"खगोलीय फोटोग्राफी": अवतरणों में अंतर

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नक्षत्रों का फोटोचित्र लेने की दिशा में हार्वर्ड वेधालय अग्रणी बना। अभिजित नक्षत्र (Vega) का एक चित्र 17 जुलाई, 1850 को लिया गया। उत्कृष्ट साधनों के अभाव में वह चित्र संतोषजनक नहीं हो सका। मार्च, 1858 में [[रॉयल सोसाइटी]] की ओर से किउ वेधालय (Kew Observatory) में ड ला र्‌यू (De la Rue) के निर्देशन में सूर्य के कई चित्र लिए गए और तब से सुदूरस्थ, ज्योतिर्मय, आकाशीय पिंडों के चित्र लेने के प्रयास निरंतर होते रहे। फूको (Foucault) तथा फ़िजो (Fizeau) ने 1851 तथा 1854 में और सिराक्यूज के ए. बंधुओं (A. brothers) द्वारा 22 दिसंबर, 1870 को सूर्यग्रहण तथा रक्तज्वालाओं, सूर्यमुकुट (Corona) इत्यादि के अत्यंत सफल फोटो चित्र लिए गए।
 
सन 1870 में कैप्टेन ऐब्नी (Capt W. de W. Abney) ने एक विशेष प्रकार के फोटोग्राफिक पायस (emulsion) का आविष्कार किया जो लाल रंग के प्रकाश के लिये अत्यंत सुग्राही था। उस पायस से युक्त पट्टिका पर उन्होंने वर्णक्रम (spectrum) के अवरक्त (infrared) क्षेत्र में सूर्य का एक स्पष्ट चित्र प्राप्त किया। ऐब्नी का आविष्कार खगोलीय फोटोग्राफी के क्षेत्र में सचमुच एक क्रांति थी। इसी के द्वारा सन 1870-74 में डा. गाउल्ड (Fould) ने दक्षिणी गोलार्ध के अनेक प्रमुख युग्म (binaries) तारों के चित्र लिए। इसके बाद विलियम हिगिंज़ (William Higgins) ने आधुनिक श्लेष पट्टिका (gelatine plates) का आविष्कार किया, जिसने खगोलीय फोटोग्राफी की पद्धति को भी सामान्य फोटोग्राफी की ही भाँति सुगम एवं आडंबरहीन बना दिया। फिर तो असंख्य छोटे बड़े नक्षत्रों, धूमकेतुओं एवं उल्काओं के चित्र लिए जाने लगे। इंग्लैंड के ऐंसली कामन (Anslie Common) ने 30 जून, 1883 को ओरायन नीहारिका का एक अत्यंत उत्कृष्ट चित्र प्राप्त किया, जिसके लिये उन्हें रायल सोसाइटी का स्वर्णपदक मिला। खगोलीय फोटोग्राफी के यंत्रों उपकरणों एवं फोटोग्राफिक पायसों तथा फोटो पद्धतियों में अत्यंत द्रुत गति से सुधार एवं विकास होते रहे और आज यह अपने विकास की प्रौढ़ता को प्राप्त कर सकी है। अब तो फोटोग्राफी की सहायता से असंख्य आकाशगंगीय (galactic) तथा पार-आकाशगंगीय (extra-galactic) नीहारिकाओं के चित्र लिए जा चुके हैं, जिनसे ब्रह्मांड के विस्तार एवं रचना के संबंध में ज्ञानकोषज्ञानकोश की निरंतर अभिवृद्धि हो रही है।
 
== परिचय ==
नक्षत्रों के कांतिमानों (magnitudes) तथा ग्रहों के धरातल एवं परिवर्ती वायुमंडल की रचना तथा विशेषताओं के अध्ययन के हेतु वर्ण फोटोग्राफी का भी प्रयोग किया जाता है। यह ज्ञातव्य है कि कोई नक्षत्र सभी रंगों के लिये समान रूप से दीप्तिमान नहीं होता। इसलिए विभिन्न प्रकार के फिल्टरों और फोटोग्राफिक पायसों का योग कर विभिन्न वर्णों के क्षेत्र में उनका कांतिमान ज्ञात किया जाता है। इससे उनकी रचना, ताप, धरातल, घनत्व तथा वायुमंडल आदि के संबंध में अनेक अमूल्य जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। सन्‌ 1924 में मंगल के तथा 1927 में वृहस्पति के जो फोटोचित्र लिक (Lick) वेधालय की ओर से डब्ल्यू. एच. राइट (W. H. Wright) ने वर्णपट के अवरक्तक्षेत्र में लिए थे, उन चित्रों की वृहस्पति के सामान्य विधि से लिए गए फोटो चित्रों से तुलना करने पर जो विशेष अंतर अथवा विभिन्नता दृष्टिगोचर हुई उससे उन पिंडों के धरातल एवं वायुमंडल के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त हुई। सूर्य के डिब्बे (सौर कलंक, sun spots), सौर वर्णपट इत्यादि के चित्रों का अध्ययन करने पर उन कलंकों में चुंबकीय क्षेत्रों का अस्तित्व तथा सूर्य में होलियम, सोडियम आदि तत्वों की प्रचुरता का पता चला है।
 
सामान्यतया फोटोग्राफ किए जानेवाले अकाशीय पिंड दो प्रकार के होते हैं। तारों या नक्षत्रों सदृश बिंदुवत्‌ तथा ग्रहों, चंद्रमा, सूर्य अथवा नीहारिकाओं (nebulae) सदृश विस्तृत। विशद ज्योतिषीय अध्ययन के लिये खगोलीय पिंडों से आने वाले प्रकाश के वर्णचित्र (spectrum) का भी फोटो लेना पड़ता है। इन सब फोटोग्राफों से निम्नलिखित महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती हैं:
 
(1) लक्ष्य अकाशीय पिंडों के धरातल तथा वायुमंडल आदि की रचना और उन पिंडों के रूप एवं उनकी भौतिक दशाएँ तथा
 
(2) विभिन्न पिंडों के ज्योति एवं दीप्तिमानों की तुलनात्मक जानकारी।
 
खगोलीय फोटोग्राफी की प्रक्रिया सामान्य फोटोग्राफी से बहुत कुछ भिन्न होती है, क्योंकि इसे कुछ ऐसी समस्याओं का समाधान करना पड़ता है जो सामान्य फोटोग्राफी द्वारा नहीं हो सकतीं। इनमें से कुछ ये है:
 
(1) आकाशीय पिंडों की दूरी बहुत ही विशाल होती है और पृथ्वी के समीपस्थ तारों को छोड़कर शेष कोरी आँखों से नहीं दिखलाई पड़ते। इस कारण उन तारों के चित्र सामान्य कैमरों से नहीं खींचे जा सकते।
 
(2) बहुत से तारे हमसे अपरिमित दूरी पर होने के कारण परस्पर अत्यंत पास पास अथवा सटे सटे से दिखलाई पड़ते हैं, यद्यपि उनके बीच की दूरी अरबों, खरबों मील से भी कहीं अधिक होती है। इसके अतिरिक्त द्विदैहिक या युग्मक तारों (binaries) की भी अत्यधिक संख्या आकाश में छिटकी पड़ी है। सामान्य कैमरे से उन्हें पृथक्‌ कर सकना संभव नहीं होता, क्योंकि इन कैमरों के लेंसों की विभेदनक्षमता (solving power) अत्यंत सीमित होती है।
 
(3) सुदूरस्थ तारों की मंदता के कारण पर्याप्त दीर्घकालिक उद्भासन (exposure) देना पड़ता है, जो कभी कभी कई घंटों तक का होता है। पृथ्वी के दैनिक घूर्णन के कारण अकाशीय पिंड पूर्व से पश्चिम की ओर चलते हुए दिखलाई पड़ते हैं। इसलिये इनका फोटोचित्र लेने के लिये आवश्यक है कि कैमरे का अभिदृश्यक (objective) भी उन्हीं की गति से उसी दिशा में घूमता रहे।