"वाक्यपदीय": अवतरणों में अंतर

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उस ब्रह्म की प्राप्ति के उपाय तथा स्वरूप को महर्षियों ने "वेद" कहा है। यह एक होता हुआ भी अनेक मालूम होता है। इसीलिए ऋग् यजुष्, साम तथा अथर्वन् नाम से चार वेद कहे जाते हैं। ऋग्वेद की 21, यजुर्वेद की 100, सामवेद की 1000 तथा अथर्ववेद की 9 मिलाकर 1130 शाखाएँ वेद की हुई। ऐसा होने पर भी सभी वेदों तथा उनकी शाखाओं का एकमात्र प्रतिपाद्य विषय "कर्म" है। यह स्मरण रखना है कि जो शब्द या मंत्र जिस स्वर में जिस शाखा में पढ़ा गया है वह शब्द उसी तरह उच्चारण किए जाने पर फल देनेवाला होता है। वही शब्द उसी रूप में दूसरी शाखा में पढ़े जाने से इस शब्दोच्चारण का फल होगा अन्यथा नहीं, अथवा अन्य कोई फल देगा।
 
आगम के बिना कर्तव्य एवं अकर्तव्य का निश्चय नहीं हो सकता। ऋषियों में जो अतींद्रिय वस्तु को देखने का ज्ञान है वह भी आगम ही के द्वारा प्राप्त है (वाक्य. 1।371.37)। तर्क के द्वारा कोई यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता, वह परिवर्तनशील है। ऊँचे स्तर के ऋषियों के लिए भूत और भविष्य सभी प्रत्यक्ष हैं। ज्ञान के स्वप्रकाश होने के कारण उसमें आत्मा का स्वरूप तथा घट आदि ज्ञेय पदार्थ का स्वरूप दोनों भासित होते हैं। उसी प्रकार शब्द में अर्थ का स्वरूप और उसका अपना स्वरूप, दोनों की प्रतीति होती है।
 
जिस प्रकार जयापुष्प के के लाल रूप से संबद्ध ही स्फटिक का ग्रहण होता है उसी प्रकार स्फोट से मिली हुई ध्वनि का ही ग्रहण होता है। किसी का मत है कि जिस प्रकार इंद्रियों का गुण असंवेद्य होकर भी विषयों के ज्ञान का कारण है, उसी प्रकार ध्वनि असंवेद्य होती हुई भी शब्द के ज्ञान का कारण होती है। दूसरा मत है कि "दूरत्व" दोष के कारण स्फोट के स्वरूप का ज्ञान नहीं होता, केवल ध्वनि का ही भान होता है। तीसरा मत है कि स्फोट का भान तो होता है परंतु दूरत्व दोष के कारण अस्फुट रहता है, जैसे दूर होने के कारण किसी वस्तु का "परिमाण" स्पष्ट रूप में भासित नहीं होता।
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== द्वितीय काण्ड ==
 
द्वितीय कांड में "पद" वाचक है या "वाक्य" इसका विशद विचार है। भिन्न-भिन्न मतों का आलोचन है। इसी कांड में भर्तृहरि ने कहा है - शब्द और अर्थ एक ही परमतत्व के दो भेद हैं जो पृथक् नहीं रहते (2।312.31)। ऋषियों को तत्व का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है किंतु उससे व्यवहार नहीं चल सकता। इसलिए व्यवहार के समय उन अनिर्वचनीय तत्वों का जिस प्रकार लोग व्यवहार करते हों उसी तरह सभी को करना चाहिए (2।1432.143)। "प्रतिभा" को सभी प्रामाणिक मानते हैं और इसी के बल से पक्षियों के भी व्यवहार का ज्ञान लोगों को होता है (2।149)। बीज बोने के साथ साथ "लाह" का रस आदि पदार्थ के मिला देने से उस बीज के फलों के रंग में तथा उसके फलों में भेद हो जाता है। "शास्त्रार्थ" की प्रक्रिया केवल अज्ञ लोगों को समझाने के लिए है, न कि तत्व के प्रतिपादन के लिए। शास्त्रों में प्रक्रियाओं के द्वारा अविद्या का ही विचार है। "अविद्या" के उपमर्दन के पश्चात् आगम के विकल्पों से रहित शास्त्रप्रक्रिया प्रपंचशून्य होने पर "विद्या" के रूप में प्रकट होती है। इसीलिए कहा है कि असत्य के मार्ग के द्वारा ही सत्य की प्राप्ति होती है, जैसे बालकों को पढ़ाते समय उन्हें पहले शास्त्रों का प्रतिपादन केवल प्रतारणमात्र होता है। इत्यादि दार्शनिक रूप से व्याकरण के तत्वों का विचार 493 कारिकाओं में दूसरे कांड में है।
 
== तृतीय काण्ड ==
तीसरे कांड में "पदविचार" का प्रक्रम किया गया है। अर्थ द्वारा पदों की परीक्षा होती है। न्याय-वैशेषिक के मत में आकाश में सामान्य (जाति) नहीं है किंतु वाक्यपदीय के अनुसार मुख्य या औपाधिक देशभेद के कारण आकाश में भी जाति है (3।153.15-16)। "ज्ञान" स्वप्रकाश है। विषयज्ञान तथा उसका परामर्शज्ञान, ये दोनों भिन्न हैं। इस कांड में 13 खंड हैं जिनमें 450 से अधिक कारिकाओं में दार्शनिक रूप से व्याकरण के पदार्थों का विशद विचार किया गया है। यह कांड खंडित ही है।
 
वाक्यपदीय पर भूतिराज के पुत्र हेलाराज ने बहुत सुंदर तथा विस्तृत टीका लिखी है। आधुनिक समय में भी कुछ विद्वानों ने टीका लिखी है किंतु इन सबकी दृष्टि आगमिक न होने के कारण वाक्यपदीय का वास्तविक ज्ञान नहीं प्राप्त होता। इसकी बहुत सी कारिकाएँ नष्ट हुई मालूम होती हैं। अभी हाल में युधिष्ठिर मीमांसक तथा साधूराम ने लुप्त कारिकाओं पर कुछ विचार किए हैं। व्याकरण के आगमिक रूप के विचार में इस ग्रंथ के समान अन्य ग्रंथ बहुत नहीं हैं।