"अभिव्यक्ति (पत्रिका)": अवतरणों में अंतर

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और आवाहन करता हूँ "हिंदी साहित्य के केंद्रमें नवगीत" के सवर्धन और सशक्तिकरण के विविध आयामों से जुड़ने और सहभागिता निर्वहन हेतु!आपने लेख /और नवगीत पढ़ा मुझे बहुत खुश हो रही है मेरे युवा मित्रों की सुन्दर सोच /भाव बोध /और दृष्टि मेरे भारत माँ की आँचल की ठंडी ठंडी छाँव और सोंधी सोंधी मिटटी की खुशबु अपने गुमराह होते पुत्रों को सचेत करती हुई माँ भारती ममता का स्नेह व दुलार निछावर करने हेतु भाव बिह्वल माँ की करूँणा समझ पा रहे हैं और शनै शैने अपने कर्म पथ पर वापसी के लिए अपने क़दमों को गति देने को तत्पर है!
 
पता क्या
 
पूंछेंगी
 
नाविक
 
से नदियाँ
 
बीत गईं शदियाँ.
 
बाढ़ों में धसके किनारे!
 
घाटों के
 
हरे भरे
 
आकाशी कहुये
 
कगारों के महुये.
 
गुलर की
 
छईयों के गायब नज़ारे!
 
झुक झुक कर.
 
छूतीं
 
जलधारा
 
कूम्हीं की डरैयाँ,
 
चौकड़ियाँ
 
भरती
 
ज्यों बछियाँ
 
बाँधे गिरैयाँ,
 
उबलती
 
उफनाती
 
अदहन
 
सी लहरें
 
आँखों न ठहरें.
 
आवेगी धारा भँवरों के मारे!
 
पता क्या
 
पूंछेंगी
 
नाविक
 
से नदियाँ
 
बीत गईं शदियाँ.
 
बाढ़ों में धसके किनारे!
 
घाटों के
 
हरे भरे
 
आकाशी कहुये
 
कगारों के महुये.
 
गूलर की
 
छईयों के गायब नज़ारे!
 
अड़ते
 
अचानक
 
प्रवाहों के आगे.
 
पतझरिया घोड़े,
 
जाने
 
पहचाने न
 
पानी की ताकत.
 
बालू हैं रोड़े ,
 
गीत के
 
पखेरू
 
ओंठों में उतरे.
 
कंठों में गहरे.
 
डुबकियाँ
 
लगाये लय के सहारे!
 
पता क्या
 
पूंछेंगी
 
नाविक
 
से नदियाँ
 
बीत गईं शदियाँ.
 
बाढ़ों में धसके किनारे!
 
घाटों के
 
हरे भरे
 
आकाशी कहुये
 
कगारों के महुये.
 
गुलर की
 
छईयों के गायब नज़ारे!
 
कगारों से
 
जब तब
 
दहारों में
 
कूदें गुलरियाँ,
 
पानी में
 
रहकर
 
धुलती नहीं हैं.
 
रानी मछरियाँ,
 
दल दल में.
 
औंधी
 
काठ की कठौती.
 
ठाँठों पटौती
 
डूबे हैं
 
जब तब गहरे शिंकारे!
 
पता क्या
 
पूंछेंगी
 
नाविक
 
से नदियाँ
 
बीत गईं शदियाँ.
 
बाढ़ों में धसके किनारे!
 
घाटों के
 
हरे भरे
 
आकाशी कहुये
 
कगारों के महुये.
 
गुलर की
 
छईयों के गायब नज़ारे!
 
भोलानाथ