"विराम (चिन्ह)": अवतरणों में अंतर

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ऋग्विराम: पदविरामो विवृति विराम: समानपदविवृत्तिविरामस्त्रिमात्रो द्विमात्र एक मात्रोर्धमात्र इत्यानुपूर्व्येंण,
 
अर्थात् ऋग्विराम, पदविराम, विवृतिविराम, समानपदविवृत्तिविराम, इन विरामों की मात्राएँ क्रमश: तीन, दो, एक तथा अर्ध मानी गई हैं। इनमें ऋग्विराम चरण या छंद के अंत के लिए अर्थात् आज के पूर्ण विराम जैसा है। "ऋक्" का अर्थ है छंद, इसीलिए इस विराम को "ऋग्विराम" कहा गया है। इसके लिए प्राय: एक या दो खड़ी पाई देने की परंपरा रही है। कभी कभी छोटा वृक्ष या फूल भी बनाते रहे हैं। "पदविराम" दो शब्दों या पदों के बीच में आता है। पदों के बीच में आता है। पदों के बीच में होने के कारण ही इसका नाम "पदविराम" है। वस्तुत: पदों के बीच कोई विरामचिह्न दिया नहीं जाता। इसका आशय मात्र यह है सामान्य भाषा में पदों के बीच विराम अथवा ध्वनि का अभाव होता है और उसे लगभग दो मात्रा (अर्थात् दीर्घ ई या दीर्घ ऊ जितना) होना चाहिए। तीसरा विराम "विवृतिविराम" भी शब्दों या पदों के बीच में ही आता है, किंतु ये विशेष प्रकार के शब्द या पद होते हैं। कभी कभी संस्कृत में ऐसा होता है कि शब्द के अंत में स्वर आता है और उसके बादवाले शब्द के प्रांरभ में भी स्वर। सामान्यत: ऐसी स्थिति में संधि हो जाती है। किंतु जब इनके बीच संधि नहीं होती, तो इन दोनों शब्दों के बीच का विराम अन्य प्रकार के सामान्य शब्दों या पदों के बीच के विराम अन्य प्रकार के सामान्य शब्दों या पदों के बीच के विराम से आधा अर्थात् केवल एक मात्रा (अर्थात् अ, इ जितना) का होता है। यही "विवृतिविराम" है। "हरी एतौ," "अहो इशा:" के बीच के विराम इसी वर्ग के हैं। "विवृति", स्वरों की असंधि विवृति: स्वरयोरसंधि: - तैत्तिरीय प्रातिशाख्थ) का पारिभाषिक नाम है। इसी आधार पर इस विराम को इस नाम से अभिहित किया गया है। विवृति विराम के चार उपभेद भी किए गए हैं :
 
(1) वत्सानुसृता (अर्थात् वह गाय, जिसका बछड़ा अनुसरण करे) जिसमें पहला स्वर ह्रस्व तथा दूसरा दीर्घ हो। स्पष्ट ही यह नाम बहुत काव्यात्मक है। ह्रस्व को बछड़ा तथा दीर्घ को गाय कहा गया है। इसे याज्ञवल्क्य शिक्षा में वत्सानुमृजिता कहा गया है।