"अन्धता": अवतरणों में अंतर

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इन रोगों के परिणामस्वरूप श्लेष्मकला (कंजंक्टाइवा), कार्निया तथा पलकों में निम्नलिखित दशाएँ उत्पन्न हो जाती हैं:
:(1) परवाल (एंट्रोपियन, ट्रिकिएसिस)-इसमें ऊपरी पलक का उपासिपट्ट (टार्सस) भीतर को मुड़ जाता है; इससे पलकों के बाल भीतर की ओर मुड़कर नेत्रगोलक तथा कार्निया को रगड़ने लगते हैं जिससे कार्निया पर व्रण बन जाते हैं;
 
:(2) एक्ट्रोपियन-इसमें पलक की छोर बाहर मुड़ जाती है। यह प्रायः नीचे की पलक में होता है;
 
:(3) कार्निया के व्रणों के अच्छे होने में बने तंतु तथा पैनस के कारण कार्निया अपारदर्शी (ओपेक) हो जाती है;-
 
:(5) स्टैफीलोमा हो जा सकती है, जिसमें कार्निया बाहर उभड़ आती है; इससे आंशिक या पूर्ण अंधता उत्पन्न हो सकती है;
 
:(6) जीरोसिस, जिसमें श्लेष्मकला संकुचित और शुष्क हो जाती है एवं उस पर शल्क से बनते लगते हैं;
 
:(7) यक्ष्मपात (टोसिस), जिसमें पेशोसूत्रों के आक्रांत होने से ऊपर की पलक नीचे झुक आती है और ऊपर नहीं उठ पाती, जिससे नेत्र बंद सा दिखाई पड़ता है।
 
=== हेतुकी (ईटियोलॉजी) ===
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इस रोग का कारण यह है कि जन्म के अवसर पर माता के संक्रमित जनन मार्ग द्वारा शिशु का सिर निकलते समय उसके नेत्रों में संक्रमण पहुँच जाता है और तब जीवाणु श्लेष्मकला में शोथ उत्पन्न कर देते हैं। इस रोग के कारण हमारे देशवासियों की बहुत बड़ी संख्या जन्म भर के लिए आँखों से हाथ धो बैठती है। यह अनुमान लगाया गया है कि 30 प्रतिशत व्यक्तियों में गोनोकोक्कस, 30 प्रतिशत में स्टैफिलो या स्ट्रेप्टोकोक्कस और शेष में बैसिलस तथा वाइरस के संक्रमण से रोग उत्पन्न होता है। पिछले दस वर्षों में यह रोग पेनिसिलीन और सल्फोनेमाइड के प्रयोग के कारण बहुत कम हो गया है।
 
===लक्षण===
===लक्षण=== जन्म के तीन दिन के भीतर नेत्र सूज जाते हैं और पलकों के बीच से श्वेत मटमैले रंग का गाढ़ा स्राव निकलने लगता है। यदि यह स्राव चौथे दिन के पश्चात् निकले तो समझना चाहिए कि संक्रमण जन्म के पश्चात् हुआ है। पलकों के भीतर की ओर से होने वाले स्राव की एक बूँद शुद्ध की हुई काँच की शलाका से लेकर काँच की स्लाइड पर फैलाकर रंजित करने के पश्चात् सूक्ष्मदर्शी द्वारा उसकी परीक्षा करवानी चाहिए। किंतु परीक्षा का परिणाम जानने तक चिकित्सा को रोकना उचित नहीं है। चिकित्सा तुरंत प्रारंभ कर देनी चाहिए।
 
=== प्रतिषेध तथा चिकित्सा ===
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च. दृष्टि तंत्रिका (ऑप्टिक नर्व) की सिफिलिस। यह दशा निम्नलिखित रूप ले सकती है:-
 
:* दृष्टिनाड़ी का शोथ (ऑप्टिक न्यूराइटिस)
:* पैपिलो-ईडिमा
:* गमा
:* प्राथमिक दृष्टिनाड़ी का क्षय (प्राइमरी ऑप्टिक ऐट्रोफ़ी)
 
=== चिकित्सा ===
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(3) ऐट्रोपीन, 10 प्रतिशत की बूँदें नेत्र में डालना।
 
== [[महामारी जलशोथ]] (एपिडेमिक ड्रॉप्सी) ==
इसको साधारणतया जनता में बेरीबेरी के नाम से जाना जाता है। सन् 1930 में यह रोग महामारी के रूप में बंगाल में फैला था और बालक, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, सबको समान रूप से हुआ था। इस रोग का एक विशेष उपद्रव समलवाय (ग्लॉकोमा) था। इस रोग में नेत्र के भीतर दाव (टेंशन), बढ़ जाती है और दृष्टि क्षेत्र (फ़ील्ड ऑव विज़न) क्षीण होता जाता है, यहाँ तक कि कुछ समय में वह पूर्णतया समाप्त हो जाता है और व्यक्ति दृष्टिहीन हो जाता है। अंत में दृष्टि-नाड़ी-क्षय (ऑप्टिक ऐट्रोफ़ी) भी हो जाता है। बाहर से देखने में नेत्र सामान्य प्रकार के दिखाई पड़ते हैं, किंतु व्यक्ति को कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।