"आनुवंशिकी": अवतरणों में अंतर

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'''(१)''' प्रथम कारक आनुवंशिकता है। किसी जीव की आनुवंशिकता उसके जनकों (पूर्वजों या माता पिता) की जननकोशिकाओं द्वारा प्राप्त रासायनिक सूचनाएँ होती हैं। जैसे कोई प्राणी किस प्रकार परिवर्धित होगा, इसका निर्धारण उसकी आनुवंशिकता ही करेगी।
 
'''(२)''' दूसरा कारक विभेद है जिसे हम किसी प्राणी तथा उसकी संतान में पाते या पा सकते हैं। प्रायः सभी जीव अपने माता पिता या कभी कभी बाबा, दादी या उनसे पूर्वै की पीढ़ी के लक्षण प्रदर्शित करते हैं। ऐसा भी संभव है कि उसके कुछ लक्षण सर्वथा नवीन हों। इस प्रकार के परिवर्तनों या विभेदों के अनेक कारण होते हैं।
 
'''(३)''' जीवों का परिवर्धन तथा उसके बाद का जीवन उनके परिवेश (एन्वाइरनमेंट) पर भी निर्भर करता है। प्राणियों के परिवेश अत्यंत जटिल होते हैं; इसके अंतर्गत जीव के वे समस्त पदार्थ (सब्स्टैंस), बल (फोर्स) तथा अन्य सजीव प्राणी (आर्गेनिज़्म) समाहित हैं, जो उनके जीवन को प्रभावित करते रहते हैं।
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जोहानसेन ने सन्‌ १९११ में जीवों के बाह्य लक्षणों (फ़ेनोटाइप) तथा पित्रागत लक्षणों (जीनोटाइप) में भेद स्थापित किया। जीवों के बाह्म लक्षण उनके परिवर्धन के साथ-साथ परिवर्तित होते रहते हैं, जैसे जीवों की भ्रूणावस्था, शैशव, यौवन तथा वृद्धावस्था में पर्याप्त शारीरिक विभेद दृष्टिगोचर होता है। इसके विपरीत उनके पित्रागत लक्षण या विशेषताएँ स्थिर तथा अपरिवर्तनशील होती हैं। किसी भी जीव के पित्रागत लक्षण और परिवेश की अंतक्रियाओं के फलस्वरूप उसकी वृद्धि और परिवर्धन होता है। अतः पित्रागत लक्षण जीवों के 'प्रतिक्रया के मानदंड' (नार्म ऑव रिऐक्शन) अर्थात्‌ परिवेश के प्रति उनकी प्रतिक्रिया (रेस्पांस) के ढंग का निधार्रण करते हैं। इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं से जीवों के बाह्य लक्षण (फ़ेनोटाइप) का निर्माण होता है।
 
आनुवंशिक तत्व का [[कृषि विज्ञान]] में फसलों के आकार, उत्पादन, रोगरोधन तथा पालतू पशुओं आदि के नस्ल सुधार आदि में उपयोग किया जाता है। आनुवंशिक तत्वों की सहायता से उद्विकास (इवाल्यूशन), भ्रौणिकी (एँब्रायोलाजी) तथा अन्य संबद्ध विज्ञानों के अध्ययन में सुविधा होती हैं। पित्रागत लक्षणों तथा रोगों संबंधी अनेक भ्रमों का इस विज्ञान ने निराकरण किया है। जुड़वाँ संतानों की उत्पत्त्िा और सुसंततिशास्त्र (यूजेनिक्स) की अनेक समस्याओं पर इस विज्ञान ने प्रकाश डाला है। इसी प्रकार जनसंख्या-आनुवंशिक-तत्व (पापुलेशन जेनेटिक्स) की अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियों से मानव समाज लाभान्वित हुआ है।
 
टी.एच. मार्गन (१८८६-१९४५) तथा उनके सहयोगियों ने यह दर्शाया कि कतिपय जीन, जिनका वंशानुक्रम (इन्हेरिटेंस) विनिमय (क्रासिंगओवर) प्रयोगों द्वारा ज्ञात हुआ, अणुवीक्षण यंत्रों द्वारा ही दृष्ट कतिपय गुणसूत्रों (क्रोमोसोम) में उपस्थित रहते हैं। साथ ही उन्होंने यह भी बतलाया कि गुणसूत्रों के भीतर ये जीन एक निर्धारित अनुक्रम में व्यवस्थित रहते हैं जिसके कारण इनका आनुवंशिकीय चित्र (जेनेटिक मैप) बनाना संभव होता है। इन लोगों ने कदली मक्खी, ड्रोसोफिला, के जीन के अनेक चित्र बनाए। प्रोफेसर मुलर का इस दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रयोगों द्वारा नए नए वैज्ञानिक अनुसंधानों का मार्गदर्शन किया। कृत्रिम उत्परिवर्तनों (आर्टिफ़िशियल या इंडयूस्ड म्यूटेशन) की अनेक विधियों द्वारा पालतू पशुओं तथा कृषि की नस्लों में अद्भुत सुधार कार्य किए गए। यह सब आनुवंशिकी की ही देन है जो मानवकल्याण के लिए परम हितकारी सिद्ध हुई हैं।