"टर्बाइन": अवतरणों में अंतर
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'''गैस कम्प्रेशर''' या [[पम्प]] भी टर्बाइन जैसा ही होता है पर यह टर्बाइन के उल्टा कार्य करता है
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टरबाइन एक रोटरी यांत्रिक युक्ति है जो द्रव के प्रवाह को ऊर्जा में बदलकर इसे उपयोगी काम में परिवर्तित करती है ।
टरबाइन में कम से कम एक रोटर असेम्बली होती है जो इसका गतिमान पुर्जा एक या एक से अधिक ब्लेडों के साथ शाफ्ट या ड्रम के साथ इस मशीन को चलाता है. ब्लेड पर तरल पदार्थ या अन्य पदार्थ दबाव डालता है जिससे रोटर या घूर्णी चलती है । यह चाल और रोटर घूर्णी को गतिज ऊर्जा प्रदान करती है. प्रारंभिक टरबाइन के उदाहरण पवनचक्की और जल्घूर्णी हैं.
गैस, भाप, और पानी टर्बाइन में आमतौर पर ब्लेड के आसपास एक आवरण
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ब्रिटिश इंजीनियर सर चार्ल्स पार्सन्स (1854-1931) को प्रतिक्रिया टरबाइन क
टरबाइन के आविष्कार के लिए दिया जाता है आधुनिक भाप टर्बाइन प्रायः एक ही इकाई में
प्रतिक्रिया और आवेग उपयोग होता है ।आम तौर पर प्रतिक्रिया और आवेग की डिग्री इसकी
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शब्द "टरबाइन" 1822 में फ्रेंच खनन इंजीनियर क्लाउड बर्डीन (Burdin) ने '''लैटिन् टर्बो''' शब्द या भंवर से गढ़ा था इसका उल्लेख एक संस्मरण में उन्होने किया था जो रायल साइंस अकादमी पेरिस
को प्रस्तुत किया गया था। क्लाउड बर्डीन Burdin के एक पूर्व छात्र बेनोइट फ़ोर्नेरोन ( Fourneyron) ने पहली व्यावहारिक पानी टरबाइन का निर्माण किया था।
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दहनकक्ष होता है जिसमे कोयला, तेल या गैस को जलाकर गर्मी पैदा की जाती है| इस गर्मी का उपयोग पानी को भाप बनाने में किया जाता है| फिर इसी भाप की मदद से टरबाइन को घुमाया जाता है यह टरबाइन जनरेटर की धुरी से जुडा होता है|
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गैस टरबाइन'''
'''
==संक्षिप्त इतिहास==
प्रथम गैस टरबाइन की निर्माणतिथि अभी तक अज्ञात है किंतु 130 ई. पू. के मिस्र में हीरो ने टरबाइन के सदृश एक ऐसे यंत्र का निर्माण किया था जो गरम वायु की सहायता से चलता था संभवत: प्रथम ज्ञात गैस टरबाइन का निर्माण सन् 1550 ई. में हुआ एवं इसका निर्माता लियोनार्डो दा विंशी था। यह यंत्र चिमनी के पास रखा जाता था और इससे होकर चिमनी की गैस ऊपर जाती थी। इस यंत्र के द्वारा बहुत कम शक्ति प्राप्त होती थी, जिसका उपयोग मांस को भूनने के लिए बने हुए पात्र को चलाने के लिए किया जाता था। गैस टरबाइन का सर्वप्रथम पेटेंट इंग्लैंड में जॉन बारबर ने 1791 ई. में कराया था। आश्चर्य की बात तो यह है कि उसका बनाया गैस टरबाइन आधुनिक विकसित सिद्धान्त पर आधारित पाया गया है। उसके बाद जॉन डाबेल ने 1808 ई. में दूसरा पेटेंट इंग्लैंड में ही कराया। 1837 ई. में पेरिस में ब्रेसन ने एक ऐसे टरबाइन का पेटेंट कराया, जिसमें सभी आवश्यक कल पुर्जे थे। उच्च शक्ति वाले गैसे टरबाइन का निर्माण 1872 ई0 में स्टोल्ज ने किया था, जो बहुपद (multi-stage) अभिक्रिया टरबाइन एवं बहुपद अक्षीय-प्रवाह संपीडक (Arial Flow Compressor) द्वारा युक्त था। उस समय वैज्ञानिकों को वायुगतिकी (Aerodynamics) का ज्ञान कम था, जिसस दक्ष संपीडक का निर्माण संभव नहीं था। संपीडक की डिज़्ााइन सुचारू रूप से न किए जाने के कारण अनेक हानियाँ होती हैं, जिनके कारण टरबाइन द्वारा प्राप्त कार्य का अधिकांश भाग संपीडक को चलाने में ही खर्च हो जाता है और बहुत ही कम शक्ति उपलब्ध होती है। दहनकक्ष की डिजाइन एवं निर्माण भी अधिक विकसित नहीं हो पाया था। अनुसंधानकर्ताओं को इन समस्याओं के सिवाय उपयुक्त निर्माण सामग्री की विकट समस्या का भी सामना करना पड़ता था। इन्हीं सब कारणों से प्रारंभिक गैस टरबाइन सफल नहीं हो पाए।
अमरीका में इस टरबाइन का प्रथम पेटेंट चार्ल्स कर्टिस ने 1895 ई. में कराया था। यह टरबाइन और सभी टरबाइनों से अच्छा प्रमाणित हुआ। उस समय तक वैज्ञानिकों का ध्यान इस क्षेत्र की ओर आकर्षित हो चुका था। इसके बाद अनेक तरह की डिजाइन के गैस टरबाइन बनाए गए, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं: 1905 ई0 में फ्रांस में अर्मेगंड और लेमाल द्वारा निर्मित प्रथम बहुपद अपकेंद्रीसंपीडक-युक्त गैस टरबाइन, 1905 ई. में डा. होल्जवर्थ द्वारा निर्मित स्थिर आयतन टरबाइन, 1908 ई0 में फ्रांस में कर्बोडीन द्वारा निर्मित आवेग (impulse) टरबाइन, 1913 ई. में बिशाँफ द्वारा निर्मित विस्फोट प्रकार का टरबाइन तथा 1914 ई. में बिशॉफ द्वारा निर्मित स्थिर-दाब टरबाइन।
उपर्युक्त डिजाइनों के अलावा और भी विभिन्न डिजाइनों के टरबाइनों का विकास होता रहा है। वैज्ञानिकों के अथक प्रयास के फलस्वरूप आज गैस टरबाइन की नींव पक्की हो गर्ह है।
==गैस टरबाइन की उष्मागतिकी (Thermodynamics)==
टरबाइन की दक्षता को बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार के उपकरण व्यवहार में लाए जाते हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं :
===उष्मा विनिमयित्र (Heat Exchanger)===
संपीडक से निकलकर संपीडित वायु इसमें एक ओर से प्रवेश करती है एवं दूसरी ओर से टरबाइन द्वारा निष्कासित गैस प्रवेश करती है। गैस संपीड़ित वायु से अधिक गरम होती है। इसीलिये ताप गैस से संपीड़ित वायु में प्रवेश करता है तथा संपीडित वायु और भी गरम हो जाती है। संपीडित वायु के अधिक गरम होने से दहनकक्ष में ईधंन की कम आवश्यकता होती है। इससे संपूर्ण संयंत्र की दक्षता बढ़ जाती है।
===अंत:शीतलक (Intercooler)===
संपीड़न के कार्य में कुछ भी कमी होने से उपलब्ध शक्ति की वद्धि हो जाती है, जिससे संयंत्र की दक्षता बढ़ जाती है। संपीड़न के कार्य को कम करने के लिये वायु निम्न दाब संपीड़क में संपीड़ित होकर अंत:शीतलक (देखें चित्र 3) में प्रवेश करती है, जहाँ उसका ताप कम करके उसको उच्च दाब संपीड़क में पुन: संपीड़ित होने के लिये भेजा जाता है।
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प्रथम टरबाइन में कार्य करने के बाद गैस पुनस्तापक (देखें चित्र 4) में प्रवेश करती है, जहाँ इसे पुनस्तापित किया जाता है। पुनस्तापक से निकलकर गैस द्वितीय टरबाइन में कार्य करने के लिये प्रवेश करती है।
ये निम्नलिखित हैं : ===
गैस टरबाइन में दो प्रकार के संपीड़क लगाए जाते हैं, अक्षप्रवाह एवं अपकेद्रिक। अक्षप्रवाह संपीड़क का व्यवहार पहले बहुत ही कम होता था, किंतु पिछले कुछ वर्षों में वायुगतिकी विज्ञान का विकास होने से इस तरह के संपीड़क का डिजाइन सरल हो गया है एवं इसकी दक्षता भी बढ़ गई है। औद्योगिक गैस टरबाइन में इस प्रकार के संपीड़क का अधिक व्यवहार होता है, क्योंकि इसके द्वारा उच्च दाब अनुपात एवं उच्च दक्षता की प्राप्ति होती है। अपकेंद्रिक संपीड़क हल्का होने के कारण वायुयान में अधिक व्यवहृत होता है।
===दहनकक्ष===
जैसा ऊपर बताया जा चुका है, इस कक्ष में ईधंन की सहायता से संपीड़ित वायु को गरम किया जाता है। इस अंग की डिज़ाइन अत्यंत नाजुक एवं जटिल होती है।
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इसके द्वारा कार्य प्राप्त होता है। टरबाइन की सहायता से संपीड़क को चलाया जाता है, जिससे टरबाइन में प्राप्त कार्य का कुछ भाग संपीड़क को चलाने में खर्च हो जाता है।
इसीलिये, उपलब्ध शक्ति = टरबाइन द्वारा प्राप्त कार्य - संपीड़क में खर्च किया हुआ कार्य
=== गैस टरबाइन की सामग्री ===
गैस टरबाइन की उष्मीय दक्षता टरबाइन में कार्य करनेवाले गैसे के प्रवेशताप पर निर्भर करती है। यह ताप जितना अधिक होगा दक्षता उतनी ही अधिक होगी, किंतु गैस के ताप को बढ़ाने के पहले टरबाइन के फलकों के लिए व्यवहृत सामग्री में भी उस ताप पर कार्य करने की क्षमता होती चाहिए। इस क्षेत्र में गहन अनुसंधान हुए हैं एवं बहुत तरह की नई नई सामग्रियों का विकास हुआ है। ये सामग्रियाँ उच्च ताप एवं उच्च प्रतिबल (stress) की विषम अवस्थाओं में भी सुचारु रूप से कार्य कर पाती हैं।
=== परिभ्रमक फलक शीतलन ===
नई नई निर्माण सामग्रियों के विकास के साथ ही गैस टरबाइन की उष्मीय दक्षता को बढ़ाने का दूसरा तरीका गरम पुर्जों को ठंडा करना है। परिभ्रमक पर शोधन कार्य हो रहे हैं। खोखले फलकों का निर्माण किया गया है एवं इन्हें संपीड़क द्वारा वायु भेजकर ठंडा किया जाता है। इस तरह से फलकों के साथ ही साथ परिभ्रमक भी ठंडा होता रहता है।
=== गैस टरबाइन में व्यवहृत ईंधन ====
गैस टरबाइन में प्राय: सभी प्रकार के ईंधन व्यवहृत होते हैं। पतले तेल को जलाने में कोई कठिनाई नहीं होती। गाढ़े तेल को जलाने के लिये विशेष प्रकार के प्रसाधन की आवश्यकता होती है, क्योंकि इस प्रकार के तेल को जलाते समय अग्रलिखित समस्याओं का सामान करना पड़ता है: तेल में विद्यमान ठोस कणों का दक्षतापूर्वक दहन, टरबाइन फलकों पर राख कर जमा होना तथा टरबाइन फलकों एवं अन्य पुर्जों को तेल के क्षारण प्रभाव से बचाना।
=== गैस टरबाइन की उपयोगिता ====
गैस टरबाइन मूलचालक है। यह परिभ्रमी प्रकार का यंत्र है। इसीलिये पश्चाग्र (reciprocating) मूलचालकों की अपेक्षा इसमें घर्षणहानि बहुत ही कम होती है। गैस टरबाइन की यांत्रिक दक्षता 95 से 97 प्रति शत तक होती है, जब की अंतर्दहन इंजन की दक्षता 80 से 85 प्रति शत तक ही हो पाती है। गैस टरबाइन का संतुलन अच्छा रहता है, जिससे इसमें कंपन कम होता है। अन्यान्य मूल चालकों की तुलना में यह दीर्घायु होता है। विद्युदुत्पादन के सिवाय लोकोमोटिव, (locomotive रेल के इंजन), मोटरगाड़ी जलयान, वायुयान आदि के मूल चालक के रूप में इसका व्यवहार किया जाता है।
=== गैस टरबाइन की समस्याएँ ===
गैस टरबाइन की उष्मीय दक्षता अब भी कम ही होती है। यद्यपि गैस टरबाइन युक्त यंत्र की चाल की दिशा बदलने के लिए बहुत तरह के उपसाधन निकाले गए हैं तथापि यह सुगमतापूर्वक बदली नहीं जा सकती। गैस टरबाइन स्वत:प्रवर्ती (self-starting) मूलचालक नहीं है। इसके अलावा एक समस्या यह भी है कि गैस टरबाइन की दक्षता, शक्ति की माँग के कम होने से, कम हो जाती है। परंतु ये समस्याएँ असाध्य नहीं हैं। आजकल भी शोधनकार्य हो रहे हैं एवं आशा की जाती है कि कुछ वर्षों में गैस टरबाइन सर्वोत्तम मूल चालकयंत्र हो जायगा।
== जल टरबाइन ==
=== जल टरबाइन या जलचक्र ===
उन मूल चालक यंत्रों (prime movers) को कहते हैं जो जलराशि में निहित स्थितिज ऊर्जा को यांत्रिक कार्य में परिवर्तित कर देते हैं। पनचक्कियाँ विभिन्न प्रकार से बनाई जाने पर भी बड़ी ही सरल प्रकार की युक्तियाँ (devices) हैं, जिनका प्रयोग प्रागैतिहासिक काल से ही शक्ति उत्पादन करने के लिए होता चला आया है। समय समय पर आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों से प्रेरित होकर लोगों ने इनमें अनेक सुधार किए, अत: जल टरबाइन भी पनचक्की का ही विकसित रूप है। पिछली अर्धशताब्दी से तो इनका इतना उपयोग बढ़ गया है कि इनके द्वारा लगभग सभी सभ्य देशों में जगह जगह, छोटे बड़े अनेक जल-विद्युच्छक्ति-गृह बनाए जाने लगे। इस कारण सुदूर जलहीन देहातों में भी बड़े सस्ते भाव पर बिजली प्राप्त होने लगी और नाना प्रकार के उद्योग धंधों के विकास को प्रत्साहन मिला।
==जलचालित मोटरों का वर्गीकरण==
यह वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार है :
===जलधारा के प्रवाह तथा गुरुत्वाकर्षण जनित ऊर्जा चालित चक्र===
ये चक्र जलधारा के प्रवाह में रुकावट डालने पर होलेवाले संघट्टन (impact) अथवा चक्र की डोलचियों में भरे पानी के भार के कारण चला करते हैं।
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ये किसी तुंग (nozzle) में से निकलनेवाली पानी की अत्यधिक वेगयुक्त प्रधार (jet) की गतिज ऊर्जा द्वारा चलते हैं। इस प्रकार के आवेगचक्रों का वहीं उपयोग होता है जहाँ पर पानी की मात्रा तो सीमित होती है लेकिन उसका वर्चस् 300 से 3,000 फुट तक ऊँचा होता है।
===प्रतिक्रिया टरबाइन (Reaction Turbine) ===
इसमें पानी की गतिज ऊर्जा तथा दाब दोनों का ही उपयोग होता है। ये वहीं लगाए जाते हैं जहाँ परिस्थितियाँ आवेगचक्र तथा आवेग टरबाइनों के लिए बताई परिस्थितियों से विपरीत होती हैं, अर्थात् जहाँ पानी अल्प वर्चस् युक्त होते हुए भी विपुल मात्रा में प्राप्त हो सकता है। इस पानी का वर्चस् 5 से लेकर 500 फुट तक हो सकता है।
जलधारा के प्रवाह तथा गुरुत्वाकर्षण जनित ऊर्जा से चलनेवाले चक्रों का उपयोग तो अब देहातों में कुटीर उद्योगों के उपयुक्त ही समझा जाता है, विशेषकर उन पहाड़ी प्रांतों में जहाँ निरंतर झरने बहते रहते हैं। इस प्रकार के चक्रों में अध:प्रवाही (Under-shot), पॉन्सले (Poncelet) मध्यप्रवाही (Breast-wheel) और ऊर्ध्वप्रवाही (Over-shot) चक्र प्रमुख हैं, लेकिन बड़ी मात्रा में विद्युदुत्पादन के लिए ये सर्वथा अनुपयुक्त समझे जाते हैं, फिर भी सहायक मोटर के रूप में, बड़े बिजलीघरों में, ऊर्ध्वप्रवाही चक्र का उपयोग, आवश्यकता पड़ने पर, आधुनिक संयंत्रों के साथ कर लिया जाता है।
=== अध: प्रवाही चक्र ===
इस प्रकार के चक्र की कार्यक्षमता लगभग 25 प्रति शत ही होने पाती है, क्योंकि इसमें पानी की बहुत सी ऊर्जा व्यर्थ में नष्ट हो जाती है। 1,800 ई0 तक इसका उपयोग बहुत हुआ करता था।
==== पॉन्सले का चक्र ===
यह अर्धप्रवाही चक्र का ही परिष्कृत रूप है। इसकी पंखुड़ियाँ इस प्रकार से मोड़कर गोलाईदार बनाई जाती हैं कि इनमें पानी बिना झटका मारे ही प्रवेश कर जाता है और उनमें से बाहर निकलते समय वह चक्र की परिधि की स्पर्शरेखीय दिशा में होकर ही निकलता है, जिसे चक्र को अधिक आवेग प्राप्त हो जाता है और चक्र की कार्यक्षमता लगभग दुगनी हो जाती है।
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यह भी अध:प्रवाही चक्र का ही परिष्कृत रूप है। इसकी कोनियानुमा पंखुड़ियों में पानी, चक्र की धुरी के तल से कुछ ऊँचाई पर स्थित पंखुड़ियों में भरना आरंभ होता है और उनके नीचे आने तक उन्हों में भरा रहता है। चक्र की खोल भी इस पानी को उनमें भरा रखने में कुछ सहायता करती है, अत: यह चक्र मुख्यतया पानी के भार के कारण ही घूमता है। मध्यप्रवाही चक्र भी दो प्रकार के होते हैं। एक तो मध्योच्च प्रवाही (High Breast), जैसा उपर्युक्त वर्णित चित्र में दिखाया गया है और दूसरा अध:मध्यप्रवाही (Low Breast) कहलाता है। इसकी पंखुड़ियों में पानी धुरी के तल से कुछ नीचे की पंखुड़ियों में भरना आरंभ होता है, जिसमें पानी के भार और प्रवाहजनित, दोनों प्रकार की, ऊर्जाओं का उपयोग होता है। इन चक्रों की कार्यक्षमता 50 प्रति शत से लेकर 80 प्रति शत तक हो सकती है, जो इनकी बनावट तथा आकार पर निर्भर करती है। इनका प्रयोग 19वीं शताब्दी के मध्य तक होता रहा, फिर बंद हो गया।
=== उर्ध्व प्रवाही चक्र===
इसका कार्यक्षमता 70 प्रतिशत से लेकर 85 प्रतिशत तक पहुँच जाती है, जो आधुनिक जल टरबाइनों के लगभग समकक्ष ही है यह अपेक्षाकृत आधुनिक प्रकार का गुरुत्वाकर्षणजनित ऊर्जाचालित जलचक्र है, जिसका प्रयोग थोड़ी मात्रा में विद्युच्छक्ति उत्पन्न करने के लिए आजकल भी सहायक मोटर के रूप में होता है तथा अच्छा काम देता है।
=== आवेगचक्र और टरबाइन
आधुनिक प्रकार के आवेग चक्र पॉन्सले के अध:प्रवाही चक्र के परिष्कृत रूप हैं। इनमें स्लूस मार्ग (sluice way) के स्थान पर तुड़ों का उपयोग किया जाता है, जिनमें से पानी की प्रधार (jet) बड़े बेग से निकलकर चक्र की पंखुड़ियों से टकराती है। इस ढंग के जिस संयंत्र का सर्वाधिक प्रचार है वह पेल्टन चक्र (Pelton's Wheel)[[http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/d/d9/Peltonturbine-1.jpg/220px-Peltonturbine-1.jpg]] [[http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/f/f6/Pelton_wheel_(patent).png/220px-Pelton_wheel_(patent).png]]के नाम से प्रसिद्ध है, डोलची को दो जुड़वाँ प्यालों के रूप में इस प्रकार बना दिया गया है कि पानी की प्रधार उसके मध्य में टकराते ही फटकर, दो भागों में विभक्त होकर , एक दूसरी से लगभग 180 डिग्री के कोणांतर पर चलने लगती है। यदि ये दोनों उपप्रधाराएँ अपनी मूल प्रधारा से बिलकुल विपरीत दिशा में बह निकले तो अवश्य ही पेल्टन चक्र की कार्यक्षमता 100 प्रति शत हो जाय, लेकिन इन्हें जान बूझकर तिरछा करके निकाला जाता है, जिससे ये अपने पासवाली डोलची से टकराएँ नहीं। ऐसा करने से अवश्य ही कुछ ऊर्जा घर्षण में बरबाद हो जाती है, जिससे इस चक्र की कार्य-क्षमता लगभग 80 प्रतिशत ही रह जाती है।
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इन तुंडों में प्रवेश करते समय, बाहर निकलते समय की अपेक्षा, पानी का वेग बहुत अधिक होता है। अत: बाहर की तरफ उनका रास्ता क्रमश: चौड़ा कर दिया जाता है। संयुक्त राज्य, अमरीका में इस टरबाइन का निर्माण 'विक्टर उच्चदाब टरबाइन' नाम से किया जाता है, जिसकी कार्यक्षमता 70 प्रतिशत से लेकर 80 प्रतिशत तक, उसके अभिकल्प तथा आकार के अनुसार होती है।
प्रतिक्रियात्मक टरबाइनें पानी के प्रवाह के दिशानुसार निम्नलिखित चार मुख्य वर्गों में बाँटी जा सकती हैं : 1. त्रैज्य बहिर्प्रवाही, 2. त्रैज्य अंत:प्रवाही, 3. अक्षीय प्रवाही और 4. मिश्रप्रवाही।
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