"ग़ज़ल": अवतरणों में अंतर
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अरबी से [[फारसी साहित्य]] में आकर यह विधा शिल्प के स्तर पर तो अपरिवर्तित रही किंतु कथ्य की दृष्टि से वे उनसे आगे निकल गई। उनमें बात तो दैहिक या भौतिक प्रेम की ही की गई किंतु उसके अर्थ विस्तार द्वारा दैहिक प्रेम को आध्यात्मिक प्रेम में बदल दिया गया। अरबी का [[इश्के मज़ाजी]] फारसी में [[इश्के हकीकी]] हो गया। फारसी ग़ज़ल में प्रेमी को [[सादिक]] (साधक) और प्रेमिका को [[माबूत]] (ब्रह्म) का दर्जा मिल गया। ग़ज़ल को यह रूप देने में [[सूफी]] साधकों की निर्णायक भूमिका रही। सूफी साधना [[विरह]] प्रधान साधना है। इसलिए फ़ारसी ग़ज़लों में भी [[संयोग]] के बजाय [[वियोग]] पक्ष को ही प्रधानता मिली।
=== उर्दू में ===
फ़ारसी से उर्दू में आने पर भी ग़ज़ल का शिल्पगत रूप ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया लेकिन कथ्य भारतीय हो गया। लेकिन उतत्रभारत की आम अवधारणा के विपरीत हिन्दोस्तानी ग़ज़लों का जन्म बहमनी सल्तनत के समय दक्कन में हुआ जहाँ गीतों से प्रभावित ग़ज़ल लिखी गईं । भाषा का नाम रेख्ता (गिरा-पड़ा) पड़ा । वली, सिराज दाउद आदि इसी प्रथा के शायर थे जिन्होंने एक तरह से अमीर ख़ुसरो (१३१० इस्वी) की परंपरा को आगे बढ़ाया । दक्किनी उर्दू के ग़ज़लकारों ने अरबी फारसी के बदले भारतीय प्रतीकों, काव्य रूढ़ियों, एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को लेकर रचना की।
उस समय [[उत्तर भारत]] में राजकाज की भाषा === हिंदी में ===
[[हिंदी]] के अनेक रचनाकारों ने इस विधा को अपनाया। जिनमें [[निराला]], [[शमशेर]], [[बलबीर सिंह रंग]], [[भवानीशंकर]], [[जानकी वल्लभ शास्त्री]], [[सर्वेश्वर दयाल सक्सेना]], [[त्रिलोचन]] आदि प्रमुख हैं। किंतु इस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रसिद्धि [[दुष्यंत कुमार]] को मिली।
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