"चोल राजवंश": अवतरणों में अंतर

[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो Replacing png with svg (File:Rajendra map new.pngFile:Rajendra map new.svg)
पंक्ति 73:
 
== सांस्कृतिक स्थिति ==
चोल साम्राज्य कीdh शक्ति बढ़ने के साथ ही सम्राट् के गौरव ओर ऐश्वर्य के भव्य प्रदर्शन के कार्य बढ़ गए थे। राजभवन, उसमें सेवकों का प्रबंध ओर दरबार में उत्सवों और अनुष्ठानों में यह प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। सम्राट् अपने जीवनकाल ही में युवराज को शासनप्रबंध में अपने साथ संबंधित कर लेता था। सम्राट के पास उसकी मौखिक आज्ञा के लिए भी विषय एक सुनिश्चित प्रणाली के द्वारा आता था, एक सुनिश्चित विधि में ही वह कार्य रूप में परिणत होता था। राजा को परामर्श देने के लिए विभिन्न प्रमुख विभागों के कर्मचारियों का एक दल, जिसे उडनकूट्टम् कहते थे। सम्राट् के निरंतर संपर्क में रहता था। सम्राट् के निकट संपर्क में अधिकारियों का एक संगठित विभाग था जिसे ओलै कहते थे1 चोल साम्राज्य में नौकरशाही सुसंगठित और विकसित थी जिसमें अधिकारियों के उच्च (पेरुंदनम्) और निम्न (शिरुदनम्) दो वर्ग थे। केंद्रीय विभाग की ओर से स्थानीय अधिकारियों का निरीक्षण और नियंत्रण करने के लिए कणकाणि नाम के अधिकारी होते थेे। शासन के लिए राज्य वलनाडु अथवा मंडलम्, नाडु और कूर्रम् में विभाजित था। संपूर्ण भूमि नापी हुई थी और करदायी तथा करमुक्त भूमि में बँटी थी। करदायी भूमि के भी स्वाभाविक उत्पादनशक्ति और फसल के अनुसार, कई स्तर थे। कर के लिए संपूर्ण ग्राम उत्तरदायी था। कभी-कभी कर एकत्रित करने में कठोरता की जाती थी। भूमिकर के अतिरिक्त चुंगी, व्यवसायों और मकानों तथा विशेष अवसरों और उत्सवों पर भी कर थे। सेना अनेक सैन्य दलों में बँटी थी जिनमें से कई के विशिष्ट नामों का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है। सेना राज्य के विभिन्न भागों में शिविर (कडगम) के रूप में फैली थी। दक्षिण-पूर्वी एशिया में चोलों की विजय उनके जहाजी बेड़े के संगठन और शक्ति का स्पष्ट प्रमाण है। न्याय के लिए गाँव और जाति की सभाओं के अतिरिक्त राज्य द्वारा स्थापित अदालतें भी थीं। निर्णय सामाजिक व्यवस्थाओं, लेखपत्र और साक्षी के प्रमाण के आधार पर होते थे। मानवीय साक्ष्यों के अभाव में दिव्यों का भी सहारा लिया जाता था।
 
चोल शासन की प्रमुख विशेषता सुसंगठित नौकरशाही के साथ उच्च कोटि की कुशलतावली स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं का सुंदर और सफल सामंजस्य है। स्थानीय जीवन के विभिन्न अंगों के लिए विविध सामूहिक संस्थाएँ थीं जो परस्पर सहयोग से कार्य करती थीं। नगरम् उन स्थानों की सभाएँ थीं जहाँ व्यापारी वर्ग प्रमुख था। ऊर गँव के उन सभी व्यक्तियों की सभा थी जिनके पास भूमि थी। सभा ब्रह्मदेय गाँवों के ब्राह्मणों की सामूहिक संस्था का विशिष्ट नाम था। राज्य की ओर से साधारण नियंत्रण और समय पर आयव्यय के निरीक्षण के अतिरिक्त इन सभाओं को पूर्ण स्वतंत्रता थी। इनके कार्यों के संचालन के लिए अत्यंत कुशल और संविधान के नियमों की दृष्टि से संगठित और विकसित समितियों की व्यवस्था थी जिन्हें वारियम् कहते थे। उत्तरमेरूर की सभा ने परांतक प्रथम के शासनकाल में अल्प समय के अंतर पर ही दो बार अपने संविधान में परिवर्तन किए जो इस बात का प्रमाण है कि ये सभाएँ अनुभव के अनुसार अधिक कुशल व्यवस्था को अपनाने के लिये तत्पर रहती थीं। इन सभाओं के कर्तव्यों का क्षेत्र व्यापक और विस्तृत था।