"वैकासिक अर्थशास्त्र": अवतरणों में अंतर

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'''वैकासिक अर्थशास्त्र''' (Development economics) अर्थशास्त्र की वेएक नितियाँशाखा और सिद्धांत हैंहै जो प्रति व्यक्ति [[सकल घरेलू उत्पाद]] (जीडीपी) के मामले में पिछड़े रहने वाले देशों को उनकी ग़रीबी से निज़ात दिलाने से संबंधित होतेनीतियाँ और सिद्धांत प्रस्तावित करते हैं। ‘डिवेलपमेंट’'विकास' (डिवेलपमेंट) और ‘ग्रोथ’'संवृद्धि' (ग्रोथ) के प्रत्ययों में स्पष्ट अंतर पर ज़ोर देनेकरने वाले विद्वानों की राय है कि दरअसल यहइस अर्थशास्त्र को वैकासिक या विकासवादी के बजाय आर्थिक संवृद्धि के अर्थशास्त्र के रूप में पेश कियाकरने जानापर जोर देते हैं। चाहिए।
== बहरहाल,इतिहास ==
इसकी शुरुआती झलकियाँ विलियम पेटी के वणिकवाद और ऐडम स्मिथ के क्लासिकल अर्थशास्त्र में देखी जा सकती हैं। अट्ठारहवीं सदी में स्मिथ और उनके साथियों ने आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया को मानव इतिहास के विभिन्न चरणों के ज़रिये समझने की कोशिश की थी। इसके मुताबिक सबसे पहले आखेट आधारित आदिम अवस्था थी जिसका विकास घुमंतू पशुपालन में हुआ। तीसरे चरण में खेती के आधार पर आर्थिक संबंध बने और अंत में वाणिज्य और कारख़ाना उत्पादन की प्रक्रियाएँ सामने आयीं। वैकासिक अर्थशास्त्र के पीछे यही बुनियादी थीसिस काम करती है कि अगर ग़रीब देशों की कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाओं को निर्यात-आयात आधारित वाणिज्य और कारख़ाना उत्पादन का आधार मिल जाए तो उनका आर्थिक कल्याण सम्भव है।
 
वैकासिक अर्थशास्त्र के सिद्धांत दीर्घकालीन बचत, उसके निवेश और प्रौद्योगिकीय प्रगति की भूमिका के इर्द- गिर्द सूत्रबद्ध होते हैं। इस लिहाज़ से आर्थिक विज्ञान की यह शाखा सैद्धांतिक और व्यावहारिक अर्थशास्त्र का मिला-जुला रूप है। इसमें एक तरफ़ मुक्त व्यापार का रवैया अपनाते हुए बाज़ार के ज़रिये आर्थिक वृद्धि हासिल करने की कोशिश  की जाती है। दूसरी ओर राष्ट्रीय सरकारों के हस्तक्षेप और आर्थिक नियोजन का सहारा लिया जाता है। इसका तीसरा पहलू है अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा किया जाने वाला हस्तक्षेप। इन संस्थाओं में अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और अन्य क्षेत्रीय ऋणदाता बैंक शामिल हैं। इसी मिले-जुले रूप के कारण वैकासिक अर्थशास्त्र नियोक्लासिकल और मार्क्सवादी अर्थशास्त्रियों की आपसी टकराहट का अखाड़ा बना रहता है। नियोक्लासिकल तर्क ग़रीब देशों में बाज़ार की विफलता को उनकी कमज़ोरी का कारण बताता है। उसकी तरफ़ से सुझाव आता है कि इन देशों को अपनी शुल्क प्रणाली, विनिमय दरें और मौद्रिक प्रणालियों में परिवर्तन करने चाहिए ताकि बाज़ारों में सुधार हो सके। मार्क्सवादी रवैया अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाते हुए पूँजीवादी शोषण को दूसरी अर्थव्यवस्थाओं के हाशिये पर रह जाने का कारण बताता है।