"रूढ़धारणा": अवतरणों में अंतर
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मान्यताओं को लेकर लोगों में यह भ्रम है कि मान्यताएं सामूहिक ही होती हैं। मगर ऐसा नहीं होता। वह किसी भी व्यक्ति के जेहन से निकलती हैं और छूत की बीमारी की तरह तेजी से फैलती हैं। हर मान्यता के पीछे व्यक्तिगत अनुभव और भ्रम होते हैं, जब वह व्यक्ति उन्हें प्रचारित करता है तो कुछ और लोग अपने अनुभव और भ्रम से उनसे जु़ड़ते चले जाते हैं, इस तरह मान्यताएं सामूहिक हो जाती हैं। इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहूंगा। आप का कोई काम नहीं हो रहा है। दो महीने से आप काफी परेशान हैं। काम ऐसा है कि कोई मदद करने वाला भी नहीं दिख रहा। आप मदद के लिए रोज किसी न किसी से कहते हैं। पर कुछ नहीं हुआ है। आप जिस रास्ते से गुजरते हैं, उसमें एक कीकर का पेड़ हैं। एक दिन आपके मन में विचार आता है। आप उस पेड़ के पास रुकते हैं। उस पर एक रुपये का सिक्का चढ़ाते हैं और मदद के लिए कहते हैं। कुछ दिन बाद आपका काम हो जाता है। आप खुश हैं और आश्चर्यचकित हैं। यह पेड़ सचमुच मदद करता है, आपकी पहली मान्यता बनती है, जिसके पीछे आपका काम हो जाने का प्रत्यक्ष अनुभव है। आप यह बात अपने मित्रों-दोस्तों को बताते हैं। कुछ ही महीनों बाद आप देखते हैं कि उस कीकर के पेड़ के पास धर्मस्थल बन रहा है, संभव है कि इसके लिए सहयोग करने वालों में आप भी सबसे आगे हों। इस तरह से व्यक्ति की मान्यताएं भी सामूहिक मान्यताएं बनती हैं।
दृष्टान्त
मान्यतावाद से क्या मिला -
भारत में पंजाब का आतंकवाद धार्मिक मान्यता को आगे रखकर शुरू किया गया, करीब
अयोध्या मंदिर विवाद - नब्बे के दशक में देश में कानून-व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती बना। छह दिसंबर १९९२ को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई, इसके फलस्वरूप देशभर में भड़के दंगों में २००० से ज्यादा लोगों की जान गई। (बीबीसी के अनुसार)
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