===गैस टरबाइन के मुख्य अंग=== - ये निम्नलिखित हैं :
 
===(क) संपीड़क ===:
 
गैस टरबाइन में दो प्रकार के संपीड़क लगाए जाते हैं, अक्षप्रवाह एवं अपकेद्रिक। अक्षप्रवाह संपीड़क का व्यवहार पहले बहुत ही कम होता था, किंतु पिछले कुछ वर्षों में वायुगतिकी विज्ञान का विकास होने से इस तरह के संपीड़क का डिजाइन सरल हो गया है एवं इसकी दक्षता भी बढ़ गई है। औद्योगिक गैस टरबाइन में इस प्रकार के संपीड़क का अधिक व्यवहार होता है, क्योंकि इसके द्वारा उच्च दाब अनुपात एवं उच्च दक्षता की प्राप्ति होती है। अपकेंद्रिक संपीड़क हल्का होने के कारण वायुयान में अधिक व्यवहृत होता है।
 
===(ख) दहनकक्ष :===
 
जैसा ऊपर बताया जा चुका है, इस कक्ष में ईधंन की सहायता से संपीड़ित वायु को गरम किया जाता है। इस अंग की डिज़ाइन अत्यंत नाजुक एवं जटिल होती है।
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इसीलिये, उपलब्ध शक्ति = टरबाइन द्वारा प्राप्त कार्य - संपीड़क में खर्च किया हुआ कार्य।
 
===गैस टरबाइन की सामग्री=== :
 
गैस टरबाइन की उष्मीय दक्षता टरबाइन में कार्य करनेवाले गैसे के प्रवेशताप पर निर्भर करती है। यह ताप जितना अधिक होगा दक्षता उतनी ही अधिक होगी, किंतु गैस के ताप को बढ़ाने के पहले टरबाइन के फलकों के लिए व्यवहृत सामग्री में भी उस ताप पर कार्य करने की क्षमता होती चाहिए। इस क्षेत्र में गहन अनुसंधान हुए हैं एवं बहुत तरह की नई नई सामग्रियों का विकास हुआ है। ये सामग्रियाँ उच्च ताप एवं उच्च प्रतिबल (stress) की विषम अवस्थाओं में भी सुचारु रूप से कार्य कर पाती हैं।
 
===परिभ्रमक फलक शीतलन ===-
 
नई नई निर्माण सामग्रियों के विकास के साथ ही गैस टरबाइन की उष्मीय दक्षता को बढ़ाने का दूसरा तरीका गरम पुर्जों को ठंडा करना है। परिभ्रमक पर शोधन कार्य हो रहे हैं। खोखले फलकों का निर्माण किया गया है एवं इन्हें संपीड़क द्वारा वायु भेजकर ठंडा किया जाता है। इस तरह से फलकों के साथ ही साथ परिभ्रमक भी ठंडा होता रहता है।
 
===गैस टरबाइन में व्यवहृत ईंधन ====-
 
गैस टरबाइन में प्राय: सभी प्रकार के ईंधन व्यवहृत होते हैं। पतले तेल को जलाने में कोई कठिनाई नहीं होती। गाढ़े तेल को जलाने के लिये विशेष प्रकार के प्रसाधन की आवश्यकता होती है, क्योंकि इस प्रकार के तेल को जलाते समय अग्रलिखित समस्याओं का सामान करना पड़ता है: तेल में विद्यमान ठोस कणों का दक्षतापूर्वक दहन, टरबाइन फलकों पर राख कर जमा होना तथा टरबाइन फलकों एवं अन्य पुर्जों को तेल के क्षारण प्रभाव से बचाना।
 
===गैस टरबाइन की उपयोगिता==== -
 
गैस टरबाइन मूलचालक है। यह परिभ्रमी प्रकार का यंत्र है। इसीलिये पश्चाग्र (reciprocating) मूलचालकों की अपेक्षा इसमें घर्षणहानि बहुत ही कम होती है। गैस टरबाइन की यांत्रिक दक्षता 95 से 97 प्रति शत तक होती है, जब की अंतर्दहन इंजन की दक्षता 80 से 85 प्रति शत तक ही हो पाती है। गैस टरबाइन का संतुलन अच्छा रहता है, जिससे इसमें कंपन कम होता है। अन्यान्य मूल चालकों की तुलना में यह दीर्घायु होता है। विद्युदुत्पादन के सिवाय लोकोमोटिव, (locomotive रेल के इंजन), मोटरगाड़ी जलयान, वायुयान आदि के मूल चालक के रूप में इसका व्यवहार किया जाता है।
 
===गैस टरबाइन की समस्याएँ ===-
 
गैस टरबाइन की उष्मीय दक्षता अब भी कम ही होती है। यद्यपि गैस टरबाइन युक्त यंत्र की चाल की दिशा बदलने के लिए बहुत तरह के उपसाधन निकाले गए हैं तथापि यह सुगमतापूर्वक बदली नहीं जा सकती। गैस टरबाइन स्वत:प्रवर्ती (self-starting) मूलचालक नहीं है। इसके अलावा एक समस्या यह भी है कि गैस टरबाइन की दक्षता, शक्ति की माँग के कम होने से, कम हो जाती है। परंतु ये समस्याएँ असाध्य नहीं हैं। आजकल भी शोधनकार्य हो रहे हैं एवं आशा की जाती है कि कुछ वर्षों में गैस टरबाइन सर्वोत्तम मूल चालकयंत्र हो जायगा। (चं. भू. मि.)
 
==जल टरबाइन==
 
===जल टरबाइन या जलचक्र ===-
 
उन मूल चालक यंत्रों (prime movers) को कहते हैं जो जलराशि में निहित स्थितिज ऊर्जा को यांत्रिक कार्य में परिवर्तित कर देते हैं। पनचक्कियाँ विभिन्न प्रकार से बनाई जाने पर भी बड़ी ही सरल प्रकार की युक्तियाँ (devices) हैं, जिनका प्रयोग प्रागैतिहासिक काल से ही शक्ति उत्पादन करने के लिए होता चला आया है। समय समय पर आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों से प्रेरित होकर लोगों ने इनमें अनेक सुधार किए, अत: जल टरबाइन भी पनचक्की का ही विकसित रूप है। पिछली अर्धशताब्दी से तो इनका इतना उपयोग बढ़ गया है कि इनके द्वारा लगभग सभी सभ्य देशों में जगह जगह, छोटे बड़े अनेक जल-विद्युच्छक्ति-गृह बनाए जाने लगे। इस कारण सुदूर जलहीन देहातों में भी बड़े सस्ते भाव पर बिजली प्राप्त होने लगी और नाना प्रकार के उद्योग धंधों के विकास को प्रत्साहन मिला।
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जल राशि में निहित स्थितिज ऊर्जा का गतिज ऊर्जा में परिवर्तन कैसे होता है, इसे संक्षेप में समझने के लिए कल्पना कीजिए कि कुछ ऊँचाई पर स्थित एक टंकी में से पानी की एक धारा उसी के नीचे स्थित जलाशय में गिर रही है। इस टंकी में भरे प्रति पाउंड पानी में, ऊँचाई के कारण कुछ फुट-पाउंड स्थितिज ऊर्जा निहित है। जब यह पानी नीचे गिरता है तब नीचे गिरते समय, यह स्थितिज ऊर्जा क्रमश: गतिज ऊर्जा में परिवर्तित होने लगती है और जब वह धारा नीचेवाले जलाशय की जलतल रेखा पर पहुँचती है तब उसकी समस्त स्थितिज ऊर्जा गतिज ऊर्जा में परिणत हो चुकती है। इस जल-तल-रेखा तक पहुँचते समय यदि उस एक पाउंड पानी का वेग व (V) फुट प्रति सेंकड हो तो उसमें फुट पाउंड गतिज ऊर्जा होगी। यदि टंकी की ऊँचाई उ (h) फुट मान लें तो टंकी के प्रति पाउंड पानी में ऊ(H) फुट पाउंड स्थितिज ऊर्जा होगी। अत: नीचे पहुँचने पर। स्थितिज ऊर्जा की हानि = गतिज ऊर्जा की प्राप्ति, अर्थात्‌ अब ज्यों ही वह पानी जलाशय में प्रविष्ट होगा, उसके पानी में विक्षोभ उत्पन्न हो जाएगा और फिर थोड़ी देर में शांत भी हो जायगा। इस उदाहरण में, ऊपर से आनेवाले पानी में निहित गतिज ऊर्जा जलाशय के पानी में विक्षोभ उत्पन्न करके ही बरबाद हो गई और उससे कोई उपयोगी कार्य नहीं हो सका। यदि वही पानी एक नल में से होकर नीचे आता तो वह उस नल के मुहाने पर दाब उत्पन्न कर किसी जलचक्र अथवा इंजन को चला सकता था। जब भी किसी स्थान पर जल के प्रवाह अथवा वर्चस (head) द्वारा प्राप्त ऊर्जा की सहायता से कोई जलचालित मोटर या टरबाइन चलाकर शक्ति उन्पादन करने का विचार किया जाता है, तो उसके पहले आस पास में स्थित जलराशि अथवा जलस्रोतों से प्राप्त होने वाली ऊर्जा का यथासाध्य सही अनुमान लगा लिया जाता है। जलचालित मोटरों का वर्गीकरण - यह वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार है :
 
===1. जलधारा के प्रवाह तथा गुरुत्वाकर्षण जनित ऊर्जा चालित चक्र - ===
 
ये चक्र जलधारा के प्रवाह में रुकावट डालने पर होलेवाले संघट्टन (impact) अथवा चक्र की डोलचियों में भरे पानी के भार के कारण चला करते हैं।
 
===2. आवेगचक्र (Impulse Wheels) और टरबाइन -===
 
ये किसी तुंग (nozzle) में से निकलनेवाली पानी की अत्यधिक वेगयुक्त प्रधार (jet) की गतिज ऊर्जा द्वारा चलते हैं। इस प्रकार के आवेगचक्रों का वहीं उपयोग होता है जहाँ पर पानी की मात्रा तो सीमित होती है लेकिन उसका वर्चस्‌ 300 से 3,000 फुट तक ऊँचा होता है।
 
===3. प्रतिक्रिया टरबाइन (Reaction Turbine)=== -
 
इसमें पानी की गतिज ऊर्जा तथा दाब दोनों का ही उपयोग होता है। ये वहीं लगाए जाते हैं जहाँ परिस्थितियाँ आवेगचक्र तथा आवेग टरबाइनों के लिए बताई परिस्थितियों से विपरीत होती हैं, अर्थात्‌ जहाँ पानी अल्प वर्चस्‌ युक्त होते हुए भी विपुल मात्रा में प्राप्त हो सकता है। इस पानी का वर्चस्‌ 5 से लेकर 500 फुट तक हो सकता है।
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जलधारा के प्रवाह तथा गुरुत्वाकर्षण जनित ऊर्जा से चलनेवाले चक्रों का उपयोग तो अब देहातों में कुटीर उद्योगों के उपयुक्त ही समझा जाता है, विशेषकर उन पहाड़ी प्रांतों में जहाँ निरंतर झरने बहते रहते हैं। इस प्रकार के चक्रों में अध:प्रवाही (Under-shot), पॉन्सले (Poncelet) मध्यप्रवाही (Breast-wheel) और ऊर्ध्वप्रवाही (Over-shot) चक्र प्रमुख हैं, लेकिन बड़ी मात्रा में विद्युदुत्पादन के लिए ये सर्वथा अनुपयुक्त समझे जाते हैं, फिर भी सहायक मोटर के रूप में, बड़े बिजलीघरों में, ऊर्ध्वप्रवाही चक्र का उपयोग, आवश्यकता पड़ने पर, आधुनिक संयंत्रों के साथ कर लिया जाता है।
 
===अध: प्रवाही चक्र ===-
 
इस प्रकार के चक्र का सैद्धांतिक आरेखचित्र 5. में दिखाया गया है, जिसकी कार्यक्षमता लगभग 25 प्रति शत ही होने पाती है, क्योंकि इसमें पानी की बहुत सी ऊर्जा व्यर्थ में नष्ट हो जाती है। 1,800 ई0 तक इसका उपयोग बहुत हुआ करता था।
 
====पॉन्सले का चक्र - ===
 
इस प्रकार के चक्र का सैद्धातिक आरेखचित्र 6. में दिखाया गया है। यह अर्धप्रवाही चक्र का ही परिष्कृत रूप है। इसकी पंखुड़ियाँ इस प्रकार से मोड़कर गोलाईदार बनाई जाती हैं कि इनमें पानी बिना झटका मारे ही प्रवेश कर जाता है और उनमें से बाहर निकलते समय वह चक्र की परिधि की स्पर्शरेखीय दिशा में होकर ही निकलता है, जिसे चक्र को अधिक आवेग प्राप्त हो जाता है और चक्र की कार्यक्षमता लगभग दुगनी हो जाती है।
 
===मध्यप्रवाही चक्र -===
 
इस प्रकार के चक्र का सैद्धांतिक आरेखचित्र 7. में दिखाया गया है। यह भी अध:प्रवाही चक्र का ही परिष्कृत रूप है। इसकी कोनियानुमा पंखुड़ियों में पानी, चक्र की धुरी के तल से कुछ ऊँचाई पर स्थित पंखुड़ियों में भरना आरंभ होता है और उनके नीचे आने तक उन्हों में भरा रहता है। चक्र की खोल भी इस पानी को उनमें भरा रखने में कुछ सहायता करती है, अत: यह चक्र मुख्यतया पानी के भार के कारण ही घूमता है। मध्यप्रवाही चक्र भी दो प्रकार के होते हैं। एक तो मध्योच्च प्रवाही (High Breast), जैसा उपर्युक्त वर्णित चित्र में दिखाया गया है और दूसरा अध:मध्यप्रवाही (Low Breast) कहलाता है। इसकी पंखुड़ियों में पानी धुरी के तल से कुछ नीचे की पंखुड़ियों में भरना आरंभ होता है, जिसमें पानी के भार और प्रवाहजनित, दोनों प्रकार की, ऊर्जाओं का उपयोग होता है। इन चक्रों की कार्यक्षमता 50 प्रति शत से लेकर 80 प्रति शत तक हो सकती है, जो इनकी बनावट तथा आकार पर निर्भर करती है। इनका प्रयोग 19वीं शताब्दी के मध्य तक होता रहा, फिर बंद हो गया।
 
===उर्ध्व प्रवाही चक्र -===
 
इस प्रकार के चक्र का सैद्धांतिक आरेखचित्र 8 में दिखाया गया है। इसका कार्यक्षमता 70 प्रतिशत से लेकर 85 प्रतिशत तक पहुँच जाती है, जो आधुनिक जल टरबाइनों के लगभग समकक्ष ही है यह अपेक्षाकृत आधुनिक प्रकार का गुरुत्वाकर्षणजनित ऊर्जाचालित जलचक्र है, जिसका प्रयोग थोड़ी मात्रा में विद्युच्छक्ति उत्पन्न करने के लिए आजकल भी सहायक मोटर के रूप में होता है तथा अच्छा काम देता है।
 
===आवेगचक्र और टरबाइन -===
 
आधुनिक प्रकार के आवेग चक्र पॉन्सले के अध:प्रवाही चक्र के परिष्कृत रूप हैं। इनमें स्लूस मार्ग (sluice way) के स्थान पर तुड़ों का उपयोग किया जाता है, जिनमें से पानी की प्रधार (jet) बड़े बेग से निकलकर चक्र की पंखुड़ियों से टकराती है। इस ढंग के जिस संयंत्र का सर्वाधिक प्रचार है वह पेल्टन चक्र (Pelton's Wheel) के नाम से प्रसिद्ध है, जिसका सैद्धान्तिक आरेख चित्र 9. क में दिखाया गया है और 9 ख में उसकी एक डोलची (bucket) तथा पानी की धार का आरेख है। डोलची को दो जुड़वाँ प्यालों के रूप में इस प्रकार बना दिया गया है कि पानी की प्रधार उसके मध्य में टकराते ही फटकर, दो भागों में विभक्त होकर , एक दूसरी से लगभग 180 डिग्री के कोणांतर पर चलने लगती है। यदि ये दोनों उपप्रधाराएँ अपनी मूल प्रधारा से बिलकुल विपरीत दिशा में बह निकले तो अवश्य ही पेल्टन चक्र की कार्यक्षमता 100 प्रति शत हो जाय, लेकिन इन्हें जान बूझकर तिरछा करके निकाला जाता है, जिससे ये अपने पासवाली डोलची से टकराएँ नहीं। ऐसा करने से अवश्य ही कुछ ऊर्जा घर्षण में बरबाद हो जाती है, जिससे इस चक्र की कार्य-क्षमता लगभग 80 प्रतिशत ही रह जाती है।
 
इसमें प चिह्नित मार्ग से पानी प्रविष्ट होता है, फ टोंटी है और ब चक्र पर लगे पंख (blades) हैं। इन तुंडों में प्रवेश करते समय, बाहर निकलते समय की अपेक्षा, पानी का वेग बहुत अधिक होता है। अत: बाहर की तरफ उनका रास्ता क्रमश: चौड़ा कर दिया जाता है। संयुक्त राज्य, अमरीका में इस टरबाइन का निर्माण 'विक्टर उच्चदाब टरबाइन' नाम से किया जाता है, जिसकी कार्यक्षमता 70 प्रतिशत से लेकर 80 प्रतिशत तक, उसके अभिकल्प तथा आकार के अनुसार होती है।
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प्रतिक्रियात्मक टरबाइनें पानी के प्रवाह के दिशानुसार निम्नलिखित चार मुख्य वर्गों में बाँटी जा सकती हैं : 1. त्रैज्य बहिर्प्रवाही, 2. त्रैज्य अंत:प्रवाही, 3. अक्षीय प्रवाही और 4. मिश्रप्रवाही।
 
===फूर्नेरॉन (Fourneyron) का टरबाइन -===
 
फूर्नेरॉन नामक एक फ्रांसीसी इंजीनियर ने बार्कर मिल के सिद्धांतानुसार केद्रीय जलमार्ग से बाहर की तरफ त्रैज्य दिशा में बहने के लिए मार्गदर्शक तुंडों को तो स्थिर प्रकार का बनाकर, उनके बाहर की तरफ घूमनेवाला पंखुडीयुक्त चक्र बनाया, जैसा चित्र 12 क. की खड़ी काट और उसी के नीचे 12 ख. चिह्नित प्लान में दिखाया है,
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इसमें प केंद्रीय कक्ष है, जिसमें पानी प्रविष्ट होकर त्रैज्य दिशा में फ चिह्नित तुंड में जाकर चक्र की ब चिह्नित पंखों को घुमाता हुआ बाहर निकल जाता है। इसमें घ केंद्रीय धुरा है, जिससे डायनेमो आदि संबंधित रहता है। यह त्रैज्य बहिर्प्रवाही टरबाइन का नमूना है।
 
जूवाल (Jouval) का अक्षीय प्रवाहयुक्त टरबाइन - इसकी खड़ी काट चित्र 9 में दिखाई गई है, जिसके विभिन्न अवयवों के संकेताक्षर पूर्ववर्णित टरबाइन चित्र जेसे ही हैं। इसमें पानी का प्रवाह, जैसा बाणचिह्नों द्वारा प्रदर्शित किया गया है, अक्ष के समांतर ही रहता है।
 
===फ्रैंसिस का अंत:प्रवाही टरबाइन -===
 
इसकी खड़ी काट चित्र 14 में दिखाई गई है। इसका अभिकल्प जे0 बी0 फ्रैंसिस नामक सुविख्यात अमरीकन इंजीनियर ने बनाया था। इसमें फ चिह्नित टोंटियों में से पानी बाहर की ओर से त्रैज्य दिशा में प्रविष्ट होकर, भीतर की ओर केंद्र के निकट घूमनेवाले पंखों को ढकेलकर चलाता हुआ, नीचे को धुरी के चारों तरफ होता हुआ, बाहर निकल जाता है। इस चित्र के संकेताक्षर भी पूर्ववर्णित टरबाइन चित्र 12 और 13 के सदृश ही हैं।
 
===टरबाइनों के धावन चक्र (Runner) - ===
 
टरबाइनों का घूमनेवाला चक्र जिसकी परिधि पर डोलचियाँ अथवा पंख लगे होते हैं, धावक कहलाता है। टरबाइनों का यही प्रमुख अवयव है जिसकी उत्तम बनावट तथा संतुलन पर उनकी कार्यक्षमता तथा शक्ति निर्भर करती है। दो प्रकार को टरबाइनें प्राय: अधिक काम आती हैं, एक तो त्रैज्यअंत:प्रवाही प्रतिक्रियात्मक और दूसरी आवेगात्मक। प्रथम प्रकार में से फ्रैंसिस की टरबाइन का धावनचक्र चित्र 15 में दिखाया गया है, जो 100 से लेकर 500 फुट तक के वर्चस्‌युक्त जल के उपयुक्त है। आवश्यकता पड़ने पर 600 फुट वर्चस्‌ के जल का भी इनके साथ उपयोग किया जा सकता है।
 
आवेगात्मक टरबाइनों के लिये पेल्टन की दोहरी डोलचियों से युक्त धावनचक्र चित्र 16 में दिखाया गयाधावनचक है, जिसकी डोलचियों की आकृतियाँ दीर्घवृत्तजीय पृष्ठ (ellipsoidal surface) युक्त हैं तथा बाहरी किनारे थोड़े थोड़ कटे हुए हैं। इनमें पानी की प्रधार बिना झटका मारे इन्हें ढकेलकत बिलकुल साफ बाहर निकल जाती है और कटे किनारे के कारण चालू करते समय प्रधार की शक्ति विच्छिन्न नही होने पाती।
 
मिश्रप्रवाही टरबाइनों का धावनचक्र चित्र 17 में दिखाया गया है, जो फ्रैंसिस की टरबाइनों का ही परिष्कृत रूप है। इसका अभिकल्प अल्प वर्चस्‌ के जल से तीव्र गति तथा अधिक शक्ति प्राप्त करने के लिए किया गया है। यंत्रशास्त्र के नियमानुसार तीव्र गति के लिए धावनचक्र का व्यास कम करना पड़ता है, लेकिन ऐसा करने से उसकी शक्ति कम हो जाती है; अत: इस दोष को मिटाने के लिए इसका व्यास कम करके भी चौड़ाई बढ़ा दी गई है और पंखों की संख्या कम करके उन्हें केंद्र के निकट कर दिया गया है। इनका प्रयोग 5 से लेकर 150 फुट वर्चस्‌ तक के पानी के साथ किया जा सकता है।
 
==धावनचक्रों की क्षमता -===
 
धावनचक्रों की क्षमता उनकी लाक्षणिक चाल (characteristic speed) द्वारा जाँची जाती है। यदि हम किसी धावनचक्र की विभिन्न नापों को इतना छोटा तथा संकुचित करते जायँ कि वह एक फुट वर्चस्‌ के जल से इतने चक्कर प्रति मिनट लगाने लगे कि उससे एक अश्वशक्ति मिल जाए तो चक्करों की उस संख्या को उस चक्र की लाक्षणिक चाल कहते हैं, जो निम्नलिखित सूत्र द्वारा व्यक्त की जाती है :
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विभिन्न टरबाइनों के लिये लाक्षणिक चालों की सीमा निम्न सारणी में दी गई है:
 
===जल टरबाइनों के प्रकार ==
 
1 से 5 आवेगात्मक टरबाइन - एक टोंटी युक्त
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जलचलित मोटरों की बनावट - चित्र 7 और 8 में जिन जलचक्रों के आरेख हैं उनके परिष्कृत रूप अब भी थोड़ी मात्रा में शक्ति उत्पादन करने के लिए देहाती क्षेत्रों में प्रयुक्त होते हैं। इनके एकहरे चक्र का व्यास 60 फुट तक बना दिया जाता है तथा उसकी चौड़ाई इतनी रखी जाती है कि वह 3,000 घन फुट पानी प्रति मिनट से चला सके। ये पर्याप्त मंद गति से चला करते हैं, अत: इन्हें पूरे का पूरा इस्पात की चादरों तथा बेले हुए छड़ों से बनाया जाता है। चक्रों की भीतरी परिधियों पर दाँते बना दिए जाते हैं, जिनसे एक तरफ लगा हुआ छोटा दंतचक्र (चित्र 7 और 8 में द चिह्नित) घूमकर अपने से संबंधित धुरी द्वारा यंत्रों को चलाता है। इनके केंद्रीय मुख्य धुरे से यंत्र प्राय: नहीं चलाए जाते, क्योंकि उनपर मरोड़ बल (twisting force) बहुत अधिक पड़कर उनके छूटने की आशंका उत्पन्न कर देता है।
 
===आवेगचक्र - ===
 
पेल्टन के जिस आवेगचक्र का आरेख चित्र 9 में तथा जिसका धावन चक्र चित्र 16 में दिखाया गया है, उसके योग्य टोंटी की बनावट चित्र 18 में दिखाई गई है। इसमें लगे एक सूच्याकार वाल्व के स्पिंडल को चौकोर चूड़ियों के द्वारा हाथचकरी से आगे पीछे सरकाकर टोंटी का मुँह कम या ज्यादा खोलकर, पानी की प्रधार को नियंत्रित किया जाता है। इसका परिचालन नियंत्रक यंत्र द्वारा भी किया जा सकता है, जिसका वर्णन आगे किया जाएगा। पेल्टन के आवेगचक्र प्रयोगशाला के छोटे उपकरणों से लेकर 18,000 अश्वशक्ति उत्पादन योग्य कई मापों में बनाए जाते हैं।
 
===प्रतिक्रियात्मक टरबाइन -==
 
इसके धावनचक्र ढले लोहे की खोलों में फिट करके इनके पानी का मार्गदर्शन करने वाले गाइड इस प्रकार की चूलों (pivots) पर लगाए जाते हैं कि उनके तिरछेपन का समायोजन करके टरवाइन की चाल पर भी नियंत्रण रखा जा सकत है। इनसे धावनचक्र सुविधानुसार आड़े या खड़े दोनों ही प्रकार से यथेच्छा लगाए जा सकते हैं।