"छांदोग्य उपनिषद": अवतरणों में अंतर

No edit summary
पंक्ति 1:
'''छांदोग्य उपनिषद्''' [[सामवेद|समवेदीय]] छांदोग्यछान्दोग्य ब्राह्मण का औपनिषदिक भाग है जो प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। इसके आठ प्रपाठकों में प्रत्येक में एक अध्याय है।
 
== परिचय ==
ब्रह्मज्ञान के लिए प्रसिद्ध छांदोग्य उपनिषद् की परंपरापरम्परा में अ. 8.15 के अनुसार इसका प्रवचन [[ब्रह्मा]] ने [[प्रजापति]] को, प्रजापति ने [[मनु]] को और मनु ने अपने पुत्रों को किया जिनसे इसका जगत् में विस्तार हुआ। यह निरूपण बहुधा ब्रह्मविदों ने संवादात्मक रूप में किया। श्वेतकेतु और उद्दालक, श्वेतकेतु और प्रवाहण जैबलि, सत्यकाम जाबाल और हारिद्रुमत गौतम, कामलायन उपकोसल और सत्यकाम जाबाल, औपमन्यवादि और अश्वपति कैकेय, नारद और सनत्कुमार, इंद्र और प्रजापति के संवादात्मक निरूपण उदाहरण सूचक हैं।
 
संन्याससन्यास प्रधान इस उपनिषद् का विषय 8-7-1 में उल्लिखित इंद्र को दिए गए प्रजापति के उपदेशानुसार, अपाप, जरा-मृत्यु-शोकरहित, विजिधित्स, पिपासारहित, सत्यकाम, सत्यसंकल्प आत्मा की खोज तथा सम्यक् ज्ञान है।
 
== मुख्य मान्यताएँ ==
संक्षेप में छांदोग्य उपनिषद् की मुख्य मान्यताएँ इस प्रकार हैं:
* [[सृष्टि]] के मूलारंभ में एक और अद्वितीय सत् था जिससे असत् की उत्पत्ति हुई। [[तैत्तरीय उपनिषद्]] में असत् से सत् की उत्पत्ति बतलाई गई है, किंतु शब्द वैभिन्नय रहने पर भी दोनों के तात्पर्य समान हैं। इस सत् को ही "ब्रह्म" कहते हैं जिसने एक से बहुत होने की इच्छा से सृष्टिरचना करके उसमें जीवरूप से प्रवेश किया। इस उपनिषद् में पंचतन्मात्रों अथवा [[पंचमहाभूत|पंचमहाभूतों]] का वर्णन नहीं आता बल्कि तेज, जल, और पृथ्वी इन मूल तत्वों के मिश्रण से विविध सृष्टि का निर्माण माना गया है।
 
* समस्त सृष्टि नामरूपात्मक है; यहाँ तक कि अ. 7 में [[नारद]] को दिए गए [[सनत्कुमार]] के उपदेशानुसार चतुर्वेद, शास्त्र एवं विद्याएँ नाम रूपात्मक हैं, और इनके मूल में जो नित्य तत्व है वह [[ब्रह्म]] है जो [[वाणी]], [[आज्ञा]], [[संकल्प]], [[मन]], [[बुद्धि]] और [[प्राण]] तथा अव्यक्त प्रकृति से भी परे अपनी महिमा में प्रतिष्ठित है।
 
* जिस प्रकार नदियाँ [[समुद्र]] में विलीन होकर समुद्र हो जातीं और अपनी सत्ता को नहीं जानतीं, इस तथा अन्य दृष्टांतों से उद्दालक ने श्वेतकेतु को समझा दिया है कि सृष्टि के समस्त जीव आत्म-स्वरूप को भूले हुए हैं, वस्तुत: उनमें जो आत्मा है वह ब्रह्म ही है, और इस सिद्धांत को इस उपनिषद् के [[महावाक्य]] "तत्वमसि" में वाग्बद्ध किया है (6-8-16)।
 
* 3-16-17 के अनुसार मनुष्य का जीवन एक प्रकार का यज्ञ है जिसकी महत्ता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इस यज्ञविद्या[[यज्ञ]]विद्या का उपदेश घोर आंगिरस ने "देवकीपुत्र कृष्ण" को किया। कुछ विद्वानों की धारणा है कि यह कृष्ण अवतारी भगवान् [[कृष्ण]] हैं।
 
* 3-14-1 में पुरुष को क्रतुमय कहकर निश्चित किया गया है कि जिसका जैसा क्रतु (श्रद्धा) होता है मृत्यु के पश्चात् उसे वैसा ही फल मिलता है। जिन्हें ब्रह्मज्ञान नहीं हुआ, ऐसे पुण्यकर्म करनेवाले [[देवयान]] और [[पितृयाण]] मार्गो से पुण्यलोकों को प्राप्त करते हैं किंतु आजीवन पापाचार करनेवाले तिर्यक् योनि में उत्पन्न होते हैं।
 
* "सवंसर्वं खल्विदं ब्रह्म", "आत्मैवेदं सर्वं", "तत्वमसि" इत्यादि वाक्य [[अद्वैत]] का प्रतिपादन करते हैं।
 
* [[ब्रह्मज्ञान]] के लिए नितांत आवश्यक ब्रह्मचिंतन के निमित्त [[चित्त]] की एकाग्रता अनिवार्य है जिसके लिए ब्रह्म निर्देशक [[ओंकार]] की और ब्रह्म के सगुण प्रतीक जैसे [[मन]], [[प्राण]], [[आकाश]], [[वायु]], [[वाक्]], [[चक्षु]], [[श्रोत्र]], [[सूर्य]], [[अग्नि]], [[रुद्र]], [[आदित्य]] या [[मरुत]] और [[गायत्री]] इत्यादि की उपासना निर्दिष्ट की गई है।
 
* [[ब्रह्मज्ञान]] के लिए नितांत आवश्यक ब्रह्मचिंतन के निमित्त [[चित्त]] की एकाग्रता अनिवार्य है जिसके लिए ब्रह्म निर्देशक ओंकार की और ब्रह्म के सगुण प्रतीक जैसे [[मन]], [[प्राण]], [[आकाश]], [[वायु]], [[वाक्]], [[चक्षु]], [[श्रोत्र]], [[सूर्य]], [[अग्नि]], [[रुद्र]], [[आदित्य]] या [[मरुत]] और [[गायत्री]] इत्यादि की उपासना निर्दिष्ट की गई है।
== बाहरी कड़ियाँ ==
{{wikisourcelang|sa|छान्दोग्य उपनिषद्}}
{{उपनिषद}}
 
[[श्रेणी:उपनिषद]]न्