"विष्णु पुराण": अवतरणों में अंतर

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श्रीपराशर'''विष्णुपुराण''' ऋषि द्वारा प्रणीत यहअट्ठारह [[पुराण|पुराणों]] में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा प्राचीन है। यह श्री पराशर ऋषि द्वारा प्रणीत है। यह इसके प्रतिपाद्य भगवान [[विष्णु]] हैं, जो सृष्टि के आदिकारण, नित्य, अक्षय, अव्यय तथा एकरस हैं। इस पुराण में आकाश आदि भूतों का परिमाण, समुद्र, [[सूर्य]] आदि का परिमाण, पर्वत, देवतादि की उत्पत्ति, मन्वन्तर, कल्प-विभाग, सम्पूर्ण धर्म एवं देवर्षि तथा राजर्षियों के चरित्र का विशद वर्णन है। <ref>[http://www.gitapress.org/hindi गीताप्रेस डाट काम]</ref> भगवान [[विष्णु]] प्रधान होने के बाद भी यह पुराण [[विष्णु]] और [[शिव]] के अभिन्नता का प्रतिपादक है। '''विष्णु पुराण''' में मुख्य रूप से [[श्रीकृष्ण]] चरित्र का वर्णन है, यद्यपि संक्षेप में [[राम]] कथा का उल्लेख भी प्राप्त होता है।
 
अष्टादश महापुराणों में श्रीविष्णुपुराण का स्थान बहुत ऊँचा है। इसके रचयिता श्रीपराशरजी हैं। इसमें अन्य विषयों के साथ भूगोल, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, राजवंश और श्रीकृष्ण-चरित्र आदि कई प्रंसगों का बड़ा ही अनूठा और विशद वर्णन किया गया है। भक्तिश्री औरविष्णु ज्ञानपुराण कीमें प्रशान्तभी धाराइस तोब्रह्माण्ड इसमेंकी सर्वत्रउत्पत्ति, हीवर्ण प्रच्छन्नव्यवस्था, रूपआश्रम सेव्यवस्था, बहभगवान रहीविष्णु है।एवं यद्यपिमाता यहलक्ष्मी पुराणकी विष्णुपरकसर्वव्यापकता, हैध्रुव तोप्रह्लाद, भीवेनु, भगवानआदि शंकरराजाओं के लियेवर्णन इसमेएवं कहींउनकी भीजीवन अनुदारगाथा, भावविकास प्रकटकी नहींपरम्परा, कियाकृषि गया।गोरक्षा सम्पूर्णआदि ग्रन्थकार्यों मेंका शिवजीसंचालन, भारत आदि नौ खण्ड मेदिनी, सप्त सागरों के वर्णन, अद्यः एवं अर्द्ध लोकों का प्रसंगवर्णन, सम्भवतःचौदह श्रीकृ्ष्ण-बाणासुर-संग्रामविद्याओं, मेंवैवस्वत हीमनु, आताइक्ष्वाकु, हैकश्यप, सोपुरुवंश, वहाँकुरुवंश, स्वयंयदुवंश भगवान्के कृष्णवर्णन, महादेवजीकल्पान्त के साथमहाप्रलय अपनीका अभिन्नतावर्णन प्रकटआदि करतेविषयों हुएका श्रीमुखसेविस्तृत कहतेविवेचन किया गया है। भक्ति और ज्ञान की प्रशान्त धारा तो इसमें सर्वत्र ही प्रच्छन्न रूप से बह रही है। हैं-
 
यद्यपि यह पुराण विष्णुपरक है तो भी भगवान [[शंकर]] के लिये इसमे कहीं भी अनुदार भाव प्रकट नहीं किया गया। सम्पूर्ण ग्रन्थ में शिवजी का प्रसंग सम्भवतः श्रीकृ्ष्ण-बाणासुर-संग्राम में ही आता है, सो वहाँ स्वयं भगवान् कृष्ण महादेवजी के साथ अपनी अभिन्नता प्रकट करते हुए श्रीमुखसे कहते हैं-
 
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== कथा एवं विस्तार ==