"खड़ीबोली": अवतरणों में अंतर

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'खड़ी बोली' (या खरी बोली) वर्तमान हिंदी का एक रूप है जिसमें [[संस्कृत]] के शब्दों की बहुलता करके वर्तमान हिंदी भाषा की सृष्टि की गई और फारसी तथा अरबी के शब्दों की अधिकता करके वर्तमान उर्दू भाषा की सृष्टि की गई है। दूसरे शब्दों में, वह बोली जिसपर ब्रज या अवधी आदि की छाप न हो , ठेंठ हिंदीं । खड़ी बोली आज की राष्ट्रभाषा हिंदी का पूर्व रूप है। यह परिनिष्ठित पश्चिमी हिंदी का एक रूप है। इसका इतिहास शताब्दियों से चला आ रहा है।
 
जिस समय मुसलमान इस देश में आकर बस गए, उस समय उनेहें यहाँ की कोई एक भाषा ग्रहण करने की आवश्यकता हुई । वे प्रायः दिल्ली और उसके पूरबी प्रांतों में ही अधिकता से बसे थे, और ब्रजभाष तथा अवधी भाषाएँ, क्लिष्ट होने के कारण अपना नहीं सकते थे. इसलिये उन्होंने [[मेरठ]] और उसके आसपास की बोली ग्रहण की, और उसका नाम खड़ी (खरी?) बोली रखा । इसी खड़ी बोली में वे धीरे धीरे फारसी और अरबी शब्द मिलाते गए जिससे अंत में वर्तमान उर्दू भाषा की सृष्टि हुई । विक्रमी १४वीं शताब्दी मे पहले-पहल [[अमीर खुसरो]] ने इस प्रांतीय बोली का प्रयोग करना आरंभ किया और उसमें बहुत कुछ कविता की, जो सरल तथा सरस होने के कारण शीघ्र ही प्रचलित हो गई । बहुत दिनों तक मुसलमान ही इस बोली का बोलचाल और साहित्य में व्यवहार करते रहे, पर पीछे हिंदुओं में भी इसका प्रचार होने लगा । १५वीं और १६ वीं शताब्दी में कोई कोई हिंदी के कवि भी अपनी कविता में कहीं कहीं इसका प्रयोग करने लगे थे, पर उनकी संख्या प्रायः नहीं के समान थी । अधिकांश कविता बराबर [[अवधी]] और [[व्रजभाषा]] में ही होती रही । १८वीं शताव्धी में हिंदू भी साहित्य में इसका व्यवहार करने लगे, पर पद्य में नहीं, केवल गद्य में; और तभी से मानों वर्तमान हिंदी गद्य का जन्म हुआ, जिसके आचार्य मु० सदासुख, लल्लू जी लाल और सदल मिश्र माने जाते हैं । जिस प्रकार मुसलमानों ने इसमें फारसी तथा अरबी आदि के शब्द भरकर वर्तमान उर्दू भाषा बनाई, उसी प्रकार हिंदुओं ने भी उसमें संस्कृत के शब्दों की अधिकता करके वर्तमान हिंदी प्रस्तुत की । इधर थोड़े दिनों से कुछ लोग संस्कृतप्रचुर वर्तमान हिंदी में भी कविता करने लग गए हैं और कविता के काम के लिये उसी को खड़ी बोली कहते हैं।
 
वर्तमान हिंदी का एक रूप जिसमें संस्कृत के शब्दों की बहुलता करके वर्तमान हिंदी भाषा की और फारसी तथा अरबी के शब्दों की अधिकता करके वर्तमान उर्दू भाषा की सृष्टि की गई है । वह बोली जिसपर ब्रज या अवधी आदि की छाप न हो । ठेंठ हिंदीं । आज की राष्ट्रभाषा हिंदी का पूर्व रूप । इसका इतिहास शताब्दियों से चला आ रहा है । परिनिष्ठित पश्चिमी हिंदी का एक रूप । वि० दे० 'हिंदी' । विशेष—जिस समय मुसलमान इस देश में आकर बस गए, उस समय उनेहें यहाँ की कोई एक भाषा ग्रहण करने की आव— श्यकता हुई । वे प्राय? दिल्ली और उसके पूरबी प्रांतों में ही अधिकता से बसे थे, और ब्रजभाष तथा अवधी भाषाएँ, क्लिष्ट होने के कारण अपना नहीं सकते थे, इसलिये उन्होंने मेरठ और उसके आसपास की बोली ग्रहण की, और उसका नाम खड़ी (खरी?) बोली रखा । इसी खड़ी बोली में वे धीरे धीरे फारसी और अरबी शब्द मिलाते गए जिससे अंत में वर्तमान उर्दू भाषा की सृष्टि हुई । विक्रमी १४वीं शताब्दी मे पहले पहल अमीर खुसरो ने इस प्रांतीय बोली का प्रयोग करना आरंभ किया और उसमें बहुत कुछ कविता की, जो सरल तता सरस होने के कारण शीघ्र ही प्रचलित हो गई । बहुत दिनों तक मुसलमान ही इस बोली का बोलचाल और साहित्य में व्यवहार करते रहे, पर पीछे हिंदुओं में भी इसका प्रचार होने लगा । १५वीं और १६ वीं शताब्दी में कोई कोई हिंदी के कवि भी अपनी कविता में कहीं कहीं इसका प्रयोग करने लगे थे, पर उनकी संख्या प्राय? नहीं के समान थी । अधिकांश कविता बराबर अवधी और व्रजभाषा में ही होती रही । १८वीं शताव्धी में हिंदू भी साहित्य में इसका व्यवहार करने लगे, पर पद्य में नहीं, केवल गद्य में; और तभी से मानों वर्तमान हिंदी गद्य का जन्म हुआ, जिसके आचार्य मु० सदासुख, लल्लू जी लाल और सदल मिश्र माने जाते हैं । जिस प्रकार मुसलमानों ने इसमें फारसी तथा अरबी आदि के शब्द भरकर वर्तमान उर्दू भाषा बनाई, उसी प्रकार हिंदुओं ने भी उसमें संस्कुत के शब्दों की अधिकता करके वर्तमान हिंदी प्रस्तुत की । इधर थोड़े दिनों से कुछ लोग संस्कृतप्रचुर वर्तमान हिंदी में भी कविता करने लग गए हैं और कविता के काम के लिये उसी को खड़ी बोली कहतो हैं ।
 
== साहित्यिक सन्दर्भ ==