"इस्लाम": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:FirstSurahKoran.jpg|right|thumb|कुरान की एक पाण्डुलिपि में उसका प्रथम अध्याय।]]
 
मुसलमानों के लिये अल्लह् द्वारा रसूलों को प्रदान की गयी सभी धार्मिक पुस्तकें वैध हैं। मुसलमनों के अनुसार कुरान ईश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदान की गयी अन्तिम धार्मिक पुस्तक है। कुरान में चार और पुस्तकों की चर्चा है:
 
* सहूफ़ ए इब्राहीमी जो कि [[इब्राहीम]] को प्रदान की गयीं। यह अब लुप्त हो चुकी है।
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[[चित्र:Kabaa.jpg|thumb|right|[[हज]] के दौरान मुसलमान [[काबा]] का चक्कर लगाते हुए]]
 
इस्लाम के दो प्रमुख वर्ग हैं, [[शिया]] और [[सुन्नी]]। दोनों के अपने अपने इस्लामी नियम हैं लेकिन आधारभूत सिद्धान्त मिलते-जुलते हैं। सुन्नी इस्लाम में हर मुसलमान के ५ आवश्यक कर्तव्य होते हैं जिन्हें इस्लाम के ५ स्तम्भ भी कहा जाता है। शिया इस्लाम में थोड़े अलग सिद्धांतों को स्तम्भ कहा जाता है। सुन्नी इस्लाम के ५ स्तंभ हैं-
 
* साक्षी होना (''शहादाह'')- इस का शाब्दिक अर्थ है गवाही देना। इस्लाम में इसका अर्थ मे इस अरबी घोषणा से हैः
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=== राशिदून खलीफा और गृहयुद्ध ===
[[चित्र:Age of Caliphs.png|thumb|left|300px|७५० में इस्लामी सम्राज्य।]]
मुहम्मद साहब के ससुर [[अबु बक्र सिद्दीक़]] मुसलमानों के पहले खलीफा (सरदार) ६३२ में बनाये गये। कई प्रमुख मुसलमानों ने मिल के उनका खलीफा होना स्वीन्कार किया। मुहम्मद साहब के चचा जाद भाई, [[अली]], जिन का मुसलमान बहुत आदर करते थे ने अबु बक्र को खलीफा मानने से इन्कार कर दिया। लेकिन यह विवाद इस्लाम की तबाही को रोक्ने के लिए वास्तव में हज़रत अली की सूझ बुझ के कारण टल गया अबु बक्र के कार्यकाल में [[पूर्वी रोमन साम्राज्य]] और [[ईरानी साम्राज्य]] से मुसलमान फौजों की लड़ाई हूई। यह युद्ध मुहम्मद साहिब के ज़माने से चली आ रही दुश्मनी का हिस्सा थे। अबु बक्र के बाद [[उमर]] बिन खत्ताब को ६३४ में खलीफा बनाया गया। उनके कार्यकाल में इस्लामी साम्राज्य बहुत तेज़ी से फैला और समपूर्ण ईरानी साम्राज्य और दो तिहाई पूर्वी रोमन साम्राज्य पर मुसलमानों ने कबजा कर लिया। पूरे साम्राज्य को विभिन्न प्रदेशों में बाट दिया गया और और हर प्रदेश का एक राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया जो की खलीफा का अधीन होता था।
 
उमर बिन खत्ताब के बाद [[उसमान बिन अफ्फान]] ६४४ में खलीफा बने। यह भी मुहम्मद साहिब के प्रमुख साथियों में से थे। उसमान बिन अफ्फान पर उनके विरोधियों ने ये आरोप लगाने शुरु किये कि वो पक्षपात से नियुक्तियाँ करते हैं और कि अली ( मुहम्मद साहिब के चचा जाद भाई) ही खलीफा होने के सही हकदार हैं। तभी मिस्र में विद्रोह की भावना जागने लगी और वहाँ से १००० लोगों का एक सशस्त्र समूह इस्लामी साम्राज्य की राजधानी मदीना आ गया। उस समय तक सभी खलीफा आम लोगों की तरह ही रहते थे। इस लिये यह समूह ६५६ में उसमान की हत्या करने में सफल हो गया। कुछ प्रमुख मुसलमानों ने अब अली को खलीफा स्वींकार कर लिया लेकिन कुछ प्रमुख मुसलमानों का दल अली के खिलाफ भी हो गया। इन मुसलमानों का मानना था की जबतक उसमान के हत्यारों को सज़ा नहीँ मिलती अली का खलीफा बनना सही नहीं है। यह इस्लाम का पहला गृहयुद्ध था। शुरु में इस दल के एक हिस्से की अगुआई [[आयशा]], जो की मुहम्मद साहब की पत्नी थी, कर रही थीं। अली और आश्या की सेनाओं के बीच में जंग हूई जिसे जंग-ए-जमल कहते हैं। इस जंग में अली की सेना विजय हूई। अब सीरिया के राज्यपाल [[मुआविया]] ने विद्रोह का बिगुल बजाया। मुआविया उसमान ke रिश्तेदार भी they मुआविया की सेना और aली की सेना के बीच में जंग हूई पर कोई परिणाम नहीं निकला। अली ने साम्राज्य में फैली अशांति पर काबू पाने के लिये राजधानी मदीना से कूफा में (जो अभी ईराक़ में है) पहले ही बदल दी थी। मुआविया की सेनाऐं अब पूरे इस्लामी साम्राज्य में फैल गयीं और जल्द ही कूफा के प्रदेश के सिवाये सारे साम्राज्य पर मुआविया का कब्जा हो गया। तभी एक कट्टरपंथी ने ६६१ में अली की हत्या कर दी।
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उम्मयद वंश ७० साल तक सत्ता में रहा और इस दौरान उत्तरी अफ्रीका, दक्षिण यूरोप, सिन्ध और मध्य एशिया के कई हिस्सों पर उनका कब्ज़ा हो गया। उम्मयद वंश के बाद [[अब्बासी वंश]] ७५० में सत्ता में आया। शिया और अजमी मुसलमानों ने (वह मुसलमान जो कि अरब नहीं थे) अब्बासियों को उम्मयद वंश के खिलाफ विद्रोह करने में बहुत सहायता की। उम्मयद वंश की एक शाखा दक्षिण स्पेन और कुछ और क्षेत्रों पर सिमट कर रह गयी। केवल एक इस्लामी सम्राज्य की धारणा अब समाप्त होने लगी।
 
अब्बासियों के राज में इस्लाम का स्वर्ण युग शुरु हुआ। अब्बासी खलीफा ज्ञान को बहुत महत्त्व देते थे। मुस्लिम दुनिया बहुत तेज़ी से विशव का बौद्धिक केन्द्र बनने लगी। कई विद्वानों ने प्राचीन युनान, भारत, चीन और फ़ारसी सभय्ताओं की साहित्य, दर्शनशास्र, विज्ञान, गणित इत्यादी से संबंधित पुस्तकों का अध्ययन किया और उनका अरबी में अनुवाद किया। विशेषज्ञों का मानना है कि इस के कारण बहुत बड़ा ज्ञानकोषज्ञानकोश इतिहास के पन्नों में खोने से रह गया।<ref>Modern Muslim thought, Volume 2 By Ausaf Ali. Page 450.</ref> मुस्लिम विद्वानों ने सिर्फ अनुवाद ही नहीं किया। उन्होंने इन सभी विषयों में अपनी छाप भी छोड़ी।
 
[[चिकित्सा विज्ञान]] में शरीर रचना और रोगों से संबंधित कई नई खोजें हूईं जैसे कि खसरा और चेचक के बीच में जो फर्क है उसे समझा गया। [[इबने सीना]] (९८०-१०३७) ने चिकित्सा विज्ञान से संबंधित कई पुस्तकें लिखीं जो कि आगे जा कर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का आधार बनीं। इस लिये इबने सीना को आधुनिक चिकित्सा का पिता भी कहा जाता है।<ref>Cas Lek Cesk (1980). "The father of medicine, Avicenna, in our science and culture: Abu Ali ibn Sina (980-1037)", ''Becka J.'' '''119''' (1), p. 17-23.</ref><ref>[https://eee.uci.edu/clients/bjbecker/PlaguesandPeople/lecture5.html Medical Practitioners]</ref> इसी तरह से [[अल हैथाम]] को प्रकाशिकी विज्ञान का पिता और अबु मूसा जबीर को रसायन शास्त्र का पिता भी कहा जाता है।<ref name=Verma>R. L. Verma (1969). ''Al-Hazen: father of modern optics''.</ref><ref name=Derewenda>{{citation|first=Zygmunt S.|last=Derewenda|year=2007|title=On wine, chirality and crystallography|journal=Acta Crystallographica A|volume=64|pages=246–258 [247]|doi=10.1107/S0108767307054293}}</ref> [[अल ख्वारिज़्मी]] की किताब ''किताब-अल-जबर-वल-मुक़ाबला'' से ही बीजगणित को उसका अंग्रेजी नाम मिला। अल ख्वारिज़्मी को बीजगणित की पिता कहा जाता है।<ref>Boyer, Carl B. (1991), A History of Mathematics (Second Edition ed.), John Wiley & Sons, Inc., ISBN 0-471-54397-7. "The Arabic Hegemony" p. 230.</ref>
 
इस्लामी [[दर्शनशास्त्र]] में प्राचीन युनानी सभय्ता के दर्शनशास्र को इस्लामी रंग से विकसित किया गया। इबने सीना ने नवप्लेटोवाद, अरस्तुवाद और इस्लामी धर्मशास्त्र को जोड़ कर सिद्धांतों की एक नई प्रणाली की रचना की। इससे दर्शनशास्र में एक नई लहर पैदा हूई जिसे इबनसीनावाद कहते हैं। इसी तरह [[इबन रशुद]] ने अरस्तू के सिद्धांतों को इस्लामी सिद्धांतों से जोड़ कर इबनरशुवाद को जन्म दिया। द्वंद्ववाद की मदद से इस्लामी धर्मशास्त्र का अध्ययन करने की कला को विकसित किया गया। इसे [[कलाम(इस्लामी दर्शनशास्त्र)|कलाम]] कहते हैं। मुहम्मद साहब के उद्धरण, गतिविधियां इत्यादि के मतलब खोजना और उनसे कानून बनाना स्वयँ एक विषय बन गया। सुन्नी इस्लाम में इससे विद्वानों के बीच मतभेद हुआ और सुन्नी इस्लाम कानूनी मामलों में ४ हिस्सों में बट गया।
 
राजनैतिक तौर पर अब्बासी सम्राज्य धीरे धीरे कमज़ोर पड़ता गया। अफ्रीका में कई मुस्लिम प्रदेशों ने ८५० तक अपने आप को लगभग स्वतंत्र कर लिया। ईरान में भी यही हाल हो गया। सिर्फ कहने को यह प्रदेश अब्बासियों के अधीन थे। [[महमूद ग़ज़नी]] (९७१-१०३०) ने अपने आप को तो सुल्तान भी घोषित कर दिया। [[सल्जूक तुरकों]] ने अब्बासियों की सेना शक्ति नष्ट करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने मध्य एशिया और ईरान के कई प्रदेशों पर राज किया। हालांकि यह सभी राज्य आपस में युद्ध भी करते थे पर एक ही इस्लामी संस्कृति होने के कारण आम लोगों में बुनियादी संपर्क अभी भी नहीं टूटा था। इस का कृषिविज्ञान पर बहुत असर पड़ा। कई फसलों को नई जगह ले जाकर बोया गया। यह [[मुस्लिम कृषि क्रांति]] कहलाती है।
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=== विभिन्न मुस्लिम सम्राज्यों की रचना और आधुनिक इस्लाम ===
[[चित्र:Hattin.jpg|thumb|right|सलादीन की सेना का ११८७ के यरूशलेम के लिये हुए युद्ध का कलात्मक चित्रण।]]
[[फातिमिद वंश]] (९०९-११७१) जो कि शिया था ने उत्तरी अफ्रीका के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा कर के अपनी स्वतंत्र खिलाफत की स्थापना की। (हालांकि इस खिलाफत को अधिकतम मुसल्मान आज अवैध मानते हैं।) मिस्र में गुलाम सैनिकों से बने [[ममलूक वंश]] ने १२५० में सत्ता हासिल कर ली। मंगोलों ने जब १२५८ में अब्बासियों को बग़दाद में हरा दिया तब अब्बासी खलीफा एक नाम निहाद हस्ती की तरह मिस्र के ममलूक सम्राज्य की शरण में चले गये। एशिया में [[मंगोल|मंगोलों]] ने कई सम्राज्यों पर कब्ज़ा कर लिया और बोद्ध धर्म छोड़ कर इस्लाम कबूल कर लिया। मुस्लिम सम्राज्यों और इसाईयों के बीच में भी अब टकराव बढ़ने लगा। [[अय्यूबिद वंश]] के [[सलादीन]] ने ११८७ में येरुशलाईम को, जो पहली [[सलेबी जंग]] (१०९६-१०९९) में इसाईयों के पास आ गया था, वापस जीत लिया। १३वीं और १४वीं सदी से [[उस्मानी साम्राज्य]](१२९९-१९२४) का असर बढ़ने लगा। उसने दक्षिणी और पूर्वी यूरोप के कई प्रदेशों को और उत्तरी अफ्रीका को अपना अधीन कर लिया। खिलाफत अब वैध रूप से उस्मानी वंश की होने लगी। ईरान में शिया [[सफवी वंश]](१५०१-१७२२) और भारत में [[दिल्ली सुल्तन्त|दिल्ली सुल्तानों]] (१२०६-१५२७) और बाद में [[मुग़ल साम्राज्य]](१५२६-१८५७) की हुकूमत हो गयी।
 
नवीं सदी से ही इस्लाम में अब एक धार्मिक रहस्यवाद की भावना का विकास होने लगा था जिसे [[सूफ़ीवाद|सूफी मत]] कहते हैं। [[ग़ज़ाली]](१०५८-११११) ने सूफी मत के पष में और दर्शनशास्त्र की निरर्थकता के बारे में कुछ ऐसे तर्क दिये थे कि दर्शनशास्त्र का ज़ोर कम होने लगा। सूफी काव्यात्मकता की प्रणाली का अब जन्म हुआ। [[जलालुद्दीन रूमी|रूमी]] (१२०७-१२७३) की मसनवी इस का प्रमुख उदाहरण है। सूफियों के कारण कई मुसलमान धर्म की ओर वापस आकर्षित होने लगे। अन्य धर्मों के कई लोगों ने भी इस्लाम कबूल कर लिया। भारत और इंडोनेशिया में सूफियों का बहुत प्रभाव हुआ। [[मोइनुदीन चिश्ती]], [[बाबा फरीद]], [[हजरत निजामुद्दीन (संत)|निज़ामुदीन]] जैसे भारतिय सूफी संत इसी कड़ी का हिस्सा थे।
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=== पारिवारिक और सामाजिक जीवन ===
 
मुसलमानों का पारिवारिक और सामाजिक जीवन इस्लामी कानूनों और इस्लामी प्रथाओं से प्रभावित होता है। विवाह एक प्रकार का कानूनी और सामाजिक अनुबंध होता है जिसकी वैधता केवल पुरुष और स्त्री की मर्ज़ी और २ गवाहों से निर्धारित होती है (शिया वर्ग में केवल १ गवाह चाहिये होता है)। इस्लामी कानून स्त्रियों को भी पुर्षों की तरह विरासत में हिस्सा देते हैं।(हालांकि उनका हिस्सा आम तौर से पुर्षों का आधा होता है।)
 
इस्लाम के दो महत्वपूर्ण [[मुस्लिम त्यौहार|त्यौहार]] [[ईद उल फितर]] और [[ईद-उल-अज़्हा]] हैं। रमज़ान का महीना (जो कि [[हिजरी|इस्लामी कैलेण्डर]] का नवाँ महीना होता है) बहुत पवित्र समझा जाता है। अपनी इस्लामी पहचान दिखाने के लिये मुसलमान अपने बच्चों का नाम अक्सर अरबी भाषा से लेते हैं। इसी कारण वह दाढ़ी भी रखते हैं। इस्लाम में कपड़े पहनते समय लाज और शीलता रखने पर बहुत ज़ोर दिया गया है। इस लिये कुछ स्त्रियाँ अजनबी पुर्षों से पर्दा करती हैं।
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[[Image:Sufi photos 051.jpg|250px|thumb|भारत के अजमेर शहर में सूफी संत मोइनुदीन चिश्ती की दरगाह। यहां रोज़ हज़ारों मुसलमान और हिन्दू श्रद्धांजलि देने आते हैं
।]]
अन्य धर्मों से इस्लाम का संपर्क समय और परिस्थ्ति से प्रभावित रहा है। यह संपर्क मुहम्मद साहब के समय से ही शुरु हो गया था। उस समय इस्लाम के अलावा अरब में ३ परम्पराओं के मानने वाले थे। एक तो अरब का पुराना धर्म (जो अब लुप्त हो चुका है) था जिसकी वैधता इस्लाम ने नहीं स्वीकार की। इसका कारण था कि वह धर्म ईश्वर की एकता को नहीं मानता था जो कि इस्लाम के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध था। [[ईसाई धर्म]] और [[यहूदी धर्म]] को इस्लाम ने वैध तो स्वींकार कर लिया पर इस्लाम के अनुसार इन धर्मों के अनुयायियों और पुजारियों ने इनमें बदलाव कर दिये थे। मुहम्म्द साहब ने अपने मक्का से मदीना पहुंचने के बाद वहाँ के यहूदियों के साथ एक संधि करी जिसमें यहूदियों की धार्मिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता को स्वींकारा गया।<ref>Jacob Neusner, ''God's Rule: The Politics of World Religions'', p. 153, Georgetown University Press, 2003, ISBN 0-87840-910-6</ref> अरब बहुदेववादियों के साथ भी एक संधि हूई जिसे हुदैबा की सुलह कहते हैं।
 
मुहम्मद साहब के बाद से अक्सर राजनैतिक कारण अन्य धर्मों की ओर् इस्लाम का व्यवहार निर्धारित करते आये हैं। जब राशिदून खलीफाओं ने अरब से बाहर कदम रखा तो उनका सामना [[पारसी धर्म]] से हुआ। उसको भी वैध स्वींकार कर लिया गया।<ref>[http://www.iranchamber.com/religions/zoroaster_zoroastrians_in_iran.php Zoroaster and Zoroastrians in Iran], by Massoume Price, ''Iran Chamber Society'', retrieved March 24, 2006</ref> इन सभी धर्मों के अनुयायियों को धिम्मी कहा गया। मुसलमान खलीफाओं को इन्हें एक शुल्क देना होता था जिसे जिज़्या कहते हैं। इसके बदले राज्य उन्हें सुरक्षा देता था और आम मुसलमानों की तरह उन्हें सेना में शामिल होने और ज़कात देने (एक सालाना दान जो हर मुसलमान को गरीबों को देना अनिवार्य है) के लिये मजबूर नहीं करता था। उम्मयदों के कार्यकाल में इस्लाम कबूल करने वाले को अक्सर हतोत्साहित किया जाता था। इसका कारण था कि कई लोग केवल राजनैतिक और आर्थिक लाभों के लिये ही इस्लाम कबूल करने लगे थे। इससे जिज़्या कम होने लगा था।<ref>{{cite book