"आनुवंशिकी": अवतरणों में अंतर
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[[चित्र:4 Kittens.jpg|right|thumb|300px|पैतृक गुणसूत्रों के पुनर्संयोजन के फलस्वरूप एक ही पीढी की संतानें भी भिन्न हो सकती हैं।]]
'''आनुवंशिकी''' (जेनेटिक्स) [[जीव विज्ञान]] की वह शाखा है जिसके अंतर्गत आनुवंशिकता (हेरेडिटी) तथा जीवों की विभिन्नताओं (वैरिएशन) का अध्ययन किया जाता है। आनुवंशिकता के अध्ययन में ग्रीगॉर [[मेंडेल]] की मूलभूत उपलब्धियों को आजकल आनुवंशिकी के अंतर्गत समाहित कर लिया गया है।
==परिचय==
समस्त जीव, चाहे वे जंतु हों या वनस्पति, अपने पूर्वजों के यथार्थ प्रतिरूप होते हैं। वैज्ञानिक भाषा में इसे 'समान से समान की उत्पति' (लाइक बिगेट्स लाइक) का सिद्धांत कहते हैं। आनुवंशिकी के अंतर्गत कतिपय कारकों का विशेष रूप से अध्ययन किया जाता हैः
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'''(२ '''(३ वैज्ञानिक इन समस्त कारकों का सम्यक् अध्ययन करता है, एक वाक्य में हम यह कह सकते हैं कि आनुवंशिकी वह विज्ञान है, जिसके अंतर्गत आनुवंश्किता के कारण जीवों तथा उनके पूर्वजों (या संततियों) में समानता तथा विभेदों, उनकी जोहानसेन ने सन् १९११ में जीवों के बाह्य लक्षणों (फ़ेनोटाइप) तथा पित्रागत लक्षणों (जीनोटाइप) में भेद स्थापित किया। जीवों के बाह्म लक्षण उनके परिवर्धन के साथ-साथ परिवर्तित होते रहते हैं, जैसे जीवों की भ्रूणावस्था, शैशव, यौवन तथा वृद्धावस्था में पर्याप्त शारीरिक विभेद दृष्टिगोचर होता है। इसके विपरीत उनके पित्रागत लक्षण या विशेषताएँ स्थिर तथा अपरिवर्तनशील होती हैं। किसी भी जीव के पित्रागत लक्षण और परिवेश की अंतक्रियाओं के फलस्वरूप उसकी वृद्धि और परिवर्धन होता है। अतः पित्रागत लक्षण जीवों के 'प्रतिक्रया के मानदंड' (नार्म ऑव रिऐक्शन) अर्थात् परिवेश के प्रति उनकी प्रतिक्रिया (रेस्पांस) के ढंग का निधार्रण करते हैं। इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं से जीवों के बाह्य लक्षण (फ़ेनोटाइप) का निर्माण होता है।
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जीवविज्ञान में आनुवंशिकी के अध्ययन का वही महत्व है जो भौतिक विज्ञान में परमाणवीय सिद्धांतों का है। मनुष्य के आनुवंशिक अध्ययनों के आरंभिक रूपों में बह्वांगुलिता (अतिरिक्त अंगुलियों का होना), हीमोफ़ीलिया, तथा वर्णांधता (कलर-ब्लाइंडनेस) मुख्य विषय थे। उदाहरणार्थ सन् १७५० में बर्लिन में मॉपर्टुइस ने मेंडेल के नियमों के आधार पर बह्वांगुलिता का वर्णन किया था। इसी प्रकार ओटो (१८०३), हे (१८१३) और बुएल्स (१८१५) ने न्यू इंग्लैंड के तीन विभिन्न परिवारों में लिंगसहलग्न हीमोफ़ीलिया रोग़ के आनुवंशिक कारणों पर प्रकाश डाला था। सन् १८७६ में स्विट्.जरलैंड के चिकित्सक, हार्नर ने वर्णांधता का वर्णन किया। सन् १९५८ में जार्ज बीडिल को 'कायकी तथा औषधि' विषयक जैवरासायानिक आनुवंशिकी क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। सन् १९५९ में जिरोम लेजुईन ने मंगोलीय मूढ़ता (मंगोलायड ईडिओसी) का विद्वत्तापूर्ण वर्णन प्रस्तुत किया। सन् १९५६ में जे.एच.जिओ, अल्बर्ट लीवान, चार्ल्स फोर्ड एवं जान हैमर्टन ने मुनष्य के गुणसूत्रों की संख्या ४६ बतलाई; इसके पूर्व लोगों का मत था कि यह संख्या ४८ होती है।
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