"परमात्मा": अवतरणों में अंतर
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'''नवम बुद्ध अवतार, धर्म संस्थापक, सतयुग प्रवर्तक
नारायण भगवान श्री मायानन्द चैतन्य द्वारा आविष्कृत दिव्यदृष्टि आधारित
परमात्मा का प्रत्यक्ष एवं यथार्थ दर्शन'''
विश्व ही सनातन सत्य है। आदि-अन्त-मध्य रहित चराचर सृष्टि के रूप मे दिखने वाला चराचर सृष्टि के रूप में दिखने वाला विश्व ही विश्वरूप परमात्मा, परमेश्वर, पुरुषोत्तम, विश्वरूप, जगत, ब्रह्म, गॉड, खुदा आदि अनेक पर्यायवाची नामों से वेद-उपनिषद, पुराण, वेदान्त, गीता, रामायण, आदि समस्त ग्रंथों में कहा गया है। परन्तु उपरोक्त पर्यायवाची शब्दों के शब्द पाण्डित्यमय अपूर्ण ज्ञान-विज्ञान से अनेक प्रकार के स्वमत से भिन्न-भिन्न प्रकार का भ्रम फैलाने वाला अनर्थ कर जिस विश्वरूप परमात्मा की दिव्ययोग से देखकर, जानकर, स्वकर्म द्वारा सेवा भक्ति करनी चाहिये, ऐसा न करते हुये विश्व से कहीं अलग मानिंदी के आधार पर कल्पित परमात्मा की मानिंदी में फँसकर भोले-भाले मुमुक्षओं को भी भ्रमित किया।
अब प्रथम वेद सिद्धान्त से परमात्मा का विचार करें ।
पुरुष ऐवेदं सर्वं यत् भूतं यत् च भव्यम् ।। (ऋग. पु.सू.)
ऊँ ब्रह्मैवेदममृतम् पुरुस्तात ब्रह्म, पश्चात ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्रेण ।
अधःश्चोर्ध्व च प्रस्रतं, ब्रह्मैवेर्दं विश्वं इदं वरिष्ठम ।। (मुंड. उप. 2 /2 /11 )
यह अविनाशी ब्रह्म आगे पीछे, दाहिने बांये और ऊपर नीचे सर्वत्र व्याप्त है । यह ब्रह्म ही सम्पूर्ण विश्व है । सबमें श्रेष्ठतम केवल यह विश्व ब्रह्म ही है ।
दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत ।
सा दृष्टिः परमोदारा न नासाग्रवलोकिनी ।। (अपरोक्ष अ. 116)
दृष्टि को ज्ञानमय करके संसार को ब्रह्ममय देखे यही दृष्टि अति उत्तम है, नासिका के अग्र भाग को देखने वाली नहीं ।
यदिदं सकलं विश्वं नानारूपं प्रतीतमज्ञानात् ।
तत् सर्वं ब्रह्मैव प्रत्यस्ता शेष भावना दोषम् ।। (विवेक चूड़ामणि 229)
यह सम्पूर्ण विश्व जो अज्ञान से नाना प्रकार का प्रतीत हो रहा है, समस्त भावनाओं के दोष से रहित (अर्थात्) निर्विकल्प ब्रह्म ही है ।
आत्मैवेदं जगत्तसर्वं आत्मनोsन्यत् न विद्यते ।
मृदो यत्वत् घटाटीनि स्वत्मानं सर्व मीक्षते ।। (आत्म बोध. आदि शंकराचार्य)
यह सम्पूर्ण जगत ही ब्रह्म है । आत्मा के अतिरिक्त कोई पदार्थ नहीं । यह आत्मज्ञानी विवेकी पुरुष को ही दिखता है ।
एतत सर्व मिदं विश्वं जगदेतच्चराचरम् ।
परब्रह्म स्वरूपस्य विष्णोशक्ति समन्वितम् ।। (वि.पु. अ. 6-7-60)
द्वे रूपे ब्रह्मणस्तस्य मूर्तमचामूर्त एव च ।
क्षराक्षर स्वरूपेते सर्व भूतेष्व वस्थिते ।। (वि.पु. अ. 1-22-55)
यह सम्पूर्ण चराचर जगत परब्रह्म स्वरूप भगवान विष्णु का उनकी शक्ति से सम्पन्न विश्व नामक रूप है। ब्रह्म के मूर्त और अमूर्त दो रूप हैं जो क्षर और अक्षर रूप से सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित हैं।
प्रकृतिर्या मया ख्याता व्यक्ताव्यक्त स्वरूपिणी ।
पुरुषश्चाश्युभावे तौ लीयते परमात्मनि ।।
परमात्मा च सर्वेषामाधारः परमेश्वरः ।
विष्णु नामा सा वेदेषु वेदान्तेषु च गीयते ।। (वि.पु. अ. 6-5-37-38)
व्यक्त अव्यक्त, प्रकृति और पुरुष, क्षर अक्षर ब्रह्म ये दोनो भाव परमात्मा में लीन हो जाते हैं । परमात्मा ही सबका आधार है । वेद और वेदांतो में विष्णु नाम से कहा है।
यदेजति पतति यत् च तिष्ठति, प्राणात् प्राणन् यद् भुवति निमिषच्च ।
तत् पृथ्वी आधार, विश्वरूप, तत् सम्भुय भवत्य एकमेव ।। (ऋग्वेद)
हिलता, चलता, सर्व व्यापक जड़ चैतन्य सहित पृथ्वी से लेकर सब मिलकर एकमेव अद्वितीय विश्वरूप ही है ।
आत्मैव तदिदं विश्वं तत् सृज्यते सृजति प्रभु ।
त्रायते त्राति विश्वात्मा ह्रियते हरतीश्वरः ।। (भागवत स्कं 11-28-6)
यह सम्पूर्ण विश्व ही परमात्मा है । उत्पत्ति, पालन, लय यह विश्वरूप आप ही अपनी करता है ।
विश्वरूप दर्शनयोग गीता अध्याय 11 में निम्नलिखित प्रमाण है ।
इहैकस्थं जगत कृत्स्नम् पश्याद्य सचराचरम् ।
मम् देहे गुडाकेश यच्चान्य दृष्टुमिच्छसि ।।
अनेक बाहुदर पक्य नेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोsनन्त रूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्त वादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ।। (गीता. 11-16)
चराचर सहित सम्पूर्ण जगत इस विश्वरूपी विराट में ही है । अनेक हाथ-नेत्रों सहित आदि-मध्य-अंत रहित यह विश्वेश्वर विश्वरूप ही है ।
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